श्रद्धालुओं के बिना मनी जन्माष्टमी, परम्परागत तरीके से हुए आयोजन

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Mathura (Uttar Pradesh, India) मथुरा (सुनील शर्मा) गीता के नायक, लीला पुरूषोत्तम, योगीराज श्री कृष्ण का जन्म भाद्रपद कृष्णा अष्टमी को हुआ था। देश के प्रायः सभी प्रान्तों में श्रीकृष्ण जन्माष्टमी का पर्व असीम श्रद्धा, भक्ति और उल्लास के साथ मनाया जाता है। जन्माष्टमी का यह पर्व देश विदेश में बड़े ही धूम धाम से मनाया जाता है। किन्तु इस वर्ष जन्माष्टमी के सभी आयोजन मंदिरों में तो परम्परागत तरीके से होंगे किसी भी बाहरी व्यक्ति का प्रवेश वर्जित किया गया है जिसके चलते इस वर्ष बाहर से आने वाले श्रद्धालु मथुरा जनपद में प्रवेश नहीं कर पा रहे हैं श्रद्धालु इस वर्ष भगवान श्रीकृष्ण का जन्म अपने-अपने घर पर रह कर ही मनायेंगे।

श्री कृष्ण जन्माष्टमी पर्व पर ब्रज के कण-कण में अपूर्व हर्षोल्लास छा जाता है। आज भी घर आगंन को गोवर से लीपा जाता है चौक पूरे जाते हैं द्वार पर बंदरवार बांधी जाती है, मंगल सूचक थापे लगाये जाते हैं और फूलों से पालने को सजाकर ब्रजकी बालाएं गाती हैं।

‘‘डोरी फूलन को पालनों, आजु नन्द लाला भए’’।

ब्रज के घर-घर में भगवान को नये वस्त्र पहना कर उनका श्रंगार करके झांकियां सजाई जाती है। महिलाएं अपने यहां रखे सालिगराम की वटिया को एक खीरे में रख कर डोरे से बांध कर श्री कृष्ण के जन्म समय मध्य रात्रि को 12 बजे उसे खीरे में से निकाल कर पंचामृत स्नान कराती हैं। इस प्रकार से भगवान श्री कृष्ण का प्रतीक रूप में जन्म की भावनाएं संजोई जाती हैं। स्त्री पुरूष बच्चे भी श्री कृष्ण के जन्म के दर्शन के उपरान्त ही अपना व्रत खोलते हैं।

मथुरा स्थित प्राचीन मंदिर भगवान केशवदेव और नगर के मध्य विराजमान ठाकुर द्वारकानाथ द्वारकाधीश मंदिर में इस दिन विशेष दर्शन होते हैं। इस अवसर पर अपार जनसमूह उमड़ पड़ता है।

ब्रज के प्रत्येक घर आंगन में शंख घन्टा घड़ियाल की ध्वनि ऐसे गंज उठती है मानों वहां किसी बालक का जन्म हुआ हो इस प्रकार ब्रज के हर घर-घर में कृष्ण जन्म लेते हैं लोग आपस में बधाईयां देते हैं भक्ति भावनाओं में विभोर होकर ब्रजवासी नांचने गाने लगते हैं ‘‘नन्द के आनन्द भए जय कन्हैया लाल की’’ गाते हुए हर तरफ टौलियां नजर आने लगती है।

भगवान श्री कृष्ण का जन्म अर्धरात्रि के समय कंस के कारागार में होने के वाद उनके पिता वसुदेव जी कंस के भय से बालक को रात्रि में ही यमुना नदी को पार कर नन्द बाबा के यहां गोकुल छोड़ आये थे। इसी लिए कृष्ण जन्म के दूसरे दिन गोकुल में नन्दोत्सव मनाया जाता है। भाद्र पद नवमी के दिन समस्त ब्रजमंड़ल में नन्दोत्सव की धूम रहती है। यह उत्सव दधिकांदों के रूप मनाया जाता है दधिकांदो का अर्थ है दही की कीच। हल्दी मिश्रत दही फेंकने की परम्परा आज भी निभाई जाती है। मंदिर के पुजारी नन्दबाबा और जशोदा के वेष में भगवान कृष्ण के पालने को झुलाते हैं। मिठाई, फल व मेवा मिश्री लुटायी जाती है। श्रद्धालु इस प्रसाद को पाकर अपने आपको धन्य मानते हैं।

