भारतीय संस्कृति की गौरवशाली परम्परा का नाम ही कुम्भ है

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Mathura (Uttar Pradesh, India)। मथुरा। हजारों वर्षों की परम्पराओं के निर्वाहन का केन्द्र है कुम्भ। कुम्भ शब्द आते ही हमारे मन में एक कलश की कल्पना भर उभर कर आती है, बास्तव में कुम्भ एक व्यापक शब्द है। कुम्भ में जनमानस से धर्म आध्यत्म को जोड़ने और कथा, भागवत, भजन, कीर्तन, हवन, यज्ञ, साधु संतों, महात्माओं से जोडे़ रखने का नाम ही एक कुम्भ है। कुंभ मेले का आयोजन प्राचीन काल से होता आ रहा है। हिंदू धर्म में कुंभ मेले और कुंभ स्नान को बेहद महत्व भी दिया जाता है। प्रत्येक बारह वर्षों के बाद लोग दूर-दूर से कुंभ मेले में स्नान करने पहुंचते हैं। ज्यादातर लोगों को यही पता होगा कि, कुंभ मेले का आयोजन 4 जगहों पर होता है हरिद्वार, प्रयाग, नासिक, और उज्जैन। हालाँकि आपको शायद यह जानकर आर्श्चय भी हागो की कुंभ मेला श्रीधाम वृंदावन में भी आयोजित होता है। इसे ‘मिनी कुंभ’ के नाम से भी जाना जाता हैं।
16 फरवरी बसंत पंचमी माघ माह के शुक्ल पक्ष से शुरू होने जा रहा कुम्भ 25 मार्च आमलकी एकादशी तक चलेगा
इस वर्ष श्रीधाम वृंदावन में कुंभ 16 फरवरी 2021 बसंत पंचमी माघ माह के शुक्ल पक्ष की पंचमी से शुरू होने जा रहा है। यह आयोजन 25 मार्च 2021 आमलकी एकादशी तक चलेगा। वृंदावन में होने वाले कुंभ पर्व को कुंभ या वैष्णव कुम्भ के नाम से जाना जाता है। जहां संत समाज व साधु समाज इसे तकरीबन 5000 साल पुराना मानते हैं।
श्रीवृन्दावन धाम अमृत कलश के स्पर्श के कारण कुम्भ स्थल बना ऐसा कहना उचित नहीं है। श्रीवृन्दावन धाम तो श्रीकृष्ण से अभिन्न यानि नित्य अमृतमय श्रीप्रभु ने ही रस-कुम्भ रूप, वृन्दावन को सम्पूर्ण आनन्द से मथ करके ही प्रकट किया है। श्रीवृन्दावन कुम्भ भागवत सम्मत एक महान भागवत पर्व है। भारतवर्ष के जिन चार स्थानों पर कुम्भ के आयोजन होते हैं वहां तो मात्र अमृत कलश से कुछ बूँदें ही छलकी थीं। किन्तु ब्रज वृन्दावन में सुधा-धारा सर्वत्र प्रवाहमान रहती है। यहाँ अमृतधारा है वेणु वादन की, श्री राधारानी के नूपुरों के धुनों की, श्रीकृष्ण की लीलाओं की, कथाओं की, यहां का जल अमृत है और श्रीराधा रानी व श्रीकृष्ण रसामृत मूर्ति हैं। इस प्रकार यहां तो प्रेमामृत की धारा अनवरत वहती ही रहती है। यहां की प्रेम रस की एक भी छींट जहां पड़ जाती है वहीं प्रेम का उद्गार हो जाता है।
‘‘छलकत छींट जहां पड़ी तहां प्रेम उद्ंगार’’

निकुंज वृन्दावन में तो नित्य महाकुम्भ पर्व बना रहता है। इस लिये वृन्दावन के कुम्भ का विशेष महात्म्य है। वास्तव में कुम्भ पर्व स्नान-दान धर्म में आस्था का पर्व है। इस अवसर पर स्नान का विशेष महत्व होता है।
‘‘सहस्र कार्तिके स्नानं माघे स्नान शतानि च।
वैशाखे नर्मदा कोटिं कुम्भ स्नानेन तत्फलम्।।
‘‘अश्वमेध सहस्त्राणि वाजपेय शतानि च।
लक्षप्रद्क्षिणा भूमेः कुम्भ स्नानेन तत्फलम्’’।।

