डॉ. भानु प्रताप सिंह
उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव 2022 के परिणाम बड़ा संकेत दे रहे हैं। मीमांसा करें तो पाते हैं कि उत्तर प्रदेश में पहली बार मतदाताओं का व्यापक पैमाने पर ध्रुवीकरण हुआ है। यह ध्रुवीकरण भाजपा के पक्ष में और भाजपा के खिलाफ हुआ है। मतदाताओं का उद्देश्य था- भाजपा को हराना या भाजपा को जिताना। अन्य किसी दल या पार्टी से कोई मतलब नहीं था। सरकार ने सामाजिक सुरक्षा की योजनाओं का लाभ बिना किसी जाति या धर्म के सबको दिया। फिर चाहे वह कोरोना काल के दौरान खाते में नकद राशि भेजना हो, राशन देना हो, किसान सम्मान निधि हो, मकान हो, शौचालय हो, नल हो, विद्युत संयोजन हो, गैस सिलेंडर हो, बैंक में खाता खुलवाना हो, किसी भी तरह की पेंशन हो, लैपटॉप या टैबलेट हो। इन योजनाओं का सर्वाधिक लाभ दलितों और मुस्लिम वर्ग ने उठाया है क्योंकि इसी वर्ग के अधिकांश लोग पात्रता की श्रेणी में आते हैं। मतलब सरकार ने ‘सबका साथ सबका विकास सबका विश्वास’ नारा सार्थक किया। इसके बाद भी दोनों ही वर्ग ने सरकार को वोट नहीं दिया। इसका क्या मतलब निकाला जाए?
सोशल मीडिया पर गाजीपुर जिले की जहूराबाद विधानसभा सीट का उदाहरण देते हुए मुस्लिमों की वोट देने की मानसिकता के बारे में अवगत कराया जा रहा है। मैंने इस सीट की छानबीन की तो बात बिलकुल सत्य प्रतीत हुई। यहां से तीन बार की विधायक, अखिलेश सरकार में मंत्री रहीं मुस्लिम प्रत्याशी सैयदा शादाब फातिमा ने बहुजन समाज पार्टी की टिकट पर चुनाव लड़ा। उन्हें मुस्लिमों ने वोट नहीं दिया। बसपा का कैडर वोट ही मिला। उन्हें 52885 वोट मिले। अखिलेश से गठबंधन करके सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के प्रत्याशी ओमप्रकाश राजभर को 114151 वोट मिले। राजभर ऐसा नेता है जो आज तक किसी का सगा नहीं हुआ है। असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी एआईएमआईएम के प्रत्याशी शौकत अली को 1524 वोट मिले। इससे अधिक तो नोटा (NOTA) को 1832 वोट मिले हैं। भारतीय जनता पार्टी के प्रत्याशी कालीचरण को 68920 वोट मिले। इस उदाहरण से यह स्पष्ट तौर पर समझा जा सकता है कि मुस्लिमों की न तो कोई पार्टी है और न ही कोई नेता। मुस्लिमों की पार्टी और नेता वह है जो चुनाव में भारतीय जनता पार्टी को हरा सकता है। हम सब जानते हैं कि मुस्लिमों के मुद्दे पर सर्वाधिक मुखर ओवेसी हैं। चुनाव प्रचार के दौरान उनकी सभाओं में भीड़ भी बहुत होती थी। इसके बाद भी उत्तर प्रदेश में ओवैसी की पार्टी के प्रत्याशियों को वोट नहीं मिला। सच तो यह है कि मुस्लिमों ने ओवैसी को उत्तर प्रदेश में मुँह दिखाने लायक भी नहीं छोड़ा।
यह हाल तब है जबकि कोई सी भी पार्टी पहले की तरह मुस्लिमों से वोट नहीं मांग रही थी। प्रत्येक पार्टी का प्रमुख नेता मंदिरों में जाकर पूजा-पाठ कर रहा था। हर किसी में हिन्दुओं को रिझाने की होड़ थी। यहां तक समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव और राष्ट्रीय लोकदल के अध्यक्ष जयंत चौधरी भी मुस्लिमों को केन्द्रित करके कोई खास बात नहीं कह रहे थे। मुस्लिमों को वोट देने के संबंध में कोई फतवा जारी नहीं किया गया। इसके बाद भी मुस्लिमों ने सपा-रालोद गठबंधन के प्रत्याशियों को ही वोट दिया। अन्य दलों यहां तक कि बहुजन समाज पार्टी के मुस्लिम प्रत्याशियों तक को ठेंगा दिखा दिया जबकि बसपा के पास अपना कैडर वोट है।
यह स्पष्ट तौर पर कहा जा सकता है कि उत्तर प्रदेश में मुस्लिमों की न तो कोई पार्टी है और न ही नेता। उनकी पार्टी वह है जो भाजपा को हरा सकती है। मुस्लिमों के मस्तिष्क में भाजपा एक हौवा की तरह है। उन्हें लगता है कि भाजपा सत्ता में आ गई तो उनका नामो-निशान मिट जाएगा। उन्हें सोचना चाहिए कि उ.प्र. में पांच साल में भाजपा ने क्या उनका अहित किया है, क्या सरकारी योजनाओं में उन्हें लाभ नहीं दिया है, क्या उनके साथ कोई भेदभाव किया है, क्या विकास कार्यों में धर्म के आधार पर अनदेखी की है? मुस्लिम कहते हैं कि उन्हें सरकारी नौकरियों में अवसर नहीं मिलते हैं तो इसका जवाब यह है कि मुस्लिम अपने बच्चों को शिक्षा से वंचित रखते हैं। आरक्षिण श्रेणी के मुस्लिमों को सरकारी नौकरियों में आरक्षण है, लेकिन इसका लाभ तो शिक्षित लोग ही उठा सकते हैं। कश्मीर के मुस्लिम उत्तर प्रदेश में आकर पढ़ाई करते हैं और सरकारी नौकरियां पाते हैं। सबसे बड़ा सवाल यह है कि आखिर मुस्लिम भाजपा की मुखालफत क्यों करते हैं?