श्रीरंगजी मंदिर

श्री वृंदावन का यह भव्य विशाल मंदिर के सामने वाली मुख्य सड़क पर बना हुआ है। दक्षिण भारतीय शैली का अद्भुत मंदिर है। इस मंदिर का निर्माण सेठ श्री राधाकृष्ण, उनके बड़े भाई सेठ लक्ष्मीचंद तथा छोटे भाई सेठ गोविंद दास जी ने कराया। श्रीरामानुज सम्प्रदाय का अति विशाल मंदिर स्थापत्थ कला की दृष्टि से भारत में एक अलग स्थान रखता है। यह मंदिर आकार में बहुत बड़े भूभाग को संजोये हुए है। इसमें पांच परिक्रमाएं हैं। जो ऊँचे-ऊँचे पत्थरों के परकोटों से विभक्त है। भीतरी परिक्रमा में श्री हनुमान जी, श्री गोपाल जी, श्रीनृसिंह जी के श्री विग्रह हैं। यहां एक पुष्करणी भी है जहां वर्ष में एक बार भाद्र पद मास में गजग्राह लीला का प्रदर्शन होता है। चौथे व प्रधानद्वार बैकुण्ठद्वार और नैवेद्य द्वार से तीन विशाल द्वार बने हुए है। इसी में 60 फुट ऊँचा स्वर्णमय विशाल गरूड़ स्तम्भ (सोने का खम्भा जिसे सोने के खम्भे का मंदिर भी कहा जाता है।) चैत्र मास में विशाल रथ यात्रा भी निकाली जाती है।

नन्दोत्सव के दौरान सुप्रसिद्ध लठ्ठे के मेले का आयोजन किया जाता है

वृंदावन के इस उत्तर भारत के विशाल श्री रंगनाथ मंदिर में ब्रज नायक भगवान श्री कृष्ण के जन्मोत्सव के दूसरे दिन नन्दोत्सव की धूम रहती है। नन्दोत्सव के दौरान सुप्रसिद्ध लठ्ठे के मेले का आयोजन किया जाता है। धर्मनगरी वृंदावन में श्री कृष्ण जन्माष्टमी जगह-जगह मनाई जाती है किन्तु उत्तर भारत के सबसे विशाल मंदिर में नन्दोत्सव की निराली छटा देखने को मिलती है। दक्षिण भारतीय शैली के प्रसिद्ध श्री रंगनाथ मंदिर में नन्दोत्सव के दिन श्रद्धालु लठ्ठे के मेले की एक झलक पाने को टकटकी लगाकर खड़े होकर देखते रहते हैं। जब भगवान रंगनाथ रथ पर विराजमान होकर मंदिर के पश्चिमी द्वार पर आते हैं तो लठ्ठे पर चढ़ने वाले पहलवान भगवान रंगनाथ को दण्डवत कर विजयश्री का आर्शीवाद लेकर लठ्ठे पर चढ़ना प्रारम्भ करते हैं। 35 फुट ऊंचे लठ्ठे पर जब पहलवान चढ़ना शुरू करते हैं उसी समय मचान के ऊपर से कई मन तेल और पानी की धार अन्य ग्वाल-वालों द्वारा लठ्ठे के सहारे गिराई जाती है। जिससे पहलवान फिसलकर नीचे जमीन पर आ गिरते हैं। जिसे देखकर श्रद्धालुओं में रोमांच की अनुभूति होती है। पुनः भगवान का आर्शीवाद लेकर ग्वाल-वाल पहलवान एक दूसरे को सहारा देकर लठ्ठे पर चढ़ने का प्रयास करते है। तो तेज पानी की धार और तेल की धार के बीच पूरे जतन के साथ ऊपर की ओर चढ़ने लगते हैं। कई घंटे की मशक्कत के बाद आखिर ग्वाल-वालों को भगवान के आर्शीवाद से लठ्ठे पर चढ़कर जीत हासिल करने का मौका मिलता है। इस रोमांचक मेले को देखकर देश-विदेश के श्रद्धालु अभिभूत हो जाते हैं। ग्वाल-वाल खम्भे पर चढ़कर नारियल, लोटा, अमरूद, केला, फल मेवा व पैसे लूटने लगते हैं। मगर इस वर्ष कोरोना संकट के चलते जिला प्रशासन ने इस प्रकार के आयोजनों की अनुमति नहीं दी है।