कुम्भ स्नान दान धर्म का महापर्व है जो सांसारिक बन्धन से मुक्ति दिला कर सद्गति प्रदान करता है
अतः वृन्दावन में कुम्भ-पर्व के अवसर पर विभिन्न मठ, मन्दिर, अखाडे़ तथा सभी सम्प्रदाय के प्रतिनिधिगण महामिलन स्थल श्रीयमुना तीर पर एकत्रित होकर विभिन्न धार्मिक अनुष्ठान करते हैं। देश-विदेश से लाखों की संख्या में भक्तजन कुम्भ स्नान के पुण्य फल की प्राप्ति हेतु आते हैं। अनेक भक्तजन कल्पवास भी करते हैं तथा दान, पुण्य, कर अपने जीवन को धन्य मानते हैं। वास्तव में कुम्भ स्नान दान धर्म का महापर्व है जो हमें सांसारिक बन्धन से मुक्ति दिला कर सद्गति प्रदान करता है। कुम्भ स्थल पर पवित्र हवन, यज्ञ, धर्म ग्रन्थों का पाठ, कथा, भागवत, अनुष्ठान, मंत्रोच्चारण से भक्तों में एक अभिनव धार्मिक एवं आध्यात्मिक सनातन धर्म हिन्दू जन मानस को जागृति उत्पन्न करने का व हिन्दू धर्मावलम्बियों को एक स्थान पर एकत्र करने का साधन मात्र है तथा अनेकता में एकता के प्रत्यक्ष दर्शन का उपयुक्त स्थान होता है।
‘‘धन्यो वृन्दावने कुम्भो, धन्यं वृन्दावनं महत्।
धन्याः कुम्भपरा जीवा, धन्य श्रीकृष्ण कीर्तनम्’’।।

श्रीवृन्दावन कुम्भ का रहस्य
विश्व का सबसे बड़ा मेला या समागम होता है कुम्भ। यह प्रति बारह वर्ष के बाद आता है। इस वर्ष 16 फरवरी से 25 मार्च तक यह कुम्भ पर्व हरिद्वार में होने वाले कुम्भ से एक माह पूर्व में श्रीधाम वृन्दावन में आयोजित होगा। श्रीधाम वृन्दावन में कदम्ब वृक्ष पर अमृत कलश रख कर गरुड़ ने विश्राम किया था। जहां भगवान श्रीकृष्ण की जन्मभूमि, लीला भूमि हो वहां अमृत बिन्दु की आवश्यकता ही नहीं है, क्योंकि अमृतबिन्दु गिराने वाले का मुख्य स्रोत तो यहीं पर है। यहां तो अमृत कुंड है। कुम्भ एक ऐसे सन्त-समागम का नाम है, जहाँ विभिन्न सम्प्रदाय, मत-मतान्तर के सामान्य तथा विशेष सन्त एकत्र होते हैं। कथा-सत्संग का प्रसाद, भजन कीर्तन आदि का जन साधारण में धर्म-भक्ति, ज्ञान, सदाचार आदि का प्रचार प्रसार होता है। कुम्भ का कारण अमृत बिंदु और अमृत बिन्दु का कारण समुद्र-मंथन, समुद्र मंथन का कारण देव व देवासुरों के बीच छीना झपटी के मध्य श्रीविष्णु या स्वयं भगवान श्रीकृष्ण जो उस समय मोहिनी रूप में प्रकट हुए थे और इस अमृत का वितरण कर रहे थे।
श्रीवृन्दावन धाम की महिमा और स्वयं भगवान् के लीला धाम को प्रणाम करने सन्त कुम्भ-स्थल आते हैं
ऐसे श्रीकृष्ण का नित्य धाम श्रीवृन्दावन जहाँ श्रीकृष्ण जन्मे, खेले, लीलाएँ की और ब्रज में, विशेष तो श्रीराधा-श्याम कुण्ड में सभी तीर्थों को बुलाया और यहाँ स्थित रहने का आदेश दिया। ऐसे श्रीवृन्दावन धाम की महिमा और स्वयं भगवान् के लीला धाम को प्रणाम करने के पश्चात ही उनके भक्ति धर्म को प्रचार करने के लिए सन्त कुम्भ-स्थल आते हैं। लेकिन यह रहस्य की बात है, यह साधना का उच्चतम उच्च स्तर है। यह भक्ति की पराकाष्ठा का धाम है-जहाँ जन साधारण की तो बात ही क्या सामान्य भक्त का भी प्रवेश नहीं