jain muni dr mani bhadra

नेपाल केसरी जैन मुनि डॉ. मणिभद्र ने आगरा चातुर्मास में हिन्दू संस्कृति को लेकर कही बड़ी बात

NATIONAL RELIGION/ CULTURE

महावीर भवन जैन स्थानक, न्यू राजामंडी में चल रहे हैं प्रवचन

Agra, Uttar Pradesh, India. आज हम लोग बाहरी पाश्चात्य संस्कृति को अपनाते अपनाते अपनी स्वयं की हिंदू संस्कृति से दूर होते जा रहे है। अगर कोई आज अपनी संस्कृति का पालन करते हुए चोटी रखता है, धोती -कुर्ता अथवा शुद्ध वस्त्रों को धारण करता है तो हम उसे उपहास की दृष्टि से देखते है और स्वयं को बाहरी श्रंगार से विभूषित कर श्रेष्ठ मान लेते है। हमारी संस्कृति, सभ्यता और धर्म चरित्र निर्माण करता है हमें इस पर गौरव करना चाहिए । यह उद्गार जैन मुनि मणिभद्र ने गुरुवार को महावीर भवन जैन स्थानक, न्यू राजामंडी, आगरा में  श्रावकों के सम्मुख रखे। मंच पर शिष्य पुनीत मुनि और विराग मुनि भी विरजामान रहते हैं।

 

डॉक्टर मणिभद्र ने उदाहरण देते हुए आगे बताया कि एक साधु अपनी पारंपरिक वेशभूषा भगवा वस्त्र , चोटी धारण किए हुए एक बार विदेश गए थे तो वहां उनकी वेश भूषा देखकर एक पत्नी ने अपने पति से पूछा यह कौन है तो पति ने जवाब दिया वस्त्रों से तो यह कोई पागल प्रतीत होता है। यह बात साधु ने सुन ली और उसने उन पति पत्नी को अपने नजदीक बुलाया और उन्हें अपना परिचय देते हुए कहा कि मैं उस देश से आया हूं जहां की सभ्यता और संस्कृति चरित्र को महान बनाते हैं लेकिन लेकिन आपके यहां आपका दर्जी ही आप को महान बनाता है। कपड़े महान बनाते है अगर शरीर उज्जवल है,भीतर पवित्रता है तो किसी को भी दिखाने की आवश्यकता नहीं होती है।

 

आचार्य डॉक्टर मणिभद्र ने कहा की हम श्रृंगार करते हैं हमारे घरों में बड़े शीशे होते हैं जिसमें मनुष्य का पूरा आवरण दिखाई देता है और उसी के अनुरूप हम  तैयार होते हैं। हम उसी श्रृंगार से अपने आप को अच्छा दिखाने का प्रयास करते हैं। यदि व्यक्ति अच्छा होता है तो उसे दिखाने की कोई आवश्यकता नहीं है।

 

समय आने पर व्यक्ति के बाल पक जाते हैं फिर सफेद हो जाते हैं तो समझ लीजिए बालों का रंग बदलना शुरू हो गया है तो अब जीने का ढंग भी बदलना पड़ेगा, लेकिन हम लोग जीने का ढंग तो नहीं बदलते बालों का रंग बदल  देते हैं । यह तरीका धर्म में भी हो रहा है। हर व्यक्ति धार्मिक दिखना चाहता है लेकिन अंदर से धार्मिक नहीं है। हर व्यक्ति अहिंसक बनना चाहता है लेकिन इसके विपरीत कार्य करता है। हम झूठ बोलते हैं, दूसरों को धोखा देते हैं। सबसे ज्यादा धोखा हम उसे देते हैं जो हमारे सबसे ज्यादा नजदीक होता है। लेकिन जब हम अपने अंदर झांक के देखते हैं तो हम यह पाएंगे कि हमने अपने आप को सबसे ज्यादा धोखा दिया है। सबसे बुरा में ही हूं, मैं किसी और को दोष क्यों दूं।

 