श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के दिन बाँके बिहारी के मंदिर में कोई विशेष आयोजन नहीं होते

इसी प्रकार वृंदावन में ही क्या जगह-जगह भगवान श्रीकृष्ण जन्माष्टमी पर्व पर नन्दोत्सव मनाया जाता है। ब्रहमकुण्ड स्थित हनुमान गढ़ी में नन्दोत्सव के दौरान मटकी फोड़ लीला का आयोजन किया जाता है। 15 फुट ऊंची मटकी को ग्वाल-वाल पिरामिड बनाकर मशक्कत के साथ मटकी को फोड़ते हैं। एवं दधिकांधा उत्सव का आयोजन भी होता रहा है। इस वर्ष यह लीला भी मंदिर व स्थानीय युवाओं द्वारा ही परम्परा का निर्वहन किया जायेगा।

श्रीधाम वृंदावन आने का सौभाग्य प्राप्त होने पर भी यदि वृंदावन में बाँकेबिहारी के दर्शन न किये जाये तो तीर्थ करना अधूरा ही रह जाता है।

बाँकेबिहारी के मंदिर का निर्माण लगभग संवत् 1921 में हुआ इस मंदिर का निर्माण स्वामी हरिदास जी के वंशजों के सामुहिक प्रयासों से हुआ। आरंभ में किसी धनी मानी व्यक्ति का धन इस मंदिर में नहीं लगाया गया।

श्रीस्वामी हरिदास जी बाल्यकाल से ही संसार से विरक्त थे। वह एक मात्र श्यामाश्याम का ही गुणगान किया करते थे। यमुना के निकट निर्जन स्थान पर युगल छवि में ध्यान मग्न रहा करते थे। उन्होंने 25 वर्षों की अवस्था में विरक्तवेश ले लिया था।

आप ने जहां जिस स्थान पर निधिवन में युगल छवि का ध्यान किया था। वहीं पर श्रीविग्रह भूमि से बाहर निकाले जाने का स्वप्नादेशानुसार श्रीस्वामी जी की आज्ञा पाकर श्री विठल विपुल आदि शिष्यों ने बाँके बिहारी को भूमि से प्राप्त किया था। आज बाँके बिहारी अपनी रूप माधुरी से विश्व के तमाम लोगों को रिझाते हैं। यहां वर्ष में एक ही दिन हरियाली तीज को ठाकुर स्वर्ण हिंडोले में विराजते हैं जिसके दर्शनों को लाखों श्रद्धालु यहां आते हैं। चैत्र मास की एकादशी से श्रावण मास की हरियाली अमावस्या तक प्रतिदिन ठाकुर जी का फूल बंगला सजाया जाता है।