है। अतः यहाँ कुछ विशिष्ट होता है और यहाँ कुछ विशिष्ट भक्त-सन्त ही आते हैं और अपने प्रिय को रिझाकर कुम्भ में जाते हैं। इसलिए यहां के कुम्भ का आकर कुछ कम होता है। यहाँ गुणवत्ता होती है यहाँ मात्रा कम अवश्य होती है। किन्तु यहां के कुम्भ का महत्व कम नहीं आंका जा सकता है। अपितु यह नियम ही है कि श्रेष्ठता का आकार सदैव कम ही होता है। पूर्व में श्रीवृन्दावन कुम्भ चार सम्प्रदाय तक ही सीमित होना बताया जाता है। मगर आज ऐसी बात नहीं है। आज प्रत्येक मठ, मंदिर, महन्त कोई भी यहां तक कि व्यावसायिक प्रतिष्ठानों को भी स्थान आवन्टित किये जाते हैं।
श्रृंगारवट को सप्तदेवालयों की गुरूगद्दी मानकर विशेष महत्व दिया जाता था
वृन्दावन कुम्भ विषय में ठीक यही बात लागू होती है जो कभी सप्तदेवालयों के बीच में सीमित रही है श्री गोविन्द देव, श्री गोपीनाथ, श्री मदन मोहन, श्री राधारमण, श्री श्यामसुन्दर, श्री राधादामोदर श्री गोकुलानंद। इन सप्त देवलियों में श्रृंगारवट का कहीं नाम नहीं है। जबकि इस स्थान को संकर्षण के अवतार श्रीनित्यानन्द प्रभु का स्थान होने से श्रेष्ठ कहा गया है। एक समय था जब श्रृंगारवट को सप्तदेवालयों की गुरूगद्दी मानकर विशेष महत्व दिया जाता था। उस समय में जब किसी भी धार्मिक आयोजन में यदि श्रृंगारयट के एक सामान्य से भी गोस्वामी स्वरूप उपस्थित रहते थे तो उस सभा की अध्यक्षता (योग्यता न होने पर भी) वही किया करते थे। समय के प्रभाव से यह सब समाप्त हो गया।
ऐसा दिव्य धाम कहाँ, जहाँ स्वयं भगवान् ब्रजनन्दन श्रीकृष्ण का प्राकट्य स्थान हो
ठीक उसी प्रकार जब कुम्भ का नाम आता है तो चार स्थानों में श्रीवृन्दावन धाम का नाम नहीं आने का कारण श्रीवृन्दावन की श्रेष्ठता ही इसका मुख्य कारण है। भला ऐसा दिव्य धाम, जहाँ स्वयं भगवान् ब्रजनन्दन श्रीकृष्ण का प्राकट्य स्थान हो, जहाँ भगवान की लीलाएँ हुई हां उस धाम को हरिद्वार, उज्जैन, नासिक, प्रयाग के समकक्ष कैसे रखा जा सकता है। इन चारों स्थानों का किसी भी रूप में स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण की लीलाओं से सीधा संपर्क नहीं है। इस लिये इन चारों स्थानों पर कुम्भ के प्रारंभ होने से पूर्व सन्तजन एकत्र होकर प्रभु के लीलाधाम को प्रणाम कर अपने-अपने गन्तव्य स्थानों की ओर बढते हैं।
कुम्भ की स्थापना कैसे हुई
कुम्भ पर्व का सीधा सम्बन्ध-अमृत कलश से है। इसकी परम्परा बहुत प्राचीन है। यह पर्व भारतीय संस्कृति की गौरवशाली परम्परा का प्रतिनिधित्व करता है। इसमें वैदिकरण की झांकी भी मिलती है। अजर-अमर होने के लिए ’अमृत’ प्राप्ति हेतु देव और दानवों के मिले जुले प्रयत्न से समुद्र का मंथन किया गया था। फलस्वरूप क्षीर सागर से विष, वरुणी आदि तेरह रत्नों की प्राप्ति के बाद श्री धन्वन्तरि अमृत से भरे हुए कुम्भ को लेकर प्रकट हुए। इसी कुम्भ को प्राप्त करने के लिए देव और दानवों में छीना-झपटी होने लगी। देवताओं के इशारे पर इन्द्र पुत्र जयंत उस कलश को लेकर भागे। दैत्य गुरु शुक्राचार्य के आदेश पर उस कुम्भ को छीनने के लिए दैत्य जयंत के पीछे-पीछे भागे। यह देखकर अमृत कलश की रक्षा के लिए देवगण भी भाग पड़े। चन्द्रमा ने उस कलश को छलकने लुढ़कने से बचाया, सूर्य ने टूटने से तथा गुरु बृहस्पति ने कुम्भ को असुरों के हाथ में जाने से बचाया।