इससे पूर्व जैन मुनि विराग एवम पुनीत मुनि ने सुमधुर भजनों की प्रस्तुति दी।वनेपाल से धर्मसभा में आए सहसचिव ईश्वरी ढकाल ने अपने सारगर्भित उदगार गुरु चरणों में रखे । उमा जैन का चार व्रत का उपकार चल रहा है।आज का आयंबिल उपवास संगीता सुराना नवकार मंत्र के जाप का लाभ कांता सुराना ने लिया। गुरुवार की धर्म सभा में मुकेश चप्लावत,  सुमित्रा सुराना,  अशोक जैन गुल्लू, रितु जैन, नरेंद्र गादिया, सुलेखा सुराना, सतपाल जैन , भावेश बुरड़ सहित अनेक लोग उपस्थित थे। जैन मुनि डॉक्टर मणिभद्र के प्रवचन प्रतिदिन जैन स्थानक राजा की मंडी में प्रात: 9 से 1० तक होते है।

 

जिस दिन हम यह स्वीकार कर लेंगे कि हमें जीवन में जो दुख सुख मिल रहा है वह मेरे स्वयं के कर्मों का परिणाम है और हमें इसे भोगना पड़ेगा। दशांग सूत्र के पहले अध्याय में कहा गया है की हमें जो सुख मिल रहा है , आनंद की अनुभूति हो रही है , मान और प्रतिष्ठा मिल रही है इसमें पूर्व जन्म के कर्म कार्य कर रहे है। कहते है पूर्व जन्म का फल भोगना ही पड़ता है। इसे भोगे बिना कोई उपाय नहीं है परंतु जब दु:ख आते है तो हम ऐसी शक्तियों को खोजने का प्रयास करते है, ऐसे किसी चमत्कार की उम्मीद करते है कि पूर्व जन्म के कर्म भुगतने न पड़े। यह उद्गार जैन मुनि डॉ. मणिभद्र ने महावीर भवन जैन स्थानक में अनुयायियों के सम्मुख रखें।

 

उन्होंने कहा कि हम लोग भगवान महावीर के अनुयाई होकर भी सांसारिक चमत्कार के पीछे लगना शुरू हो गए। लेकिन भगवान महावीर का मार्ग हमें सही मंजिल की और लेकर जायेगा। जैन.दर्शन की विशिष्ट मान्यता श्रमण  विशेषण से होती है। इसका अभिप्राय यह है कि महावीर ने भगवान का पद श्रमणत्व के द्वारा, साधना के द्वारा प्राप्त किया, वे सनातन ईश्वर नहीं,  साधनाजनित ईश्वर या भगवान् थे।  जैनमुनि ने बताया कि कहने को तो जैन लोग भी कहते हैं, कि चैत्र शुक्ला त्रयोदशी के दिन भगवान् महावीर का जन्म हुआ, किन्तु ऐसा कहना एक अपेक्षा.मात्र है। जैनदर्शन की गहराई में उतरें और तथ्य को खोजने चलें तो प्रतीत होगा, कि उस दिन केवल भौतिक रूप से महावीर का जन्म हुआ, महावीर का असली  जन्म तो तब हुआ, जब महावीर को भगवान् दशा प्राप्त हुई, अर्थात् केवल दर्शन और केवल ज्ञान प्राप्त हुआ। वह तिथि चैत्र शुक्ला त्रयोदशी नहीं, वैशाख शुक्ला दशमी थी।

 

महावीर स्वामी साधु बने और साधु बने तो भेष बदलने वाले साधु नहीं, जीवन बदलने वाले साधु बने। उन्होंने सोने के महलों को छोड़ा तो फिर पल भर के लिए भी उनकी ओर नहीं झाँका। वे संसार के सर्वोत्तम वैभव को ठुकरा कर आगे आए। तीस वर्ष तक का जीवन उन्होंने गृहस्थावस्था में बिताया, पर जब उसका त्याग किया, तो सर्वतोभावेन त्याग किया। उन्होंने अपने जीवन के लिए जो राह चुनी, उस पर अग्रसर होते ही चले गए, पल-पल आगे ही बढ़ते गए। वह अपने जीवन का विकास करने के लिए अपने विकारों और अपनी वासनाओं से लड़े और ऐसे लड़े कि उन्हें खदेड़ कर ही, दूर हटाकर ही दम लिया। उन्होंने जीवन की दुर्बलताओं को और बुराइयों को चुनौती दी और उन्हें पराजित भी किया। केवल ज्ञान और केवल दर्शन पाया और तब भगवान् का महान् पद भी प्राप्त किया। उन्हें भगवतेज की प्राप्ति हुई।

 