श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के दिन बाँके बिहारी के मंदिर में कोई विशेष आयोजन तो नहीं होते है लेकिन यहां जन्माष्टमी का अभिषेक रात्री 2ः30 के करीब होता है। प्रातः 5 बजे से मंगला आरती के दर्शन होते हैं। यहां की एक विशेषता और है कि बाँके बिहारी जी की निकुंज सेवा होने के कारण आरती में कोई शंख घण्टा घड़ियाल नहीं बजते शान्तभाव में आरती होती है।

गोविन्द देव जी का मंदिर

श्रीगोविंद देव जी का मंदिर वृंदावन में प्रसिद्ध व प्राचीन मंदिर है। उत्तर भारतीय स्थापत्य शैली का लाल पत्थर का बना प्राचीनतम मंदिर है वर्तमान स्वरूप में जो मंदिर दिखाई देता है यह भवन औरंगजेब के अत्याचारों एवं क्रूरता का साक्षी है। इसके ऊपर के हिस्से को तोड़ दिया गया था। आकाशचुम्बी इस मंदिर का निर्माण गौड़ीय गोस्वामी श्री रूप सनातन गोस्वामी के शिष्य जयपुर नरेश श्री मानसिंह ने सवंत् 1647 में कराया था। आताताइयों के आक्रमण करने से पूर्व ही राजा मानसिंह के जयपुर स्थित महल में यहां के श्री विग्रह को स्थानांतरित कर दिया गया था। आज भी जयपुर में गोविंददेव जी राजा के महल में विराजमान है तत्पश्चात संवत 1877 में पुनः बंगाल के भक्त श्री नंदकुमार वसु ने श्री गोविंददेव के नये मंदिर का निर्माण कराया यहां श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के दिन विधिविधान से पूजा अर्चना अभिषेक का कार्यक्रम होता है।

श्रीकृष्ण बलराम मंदिर (इस्कॉन मंदिर)

इसका निर्माण श्री एसी भक्तिवेदान्त स्वामी द्वारा स्थापित श्रीकृष्ण भावनात्मक संघ के तत्वावधान में सन् 1975 में हुआ था। प्रभुपाद के अनेक विदेशी कृष्ण भक्तों की देख-रेख में सेवा पूजा आदि समस्त व्यवस्थाएं सम्पन्न होती हैं यह मन्दिर अंग्रेज मन्दिर के नाम से भी प्रसिद्ध है। तीन सुंदर कक्षों में बायी ओर निताई गौरांग महाप्रभु मध्य में श्रीकृष्ण बलराम के अति मनोहारी छवि विराजमान है तो दायीं ओर श्रीराधाश्यामसुंदर युगल किशोर सुशोभित हैं। सभी श्री विग्रह अद्भुद वस्त्र आभूषण पुष्प मालाओं तथा मणिमय अलंकारों से श्रृंगारित होकर दर्शकों के मन को आकर्षित करते है। यहांँ श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के दिन भजन कीर्तन तथा प्रसाद वितरण होता है। रात्रि में अभिषेक का कार्यक्रम होता है, लाखों तीर्थ यात्री मंदिर में आते हैं।

मथुरा में द्वारकाधीश मन्दिर

मथुरा में असकुण्डा बाजार में स्थित यह मन्दिर सांस्कृतिक वैभवकला और सौंदर्य के लिये अनुपम है। इस मन्दिर का निर्माण सन् 1814-15 में ग्वालियर राज्य के कोषाध्यक्ष सेठ गोकुल दास पारीख ने कराया था। इनकी मृत्यु के उपरांत इनकी सम्पत्ति के उत्तराधिकारी सेठ लक्ष्मीचंद ने मंदिर के निर्माण को पूर्ण कराया था। 1930 में इस मंदिर की सेवा पूजा पुष्टिमार्गीय वैष्णव आचार्य गोस्वामी गिरधर लाल जी कांकरौली को भेंट स्वरूप दे दिया था। यहाँ सेवा पूजा अर्चना पुष्टिमार्गीय वैष्णव सम्प्रदाय के अनुसार ही होती है। श्रावण मास में प्रतिवर्ष लाखों श्रद्धालु यहां सोने व चाँदी से निर्मित हिंडोले को देखने आते है। यहां जन्माष्टमी के दिन 108 सालिगराम का पंचामृत अभिषेक होता है तथा यहां अष्टभुजा द्वारकानाथ के श्रीविग्रह का भी पंचामृत अभिषेक किया जाता है।

