नई दिल्ली: लगता है दिल्ली की गलियों में हवा कुछ बदल गई है। विपक्ष की जो एकता कुछ दिनों पहले तक बड़े-बड़े होर्डिंगों पर मुस्कुरा रही थी, वो अब धीरे-धीरे बिखरती नजर आ रही है। कारण? केंद्र सरकार द्वारा लाया गया 130वां संविधान संशोधन बिल, जिसमें प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री और मंत्रियों को 30 दिन की नजरबंदी के बाद पद से हटाने का प्रावधान है। इस बिल पर गठित ज्वाइंट पार्लियामेंट्री कमिटी (जेपीसी) ने विपक्ष के भीतर ही दो फाड़ कर दिया है। सवाल यह है कि क्या यह ‘एकता’ केवल दिखावे की थी या फिर वाकई राजनीतिक स्वार्थों की दीवारें इतनी मजबूत हैं कि उन्हें तोड़ने की हिम्मत किसी में नहीं है?
पहले ममता बनर्जी और अब समाजवादी पार्टी (सपा) ने इस जेपीसी को एक “तमाशा” करार देते हुए इसमें शामिल न होने का फैसला किया है। आखिर क्यों? क्या उन्हें लगता है कि यह जेपीसी सिर्फ समय की बर्बादी है? या फिर उन्हें यह अहसास हो गया है कि इस जेपीसी से कुछ हासिल होने वाला नहीं है, क्योंकि इसमें सत्ताधारी दल का बहुमत है? क्या इस तरह की कमेटियां अब सिर्फ अपने-अपने ‘भक्तों’ को संतुष्ट करने का एक जरिया बन गई हैं?
क्या यह सिर्फ एक हथकंडा है?
टीएमसी सांसद डेरेक ओ’ब्रायन ने तो साफ-साफ कह दिया कि यह ‘असंवैधानिक विधेयक’ एक ‘हथकंडा’ है। उनके मुताबिक, इसका असली मकसद एसआईआर से ध्यान हटाना है। उन्होंने कहा कि “किसी को तो इस हथकंडे को हथकंडा कहना ही था। मुझे खुशी है कि हमने ऐसा किया।” जब एक पार्टी खुले तौर पर सत्तारूढ़ दल पर इतना बड़ा आरोप लगा रही है, तो क्या देश की जनता को यह सवाल नहीं पूछना चाहिए कि क्या हमारी संसद सिर्फ ‘हथकंडों’ और ‘ध्यान भटकाने’ का अड्डा बन गई है?
क्या जनता की भलाई के लिए कानून बनाना अब प्राथमिकता नहीं रही?
अखिलेश यादव का सवाल, जिसका जवाब कौन देगा?
समाजवादी पार्टी के प्रमुख अखिलेश यादव ने भी इस विधेयक पर अपनी आपत्ति दर्ज कराई है। उन्होंने टाइम्स ऑफ इंडिया को दिए एक बयान में कहा कि इस विधेयक का मूल विचार ही गलत है। उन्होंने सीधे-सीधे गृह मंत्री अमित शाह पर निशाना साधा और कहा कि जिन्होंने खुद को ‘फर्जी आपराधिक मामलों’ में फंसाए जाने का दावा किया, वही इस तरह का विधेयक कैसे ला सकते हैं? उनका तर्क है कि जब किसी को भी ‘फर्जी मामलों’ में फंसाया जा सकता है, तो फिर इस विधेयक का क्या मतलब है?
क्या अखिलेश यादव के सवाल में सच्चाई नहीं है? क्या आज की राजनीति में ‘फर्जी मुकदमे’ सिर्फ एक हथियार बन कर नहीं रह गए हैं? क्या आजम खान, रमाकांत यादव, और इरफान सोलंकी जैसे नेताओं को सिर्फ इस ‘हथियार’ का शिकार नहीं बनाया गया है?
अखिलेश यादव ने यह भी कहा कि यह विधेयक भारत की संघीय व्यवस्था के साथ सीधा टकराव पैदा करेगा। उनके मुताबिक, मुख्यमंत्री अपने राज्यों में अपने खिलाफ दर्ज आपराधिक मामलों को वापस ले सकेंगे और केंद्र इस पर कोई नियंत्रण नहीं रख पाएगा, क्योंकि कानून-व्यवस्था राज्यों का विषय है। क्या इसका मतलब यह है कि केंद्र सरकार राज्यों के अधिकारों को सीमित करना चाहती है? क्या ‘सहकारी संघवाद’ की बातें सिर्फ भाषणों तक ही सीमित हैं?
जेपीसी: क्या अब यह सिर्फ एक ‘तमाशा’ बन गई है?
टीएमसी के डेरेक ओ’ब्रायन ने इस जेपीसी की सार्थकता पर ही सवाल उठा दिया है। उन्होंने तो बोफोर्स और हर्षद मेहता घोटाले जैसे पुराने मामलों का हवाला देते हुए यह भी कहा कि इन मामलों में भी जेपीसी ने कुछ खास हासिल नहीं किया था। उनका कहना है कि 2014 के बाद से जेपीसी का मकसद ही बदल गया है। अब सत्ताधारी दल इसमें हेरफेर करता है, विपक्षी दलों के संशोधन खारिज किए जाते हैं और ‘सार्थक बहस’ की जगह ‘पक्षपातपूर्ण बकवास’ ने ले ली है।
अगर एक सांसद को लगता है कि जेपीसी अब सिर्फ एक ‘पक्षपातपूर्ण बकवास’ बन गई है, तो क्या हमें इस पर विश्वास नहीं करना चाहिए? क्या हमारी संसदीय व्यवस्था वाकई इतनी कमजोर हो गई है कि वह अब सार्थक बहस भी नहीं कर सकती? क्या हमारी राजनीति में ‘जनादेश’ का मतलब अब ‘तानाशाही’ बन गया है?
यह बिल और इस पर हो रही राजनीति बहुत कुछ कहती है। यह बताती है कि विपक्ष की ‘एकता’ कितनी नाजुक है। यह बताती है कि हमारी राजनीतिक पार्टियां अपने फायदे के लिए किसी भी हद तक जा सकती हैं। और सबसे महत्वपूर्ण, यह बताती है कि हमारी संसद में आज भी ‘जनता के मुद्दे’ नहीं, बल्कि ‘सत्ता के दांव-पेंच’ ही हावी हैं। तो क्या हम मान लें कि इस देश की जनता अब सिर्फ ‘तमाशे’ देखने के लिए ही रह गई है?
मोहम्मद शाहिद की कलम से
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