इससे पूर्व जैन मुनि पुनीत ने महामंत्र नवकार की व्याख्या करते हुए बताया कि ऊध्र्व लोक,अधोलोक एवम मध्यलोक में नवकार मंत्र सर्वश्रेष्ठ है।जिस प्रकार पारस पत्थर के छूने मात्र से लोहा सोने में बदल जाता है ऐसे ही नवकार महामंत्र जिसके हृदय में बस जाता है उसे भगवन स्वरूप बना देता है। आज की धर्म सभा में मेरठ एवम पूना से धर्म प्रेमी उपस्थित थे। धर्मसभा का संचालन राजेश सकलेचा ने किया। इस अवसर पर आदेश बुरड़, सुरेंद्र चपलावत, अशोक जैन गुल्लू, सुरेंद्र सोनी, नरेश बरार, विवेक कुमार जैन,प्रदीप सुराना, राजकुमार सुराना , राजीव जैन, संजय जैन आदि लोग उपस्थित थे।

jain women agra
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20 जुलाई का प्रवचन

राजा की मंडी स्थित महावीर भवन जैन स्थानक में जैन मुनि डॉक्टर मणिभद्र ने बुधवार को प्रवचन देते हुए कहा कि मनुष्य में संस्कार के साथ संयम होना अत्यंत आवश्यक है । जिस प्रकार दया और सद्गुण, पुण्य और पाप हमारे साथ जाते है और वो नितांत रूप से हमारे होते है ऐसे ही समृद्धशाली होना संस्कार होता है। उन्होंने समझाया की यदि किसी व्यक्ति के पास अचानक सोना आ जाए तो उसे उसका नशा हो जाता है। सोना का जिसके पास भी आ जाता है तो उसे सोने नहीं देता, हमेशा 24 घंटे उसी में ध्यान लगा रहता है।जैसे किसी ने कहा भी है कि कनक-कनक से सौ गुनी मादकता अधिकाय, वा खाए बोरा, जग या पाए बोराय।

कनक का अर्थ सोना और धतूरा दोनो होता है ।जिस प्रकार धतूरा गले के नीचे उतरते ही नशा आ जाता है उसी प्रकार किसी को सोना मिल जाता तो तो उसको उसका नशा हो जाता है।

आचार्य मणिभद्र ने कहा की पद-प्रतिष्ठा और पैसा ऐसे चीजे हंै जिनको पचाना बहुत मुश्किल है। जितना आपका पद बढ़ता है, मान बढ़ता है, धन बढ़ता है उतना ही खतरा बढ़ता जाता है।अगर कोई जमीन पर बैठा है तो उसे गिरने का कोई भय नहीं है लेकिन अगर आप कुर्सी पर भी बैठते है तो गिरने का खतरा बरकरार रहता है कि कही कोई पीछे से कुर्सी खींच न दे। इस कारण इस अवस्था को जो संभाल ले वही संसार में श्रेष्ठ हो जाता है।

इससे पूर्व जैन मुनि पुनीत ने नवकार महामंत्र की महिमा का विस्तृत विवरण श्रावकों के सम्मुख रखा। जैन मुनि विराग द्वारा भजन की सुंदर प्रस्तुति दी गई ।आज की धर्म सभा में नेपाल से आए सरकार के सचिव एवम स्महान्यायधीवक्ता कृष्णाघीमेरे,  नेपाल सरकार के उपसचिव ईश्वरी ढकाल न्यायधिवक्ता रुद्रुसुवेदी ने एवम कई विशिष्ट जनों ने गुरुदेव का आशीर्वाद लिया। तपस्वी अमर लाल  दुग्गड़ ने 8 उपवास के उपरांत पारना किया। आयंबिल की लड़ी में माधुरी  जैन, लोहामंडी ने एवम नवकार मंत्र का पाठ का लाभ विनीता  सकलेचा परिवार द्वारा लिया गया।

 

19 जुलाई का प्रवनचन

कभी-कभी जिंदगी में देखा है कि यदि हमने किसी व्यक्ति से संपर्क किया है यदि वह हमारे अनुकूल नहीं है तो जीवन बिना किसी कारण परेशानी में प्रवेश कर जाता है। जब सारे अनुकूल वातावरण जब हमें प्राप्त होते हैं तो इसके पीछे हमारे पूर्व के जन्मों के कर्मों का फल होते हैं। इस आशय के उद्गार जैन मुनि डॉ. मणिभद्र ने मंगलवार को महावीर भवन जैन स्थानक में श्रावकों के समक्ष व्यक्त दिये।