श्रीकृष्ण जन्मस्थान

यह मथुरा का एक मात्र पवित्र धार्मिक स्थल है। कहा जाता है कि भगवान श्रीकृष्ण का जन्म इसी स्थान पर स्थित कंस के कारागार में हुआ था। वर्तमान समय में इस स्थान पर भव्य मंदिर स्थापित है जिसे देखने वर्ष भर लाखों तीर्थ यात्री श्रद्धालु पर्यटक आते हैं।

देश-विदेश से लाखों यात्री प्रतिवर्ष तो आते ही है लेकिन श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के दिन यहां जन्माष्टमी पर्व बड़े ही धूमधाम से मनाया जाता है। यहाँ के विशाल मंच पर रासलीला नाटक, कथा प्रवचन आदि उत्सव नित्य प्रति होते रहते हैं।

जन्माष्टमी के दिन रात्रि के 12 बजे भगवान श्रीकृष्ण के जन्म के समय श्रीविग्रह का पंचामृत अभिषेक होता है। इसके बाद श्रद्धालु नाचते, गाते, कीर्तन करते हुए भाव विभोर हो जाते हैं।

इस मंदिर का निर्माण महामना पं. मदन मोहन मालवीय जी की सद्प्रेरणा से जुगल किशोर विड़ला व जय दयाल डालमियो ने कराया था विशाल भागवत भवन का निर्माण भी उन्हीं के द्वारा कराया गया था।

केशवदेव में जन्माष्टमी एक दिन पूर्व मनाई गई

मथुरा में ही श्रीकृष्णजन्म स्थान के निकट ही प्राचीन केशवदेव मंदिर में एक दिन पूर्व मनाई जसती है जन्माष्टमी यहां पंचामृत अभिषेक के पश्चात आकर्षक झांकियों में सजी कृष्ण की चर्तुभुज प्रतिमा के हजारों की संख्या में दर्शनार्थी मध्य रात्री तक भगवान केशव देव के अभिषेक के दर्शन करते हैं। यहां भजन, कीर्तन, नाच गाने के बीच हजारों श्रद्धालुओं की उपस्थिति में जन्माष्टमी मनाई जाती है। जन्म के दर्शन से पूर्व भजन-कीर्तन चलते रहे। महिला-पुरुष नाचते-गाते रहे। पुराने केशवदेव की प्रतिमा को जगमोहन से बाहर लाया जाता है। रात्रि में ठीक 12 बजे गोस्वामियों द्वारा अभिषेक सम्पन्न कराया जाता है। जिसमें दही, मधु, शक्कर, दूध, यमुना जल से अभिषेक कराने के बाद भव्य दर्शन होते हैं। दर्शन के लिए मंदिर के पट खुलते ही सभी दर्शनार्थी दोनों हाथ उठाकर जय कन्हैया लाल की, कह उठते हैं। शंख, घंटा, घड़ियाल बज उठते हैं, चारों ओर रोशनी मंदिर में विद्युत सजावट से जगमगाता है।

श्रीकृष्णा जन्माष्टमी पर समूचा ब्रज जय कन्हैया लाल की के उद्घोषों से गूंज उठता है

चौतरफा जहां भण्डारों की धूम होती थी वहीं आज न श्रद्धाल हैं न अबकी वार भण्डारे लगाये गये कोराना संक्रमण के चलते जिला प्रशासन की परमीशन न मिलने के कारण कहीं भी कोई भण्डारा नहीं लगाया गया।