जिस समय गुरू, चन्द्र व सूर्य एक विशिष्ट राशि पर अवस्थित होते हैं तभी कुम्भ का आयोजन होता है
ये भागा-भागी बारह दिन (मनुष्य के बारह बरस) तक होती रही। इस बीच जयंत ने अमृत कलश को बारह स्थानों पर रखा जिसमें आठ स्थान स्वर्ग में और चार भारतवर्ष में हैं। जिन स्थानों पर अमृत कलश रखा गया उन स्थानों पर अमृत कलश से कुछ अमृत बिंदु छलक गये थे। माना जाता है कि चन्द्र, सूर्य और गुरु बृहस्पति ने अमृत कुम्भ की रक्षा की थी अतः कुम्भ का आयोजन बृहस्पति, सूर्य व चन्द्र के ज्योतिषीय (ग्रह राशि) योग के अनुसार होता है अर्थात जिस समय गुरू, चन्द्र व सूर्य एक विशिष्ट राशि पर अवस्थित होते हैं तभी कुम्भ से अमृत छलकने वाले चार स्थानों (हरिद्वार, प्रयागराज, नासिक व उज्जैन) में कुम्भ पर्व का आयोजन प्रति बारह वर्ष बाद होता है।
वृन्दावन का कुम्भ पर्व पुराण द्वारा प्रतिष्ठित है, यहाँ भी प्रति बारहवें वर्ष में कुम्भ पर्व का आयोजन होता है
श्रीधाम वृन्दावन में भी अमृत कलश स्थापना के बहुत से संदर्भ प्राप्त होते हैं। श्रीमद्भागवत के दशम स्कन्ध में कालियादमन लीला में इसका प्रमाण मिलता है। महाभारत में भी गरुड़ द्वारा अमृत कलश यहाँ लाने की कथा का वर्णन है। अतः वृन्दावन का कुम्भ पर्व पुराण द्वारा प्रतिष्ठित है। यहाँ भी प्रति बारहवें वर्ष में कुम्भ पर्व का आयोजन होता है। यों कहा जाय तो गलत नहीं होगा कि चारों कुम्भों से पूर्व श्रीधाम वृन्दावन में कुम्भ होता है जिसमें सन्त यहां आकर भगवान श्रीकृष्ण की जन्म स्थली को नमन करके यहां से ही हरिद्वार कुम्भ को प्रस्थान करते हैं।
कद्रु ने कहा कि अगर तुम स्वर्ग से अमृत लाकर हमें दोगे तो हम तुम्हें दासता से मुक्त कर देंगे
यह कुम्भ हरिद्वार में होने वाले कुम्भ से एक माह पहले माघ शुक्ल बसन्त पंचमी से फाल्गुन शुक्ल एकादशी तक होता है। समुद्र मंथन के बाद कश्यप पत्नि सर्पों की माँ कद्रु एवं गरुड़ की माँ विनिता ने शर्त लगाई कि सूर्य के रथ के घोड़े की पूछ काली है या सफेद ? कद्रु ने कहा काली है और विनिता ने कहा सफेद, शर्त के अनुसार जो भी हारेगी वो दूसरे की दासी बनकर सेवा करेगी। कद्रु ने छल किया, उसने अपने सर्प पुत्र को घोड़े की पूंछ से लिपट जाने को कहा, ऐसा ही हुआ। विनिता शर्त हार गई और कद्रु की दासी बनना पड़ा। विनिता के पुत्र गरुड़ को भी दास का कार्य करना पड़ा। उन्होंने एक दिन कद्रु से दासता से मुक्ति का उपाय पूछा। कद्रु ने कहा कि अगर तुम स्वर्ग से अमृत लाकर हमें दोगे तो हम तुम्हें दासता से मुक्त कर देंगे। गरुड़ अमृत लेने स्वर्ग चले गये। इन्द्र ने उनका प्रतिरोध किया किन्तु गरुड़ ने देवसेना को परास्त कर दिया और कलश को लेकर लौटने समय श्रीविष्णु ने उनको बिना अमृत पिये ही अजर-अमर होने का तथा अपने वाहन बनने का वरदान दे दिया।
