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सिर्फ किसानों के गीत गाने वाले जरूर पढ़ लें ये आलेख

NATIONAL PRESS RELEASE REGIONAL लेख

इस देश के नेताओं के साथ जनता पर कुछ सोचने पर मजबूर होगा। क्योंकि सबसे पहला और गूढ़ प्रश्न तो यही है कि देश में होने वाले आंदोलनों की प्रांसगिकता कितनी है। और दूसरा प्रश्न यह भी महत्वपूर्ण है कि समय-समय पर देश में होने वाले आंदोलन देश को क्या दिशा दे रहे हैं अथवा यह आंदोलन दिशाहीन होते हुए केवल राजनीतिक स्वार्थ को पूरा करने का साधन बनते जा रहे हैं! यह भी विचार करना होगा कि देश में विभिन्न मुद्दों पर होने वाले आंदोलनों से देश को कितनी आर्थिक हानि होने के साथ-साथ उद्योगों को हानि हो रही है?

वर्तमान में चले रहे किसान आंदोलन की बात करें तो किसान आंदोलन का मूल उद्देश्य क्या है? कितना सही और गलत है! हां, जो आंदोलन करने में सलंग्न है वह तो आंदोलन को सही ही कहेंगे लेकिन यह विचार अवश्य ही करना होगा कि आंदोलन का नेतृत्व करने वाले नेताओं की राष्ट्रहित में सोच क्या है। कि वह आंदोलन के माध्यम से सरकार को अपने निजी स्वार्थ में दबाने का प्रयास कितना राष्ट्रहित सही है अथवा क्या देश के प्रति उनकी जिम्मेदारी नहीं है? गहनता से विचार किया जाना चाहिए कि किसी मुद्दे अथवा विधेयक पर वह एकमत नहीं है तो उनके पास केवल आंदोलन का रास्ता बचा है? हमारे देश की न्यायपालिका के दरवाजे दिन में तो क्या, रात में भी खुले रहते हैं, बस जरूरत दरवाजा खटखटाने की, एक नहीं बल्कि अनेक उदाहरण हैं।

Mathura Kisan agitation
Mathura Kisan agitation

समाचार पत्रों में पढ़ने का मिलता है कि 50 दिन से देश के अन्नदाता सड़कों पर पड़े हैं। क्या इन अन्नदाताओं की राष्ट्र के प्रति कोई जिम्मेदारी नहीं है? साथ ही प्रश्न इस आलेख को पढ़ने वालों की भी नहीं है कि वह मनन करें कि राष्ट्रहित में क्या उचित है और क्या अनुचित? हमको-आपको सोचना ही होगा कि समय-समय पर होने वाले आंदोलनों से देश पर कितना आर्थिक बोझ के साथ औद्योगिक विकास में रुकावटें पैदा हो रही है। समाचार पत्रों में सुर्खियों में छापा जा रहा है कि देश का अन्नदाता 50 दिनों से कड़कड़ाती ठंड में सड़कों पर जमा हुआ है लेकिन समाचार पत्र यह नहीं बता रहे कि इस सड़क पर पड़े अन्नदाताओं के कारण देश के औद्योगिक जगत को कितना आर्थिक नुकसान का सामना किया? क्योंकि आंदोलन का नेतृत्व करने वाले अच्छी समझते हैं कि समय-समय पर होने वाले आंदोलनों से देश को कितना आर्थिक नुकसान होता है, तो उनका कहीं यही उद्देश्य तो नहीं है कि कैसे देश को जितना हो सके आर्थिक नुकसान पहुंचाओ, जिससे देश की आर्थिक स्थिति चरमरा जाए!!