जैन मुनि ने कहा कि आज कहीं न कहीं इस बात से यह कारण बन जाता है कि हमारे जीवन में समृद्धि है लेकिन संतान नहीं है। संतान है तो संतान में कहीं न कहीं कोई कमी है,  जिसकी जिंदगी भर हमें वह कमी पूरी करनी पड़ती है। हम सब की यही इच्छा होती है कि यदि हमने संतान को पैदा किया है तो बुढ़ापे में वह लाठी के रूप में काम आये यहीं हमारा भाव होता है। इसलिये सेवा करनी पड़ती है।

आज हमारे पास अकूत संपदा है सब कुछ है लेकिन हमारे जीवन में संयम न हो तो उसके अभाव में झूठ बोलना पड़ता है। संसार का सबसे बड़ा सुख क्या है ? क्या आप बता सकते हैं ?  मैं उस व्यक्ति को उस सुख को देना चाहता हूं तो उसका भी यह भाव होना चाहिये कि उसे कितना सुख चाहिये। इसके अलावा कुछ नहीं।

उन्होंने कहा कि दुनियां में जब इंसान जन्म लेता है तो वह रोते हुए जन्म लेता है। रोते हुए जन्म लेना हमारी मजबूरी है। परंतु हमारा जीवन लाचारी या रोते हुए बीतेगा  कोई इसके बारे में नहीं जानता है। लेकिन आप तो जानते हैं कि मैंने जीवन में क्या कर्म किया जो यह स्थिति हो रही है । हम अपनी बीती हुई जिंदगी में तो झांक कर देख लें।तो हमे सब ज्ञान हो जाए परंतु यही समझने का तो समय नहीं है हमारे पास। और अब तो  आपके हाथ में  मोबाइल है । इस कारण आप इतने व्यस्त हैं कि मोबाइल में, व्हाट्सएप पर  कितने मैसेज गए आए देखते हैं और मैसेज नहीं आया तो उसे बार बार  खोलकर देखते हैं।  क्या हम एक घण्टा बिना मोबाइल के रह सकते हैं। यदि हां तो ऐसा जीवन बना लो।जिससे आप अपने कर्मों का लेखा जोखा का ध्यान कर सकें।लेकिन आज हमने अपने को इतना व्यस्त बना लिया है कि अपने लिए भी समय नहीं है। हम इतने व्यस्त हो गए है कि  एक पति-पत्नी एक कमरे में एक बिस्तर पर लेटे हैं लेकिन दोनों मोबाइल में इतने व्यस्त हैं एक दूसरे से बात नहीं कर रहे। एक ही परिवार है एक साथ बैठे हुए हैं लेकिन हम किसी से बात नहीं कर रहे हैं। इससे पूर्व जैन मुनि डॉ.  मणिभद्र ने श्रावकों को भगवान भक्ति का भजन राजेश सुनाया, भगवान तेरी अराधना, बस एक तेरा ध्यान हो। होठों पर तेरा नाम हो, भगवान तेरी अराधना। इस भजन पर सभी श्रावकों ने जैन मुनि डॉ. मणिभद्र के साथ गुनगुनाया। इससे पूर्व जैन मुनि पुनीत ने भी अपने भाव पूर्ण उदगार व्यक्त किए।आज की धर्म सभा में मेरठ, पंजाब से धर्म प्रेमी आए थे।उपवास और आयंबिल की लड़ी की तपस्या निरंतर चल रही है।

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18 जुलाई का प्रवचन

जिस दिन हम यह स्वीकार कर लेंगे कि हमें जीवन में जो दुख सुख मिल रहा है वह मेरे स्वयं के कर्मों का परिणाम है और हमें इसे भोगना पड़ेगा।दशांग सूत्र के पहले अध्याय में कहा गया है की हमें जो सुख मिल रहा है , आनंद की अनुभूति हो रही है , मान और प्रतिष्ठा मिल रही है इसमें पूर्व जन्म के कर्म कार्य कर रहे है। कहते है पूर्व जन्म का फल भोगना ही पड़ता है। इसे भोगे बिना कोई उपाय नहीं है परंतु जब दु:ख आते है तो हम ऐसी शक्तियों को खोजने का प्रयास करते है, ऐसे किसी चमत्कार की उम्मीद करते है कि पूर्व जन्म के कर्म भुगतने न पड़े। यह उद्गार जैन मुनि डॉ. मणिभद्र ने महावीर भवन जैन स्थानक में अनुयायियों के सम्मुख रखें।