समाजवादी पार्टी ने इस बार सबसे कम 64 मुस्लिम उम्मीदवारों को टिकट दिया था। समाजवादी पार्टी के जेल में बंद सबसे बड़े नेता आजम खान और उनके बेटे अब्दुल्ला आजम ने रामपुर और स्वार सीट से चुनाव जीता है। जेल में बंद माफिया मुख्तार अंसारी के बेटे और भतीजे अब्बास और मन्नू भी चुनाव जीत गए हैं। गैंगस्टर ऐक्ट में जेल में बंद नाहिद हसन को भी कैराना से जीत मिली है। आजमगढ़ की निजामाबाद सीट से सपा के 85वर्षीय मुस्लिम उम्मीदवार आलम बदी भी 34,187 वोट से चुनाव जीते हैं। मेरठ की किठौर सीट पर सपा के शाहिद मंजूर और बीजेपी के सतवीर सिंह के बीच करीबी मुकाबला हुआ और मंजूर महज 2,180 वोट से जीतने में कामयाब रहे।
अमरोहा से महबूब अली, बहेड़ी से अता उर रहमान, बेहट से उमर अली खान, भदोही से जाहिद, भोजीपुरा से शहजिल इस्लाम, बिलारी से मो. फहीम, चमरौआ से नसीर अहमद, गोपालपुर से नफीस अहमद, इसौली से मो. ताहिर खान चुनाव जीते हैं। कैराना से नाहिद हसन, कानपुर कैंट से मो. हसन, कांठ से कमाल अख्तर, किठौर से शाहिद मंजूर, कुंदरकी से जिया उर रहमान, लखनऊ पश्चिम से अरमान खान, मटेरा से मारिया, मेरठ से रफीक अंसारी, मोहमदाबाद से सुहेब उर्फ मन्नू अंसारी, मुरादाबाद ग्रामीण से मो. नासिर सपा की टिकट पर चुनाव जीते हैं। नजीबाबाद से तस्लीम अहमद, निजामाबाद से आलम बदी, पटियाली से नादिरा सुल्तान, राम नगर से फरीद महफूज किदवई, रामपुर से मो. आजम खान, संभल से इकबाल महमूद, सिंकदरपुर से जिया उद्दीन रिजवी, सीसामऊ से हाजी इरफान सोलंकी, स्वार से मो. अब्दुल्ला आजम, ठाकुरद्वारा से नवाब जान, डुमरियागंज से सैय्यदा खातून, सहारनपुर से आशु मलिक भी सपा से विधायक चुने गए हैं। सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी (सुभासपा) से माफिया मुख्तार अंसारी के बेटे अब्बास अंसारी मऊ सीट से जीतकर विधानसभा पहुंचे हैं।राष्ट्रीय लोकदल (रालोद) के टिकट पर सिवालखास से गुलाम मोहम्मद और थानाभवन सीट से अशरफ अली चुनाव जीत कर विधायक बने हैं।
विधानसभा चुनाव में बहुजन समाज पार्टी ने 88 और कांग्रेस ने 75 मुस्लिम प्रत्याशियों को टिकट दिया था। एआईएमआईएम ने 60 से अधिक मुस्लिम उम्मीदवार उतारे थे, लेकिन एक को भी जीत नहीं मिली। वैसे यह बड़ी ताज्जुब की बात है कि बसपा का एक भी मुस्लिम प्रत्याशी विधायक नहीं बना जबकि उसके पास अपना आधार वोट भी है। 2017 के चुनाव में 24 मुस्लिम विधायक थे। 2022 के चुनाव में यह संख्या बढ़कर 34 हो गई है।
और अंत में
आज की राजनीति पर निदा फाजली का ये शेर आज भी मौजूं है-
इंसान में हैवान यहाँ भी है वहाँ भी ।
अल्लाह निगहबान यहाँ भी है वहाँ भी ।।
डॉ. भानु प्रताप सिंह
(लेखक जनसंदेश टाइम्स के कार्यकारी संपादक हैं)
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