हमको यही समझ में आने लगा है कि किसी भी सामाजिक, किसान संगठनों अथवा राजनीतिक दलों को इस बात की चिंता कभी नजर नहीं आती कि देश का उद्योगों पर कितना प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा लेकिन यह सुनने और पढ़ने का मिलता है कि किसानों को, दलितों और अल्पसंख्यकों को कितना सब्सिडी कितनी मिलेगी, कितना लोन माफ किया जाएगा, कितनी बिजली फ्री में दी जा रही है। कभी यह कहते नहीं सुना जाता कि देश के विकास के सर्वप्रथम उद्योगों को मतबूत करना चाहिए ताकि देश को राजस्व निर्बाध रूप से मिलता रहे। शायद तो नहीं लेकिन प्रत्येक राजनीतिक दल इस बात को अच्छी तरह समझते है कि देश के उद्योगपति की ही उनके राजनीतिक स्वार्थ पूर्ति करने के लिए भरपूर चंदा देते हैं लेकिन फिर भी गाली उद्योगों को ही देने की नीति राजनीति खेल बन चुका है।

इस बारे में कुछ राज्यों और शहर/जनपदों को उदाहरण रखना चाहता हूँ कि पश्चित बंगाल में वामपंथी शासन के दौरान बंगाल की विपक्ष में रहते हुए कांग्रेस (तब ममता बनर्जी कांगेस में थीं) उद्योगों का भरपूर विरोध किया, परिणाम सामने आया कि पश्चित बंगाल से उद्योगों का पलायन हो गया। इसी प्रकार बिहार में लालू प्रसाद यादव के समय उद्योगों पर कहर ढाया गया। आज बिहार में बड़े उद्योगों का नामो-निशान नहीं बचा है। पूर्व बिहार, जिसमें वर्तमान का झारखंड शामिल था, प्राकृतिक खदान (कोयला की खदानें) प्रचुर मात्रा में थी, लेकिन उस प्राकृतिक उपहार का पूरा तो क्या थोड़ा बहुत उपयोग देशहित में नहीं किया गया। इस प्रकार आपको याद होगा कि एन.सी.आर. के क्षेत्र नोएडा की स्थापना होनी थी तो नोएडा के लिए वर्तमान का जनपद ‘बागपत’ को इस औद्योगिक क्षेत्र के लिए चयनित किया गया लेकिन तत्कालीन किसान नेता ने भरपूर विरोध किया और नोएडा बागपत में नहीं बनने दिया, नतीजा क्या है आज सभी देख रहे कि नोएडा क्षेत्र भरपूर विकास से लहलहा रहा है और बागपत आज भी विकास की बाट जोह रहा है।

इन सभी परिस्थिति के लिए जिम्मेदार कौन है? इन सभी बिन्दुओं, परिस्थितियों पर विचार करना बहुत आवश्यक होता जा रहा है। लेकिन मैं तो विचार अवश्य ही कर रहा हूं, इस विश्वास के साथ मेरे विचार पढ़ने के बाद आप भी सोचने लगे कि बदलाव तो आना ही चाहिए और इस बदलाव में हमको किस बदलाव में शामिल होना है, विकास में अथवा आंदोलन में!! देश में आंदोलनों के पीछे यदि हम जाएं तो हमारा देश प्रारम्भ से नीति और नियम में अंतर रहा है। राजनीतिक और विभिन्न संगठनों की नीति और नियत में कहीं भी देशहित को प्राथमिकता प्रदान नहीं दी गई और न कोई राष्ट्रीय नीति बनी। एक दिशाहीन के साथ एकसूत्री सोच पनपी कि कैसे भी हो, राजनीतिक शक्ति प्राप्त कर लो, कभी भी  देशहित अथवा राष्ट्रहित को आधार नहीं बनाया गया। एक कारण यह भी सबसे बड़ा समझ में आता है कि राजनीतिक दलों ने जो गैर-जिम्मेदारीपूर्ण और दिशाहीन राजनीति दृष्टि देखने में आता है। एक ही उद्देश्य नजर आता है कि कैसे भी राजनीतिक लक्ष्य प्राप्त करना है। समाज के प्रति, राष्ट्रवाद के प्रति कोई नीति परीलक्षित नहीं दिखती।

हम सभी प्रोफेशनल्स के साथ करदाता भी है। अपने प्रोफेशनल से अर्जित आय पर आयकर का भुगतान करते हैं, प्राप्त होने वाली फीस पर जी.एस.टी. वसूल कर सरकारी कोष में जमा करते हैं। अतः हम सभी को यह अधिकार है कि हम सरकार से, इन आंदोलनकारियों से प्रश्न करें कि आपको क्या अधिकार है कि आप देश का औद्योगिक विकास रोकने का? यदि सहमत हैं मुझे अवश्य ही लिखें, मैं स्वागत करूंगा।

-पराग सिंहल, आगरा