उन्होंने कहा कि हम लोग भगवान महावीर के अनुयाई होकर भी सांसारिक चमत्कार के पीछे लगना शुरू हो गए। लेकिन भगवान महावीर का मार्ग हमें सही मंजिल की और लेकर जायेगा। जैन.दर्शन की विशिष्ट मान्यता श्रमण  विशेषण से होती है। इसका अभिप्राय यह है कि महावीर ने भगवान का पद श्रमणत्व के द्वारा, साधना के द्वारा प्राप्त किया, वे सनातन ईश्वर नहीं,  साधनाजनित ईश्वर या भगवान् थे।  जैनमुनि ने बताया कि कहने को तो जैन लोग भी कहते हैं, कि चैत्र शुक्ला त्रयोदशी के दिन भगवान् महावीर का जन्म हुआ, किन्तु ऐसा कहना एक अपेक्षा.मात्र है। जैनदर्शन की गहराई में उतरें और तथ्य को खोजने चलें तो प्रतीत होगा, कि उस दिन केवल भौतिक रूप से महावीर का जन्म हुआ, महावीर का असली  जन्म तो तब हुआ, जब महावीर को भगवान् दशा प्राप्त हुई, अर्थात् केवल दर्शन और केवल ज्ञान प्राप्त हुआ। वह तिथि चैत्र शुक्ला त्रयोदशी नहीं, वैशाख शुक्ला दशमी थी।

महावीर स्वामी साधु बने और साधु बने तो भेष बदलने वाले साधु नहीं, जीवन बदलने वाले साधु बने। उन्होंने सोने के महलों को छोड़ा तो फिर पल भर के लिए भी उनकी ओर नहीं झाँका। वे संसार के सर्वोत्तम वैभव को ठुकरा कर आगे आए। तीस वर्ष तक का जीवन उन्होंने गृहस्थावस्था में बिताया, पर जब उसका त्याग किया, तो सर्वतोभावेन त्याग किया। उन्होंने अपने जीवन के लिए जो राह चुनी, उस पर अग्रसर होते ही चले गए, पल-पल आगे ही बढ़ते गए। वह अपने जीवन का विकास करने के लिए अपने विकारों और अपनी वासनाओं से लड़े और ऐसे लड़े कि उन्हें खदेड़ कर ही, दूर हटाकर ही दम लिया। उन्होंने जीवन की दुर्बलताओं को और बुराइयों को चुनौती दी और उन्हें पराजित भी किया। केवल ज्ञान और केवल दर्शन पाया और तब भगवान् का महान् पद भी प्राप्त किया। उन्हें भगवतेज की प्राप्ति हुई।

इससे पूर्व जैन मुनि पुनीत ने महामंत्र नवकार की व्याख्या करते हुए बताया की ऊध्र्व लोक,अधोलोक एवम मध्यलोक में नवकार मंत्र सर्वश्रेष्ठ है।जिस प्रकार पारस पत्थर के छूने मात्र से लोहा सोने में बदल जाता है ऐसे ही नवकार महामंत्र जिसके हृदय में बस जाता है उसे भगवन स्वरूप बना देता है। आज की धर्म सभा में मेरठ एवम पूना से धर्म प्रेमी उपस्थित थे।धर्मसभा का संचालन राजेश सकलेचा ने किया। इस अवसर पर आदेश बुरड़, सुरेंद्र चपलावत, अशोक जैन गुल्लू, सुरेंद्र सोनी, नरेश बरार, विवेक कुमार जैन,प्रदीप सुराना, राजकुमार सुराना , राजीव जैन, संजय जैन आदि लोग उपस्थित थे।

 

17 जुलाई का प्रवचन

हे मनुष्य  जैसे तुझे अपना सुख प्रिय है, वैसे ही दूसरों को भी अपना सुख प्रिय है। तू सुख चाहता है, तो दूसरों को सुख दे। सुख देगा तो सुख पाएगा इसी प्रकार अगर किसी को दुख देगा तो स्वयं भी दुख पायेगा। ये प्रवचन जैन मुनि डॉक्टर मणिभद्र महाराज ने रविवार को महावीर भवन जैन स्थानक राजा की मंडी में श्रावकों के सम्मुख रखें।