बाहर से श्रद्धालु न आसके तो क्या श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के पर्व पर सुबह से ही लोग बंदरवार, फूलमाला, केला के पत्ते आदि सामान खरीदते नजर आये। श्रद्धालुओं के अभाव में मंदिर भी सूने पड़े थे, श्रीकृष्ण जन्मस्थान और द्वारकाधीश मंदिर के रास्ते पर अन्य वर्षों की भांति इस वर्ष सूनी गलियां सूने बाजार नजर आये।

हर वर्ष जहां जिलाप्रशासन नगर के चारों तरफ के रास्तों को सुरक्षा के लिहाज से वाहनों को बेरीकेटिंग करके बंद करा दिया करता था। बाहर से आने वाले श्रद्धालुओं को मीलों पैदल चलकर मंदिरों तक पहुंचना पड़ता था। जगह-जगह भण्डारा पूड़ी, हलवा, खीचड़ी तथा व्रत का प्रसाद वितरण किया जाता था। वहीं इस वार जिलाप्रशासन को बाहर से आने वालों पर नजर रखनी पड़ी और कोई नगर में प्रवेश न करे इसकी व्यवस्था करने व्यस्त रहा।

कोरोना महामारी के चलते चाहें श्रद्धालु न आ पा रहे हों मगर श्रीकृष्ण जन्मस्थान पर मनोहारी विद्युत लाइटों से सजावट की गई। नगर में हर चौराहे को प्रदेश सरकार के निर्देश पर सजाया गया। मंदिरों में भी बिद्युत सजावट के साथ जन्माष्टमी की धूम दिखाई दे रही थी। श्रीकृष्ण जन्माष्टमी पर्व को लेकर आज समूचे बृजमण्डल में आपार श्रद्धा और भक्ति का वातावरण बना हुआ है। शहर के बाजार और घर-घर पर लगे वंदनवार और सजाबट देखते ही बनती है। समूचे बृज में कान्हा के जन्मोत्सव की धूम मची हुई है। मंदिर द्वारिकाधीश, श्रीकृष्णजन्मस्थान को जाने वाले सभी मार्ग सुबह से ही श्रद्धालुओं की भीड़ बाजार से खरीददारी करती देखी गई। सुदूर प्रांतों से कान्हा के जन्मोत्सव में शामिल होने आने वाले भक्तों के स्वागत सत्कार में बृजवासियों आशा पर पानी फिर गया इस वार स्थानीय लोगों को यह मौंका नहीं मिल सका। मुख्य बाजारों में स्थान-स्थान पर पूड़ी सब्जी और व्रत से जुड़े आहार के वितरण में समाजसेवी और व्यवसायिक संस्थान अग्रणी भूमिका निभाते थे मगर इस वर्ष उन्हें यह अवसर नहीं मिल सका।

मथुरा के स्कूलों में भी मनाई जाती है जन्माष्टमी

मथुरा के स्कूलों में भी जन्माष्टमी मनाई जाती है, छोटे-छोटे बच्चों को श्रीकृष्ण के आकर्षक रूप में सजाया जाता है। इस वर्ष स्कूल कॉलेजों के न खुल पाने के कारण छोटे-छोटे बच्चों को भी मायूस होना पड़ा। यहां स्कूल कॉलेजों में भी बाल-कलाकार सामूहिक रूप से जगह-जगह श्रीकृष्ण जन्म की कथाओं का वर्णन व मंचन भी करते हैं जगह-जगह लोग नाचते गाते देखे जाते थे। विभिन्न रासलीलाओं के माध्यम से श्रीकृष्ण की लीलाओं को रास के माध्यम से लोगों का मनोरंजन किया जाता रहा है, इस वर्ष महामारी के चलते श्रद्धालु और तीर्थयात्रियों के अभाव में ऐसे आयोजन भी नहीं हो सके।

Dr. Bhanu Pratap Singh