गरुड़ ने अमृत कलश को सर्पों को सौपते हुए उसे कुश पर रख दिया
पराजित इन्द्र ने गरुड़ से माफी मांगी और उनसे मित्रता करनी चाही, गरूड़ ने उन्हें बताया कि वे अमृत पिलाकर सर्पों को अमर नहीं बनाना चाहते हैं, वह तो केवल अपनी माँ को दासता से मुक्ति दिलाना चाहते हैं। इसलिए जब मैं अमृत कलश को वहाँ रखूँ, आप छिपकर उसे उठाकर ले जाना। इस प्रकार मेरे माँ की मुक्ति भी हो जायेगी और आपकी कार्य सिद्धी भी होगी। गरुड़ ने अमृत कलश को सर्पों को सौपते हुए उसे कुश पर रख दिया। अमृत पान करने से पहले स्नान करने के लिए सर्प जैसे ही दूर गये इन्द्र ने अमृत कलश पुनः हरण कर लिया। कुश को चाटने के कारण सर्पों की जिह्वा दो जिह्वा में बंट गई।
पुलिस महकमे ने आने वाले लाखों श्रद्धालुओं की सुरक्षा को लेकर तैयारियां शुरू कर दी है
इस वर्ष यमुनातट पर आयोजित कुंभमेला श्रीधाम वृन्दावन में अति उच्य स्तर पर मनाया जायेगा। व्यवस्थाएँ भी पहले वर्षों की अपेक्षा सामान्य से अधिक अच्छी हो रही हैं। आने वाले लाखों श्रद्धालुओं की सुरक्षा को लेकर पुलिस महकमे ने तैयारियां शुरू कर दी है। पुलिस महानिरीक्षक ए. सतीश गणेश ने स्थलीय निरीक्षण कर अधीनस्थों को आवश्यक दिशा निर्देश दिये। 16 फरवरी से 28 मार्च तक धार्मिक नगरी के यमुनातट पर कुंभमेला बैठक का आयोजन किया गया। जिसमें देशभर से हजारों सन्तों के साथ बड़ी संख्या में श्रद्धालुओं के पहुँचने का अनुमान लगाया जा रहा है जिसके मद्देनजर प्रशासनिक तैयारियां जोरों पर है। सन्तसमाज व श्रद्धालुओं की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिये पुलिस महकमे में भी व्यवस्थाओं का खाका तैयार किया जा रहा है। कागजी तौर पर मंथन के बाद अब तैयारियों को जमीनी स्तर पर उतारने की कवायद शुरू हो गयी है। पुलिस महानिरीक्षक ए. सतीश गणेश ने प्रस्तावित मेला स्थल पहुंच कर जायजा लिया। मेला स्थल के प्रवेश स्थान से लेकर कुंभ बैठक में होने वाले शाही स्नान के पॉइंट्स पर अधीनस्थों से चर्चा की। खासतौर पर ट्रैफिक व्यवस्था व शोभायात्रा के बिन्दुओं पर विस्तृत जानकारी मांगी। मेलास्थल पर दमकल गाड़ियों, स्टीमर, घुड़सवार सुरक्षाकर्मियों के अलावा अस्थाई सुरक्षा चौकी को लेकर भी बिंदुवार जानकारी ली गयी। श्री गणेश ने बताया कि प्रदेश सरकार बेहतर सुरक्षा, सुगमता व स्वच्छता को दृष्टिगत रखते हुए योजनाओं को तैयार कर रही है। ताकि कुम्भ के भव्य आयोजन को सफलता पूर्वक संपन्न कराया जा सके। उनके अनुसार आगन्तुक सन्तो व श्रद्धालुओं की सुरक्षा को लेकर कोई समझौता नही किया जायेगा। हर बारीकी पर प्रशासन की गहरी नजर है। अभी तक कागजी तैयारियां की गई है। उनमें जरूरी संशोधन कर जल्द ही जमीनी स्तर पर अंतिम रूप दिया जायेगा। -सुनील शर्मा मथुरा से

Dr. Bhanu Pratap Singh