उन्होंने कहा कि एक मनुष्य का दूसरे मनुष्य के साथ कैसा व्यवहार है,उसके उस व्यवहार में कड़वापन है या मिठास है, यही हिंसा और अहिंसा की कसौटी है। यदि व्यवहार में कटुता है और हिंसा का तांडव नृत्य है, वहाँ मानवता के पनपने के लिए कोई भूमिका नहीं है। जहाँ राक्षसी भावनाओं का वातावरण है, जहाँ एक-दूसरे को चूसना, लूटना, दबोचना और पद-दलित करना ही केवल विद्यमान है, वहाँ अहिंसा कहाँ रहेगी और मानवता के दर्शन कैसे हो सकेंगे।

मानव.शास्त्र अन्तर्मन के द्वारा ही देखा और समझा जाता है। मनुष्य को सोचना चाहिए, कि मैं जो चेष्टाएँ कर रहा हूँ, आस-पास में उनकी प्रतिक्रिया कैसी होगी। मेरे मन की हरकतों से दूसरों को आनन्द मिलेगा या वे दुख के क्लेश के अथाह सागर में डूब जाएँगे।

मनुष्य और पशु पक्षियों के संबधों के विषय में प्रवचन करते जैन मुनि डॉक्टर मणिभद्र महाराज ने कहा कि  मानव जाति का पड़ोसी कौन है। मनुष्य का पड़ोसी नारकी नहीं है और देवता भी नहीं है उसका सन्निकटतर पड़ोसी है, पशु.जगत।  आज तक मनुष्य ने जो विकास और प्रगति की है, जिन सुख-सुविधाओं को हासिल किया है, और इस दर्जे तक पहुँचा है, उसमें मनुष्य का पुरुषार्थ तो है ही, परन्तु पशुओं का सहयोग भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। मनुष्यों की सभ्यता की अभिवृद्धि में पशुओं का बहुत बड़ा सहयोग रहा है। पशु अनादिकाल से  मानव जाति के सहयोगी और सहायक रहे हैं। परन्तु उनके सहयोग को आज हम भूल.से.गए हैं।

यदि हम भारतवर्ष के इतिहास पर नजर डाले  तो पाएंगे की हमारे पूर्वजों ने जो कुछ भी किया उसमें और  आज मानव.जाति सभ्यता की उन्नति में पशुओं ने मनुष्य की बहुत अधिक सहायता की है। मानव जाति की उन्नति का इतिहास इस बात का साक्षी है।मनुष्य अपनी माता का दूध पीता है और थोड़े समय पीकर छोड़ देता है। फिर गौ.माता या अन्य दुधारू जानवरों का दूध पीना शुरू कर देता है। हमारे शरीर में आज दूध से बनी हुई रक्त की जितनी भी बूँदें हैं, उनका अधिकांश गाय, भैंस, बकरी आदि पशुओं के दूध से ही बना है। अगर आप गम्भीरतापूर्वक विचारें, तो निस्सन्देह जान सकेंगे, कि पशुओं के दूध से बनी रक्त की बूँदें हो। अधिक हैं। मनुष्य माता का दूध तो अत्यल्प काल तक ही पीता है, पर गौ.माता के दूध की धार तो मृत्यु की अन्तिम घडिय़ों तक उसके मुँह में जाती रहती है। इसी कृतज्ञता से गद्गद् होकर पूर्वजों ने कहा है

गौ में माता, वृषभ: पिता में,

इससे पूर्व जैन मुनि पुनीत महाराज ने नवकार महामंत्र के विषय में बताते हुए कहा कि ये मंत्र सिद्ध मंत्र है और इसमें किसी को भी व्यक्तिगत नमस्कार नही किया गया है।प्रवचनों से पूर्व णमोत्थुर्ण पाठ का सामूहिक जाप एस. एस. जैन युवा संगठन एवं जैन स्तुति मंडल द्वारा आयोजित किया गया जिसमे समाज के छोटे बच्चों, युवाओं से लेकर वरिष्ठ सदस्यों ने बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया । इस दौरान तपस्या करने वाली  सुमित्रा सुराना एवं पद्मा सुराना का सम्मान किया गया।

 

 

Dr. Bhanu Pratap Singh