sarvan singh baghel

भारत और सांस्कृतिक विरासत, पढ़िए डॉ. सरवन सिंह बघेल का विचारोत्तेजक आलेख

INTERNATIONAL NATIONAL PRESS RELEASE लेख

दुनिया की सभ्यताओं में भारत की सभ्यता का एक विशेष स्थान रहा है। यह धार्मिक, सामाजिक, भाषायी और जातीय रूप से इतनी विविधता लिए हुए है कि दुनिया की अनेक संस्कृतियां इसकी ओर आकर्षित होती रही हैं। भारत की गहन विरासत और संस्कृति की रक्षा के लिए भारत सरकार की ओर से अच्छे प्रयत्न किए जा रहें है, परन्तु उसमें कुछ कमी महसूस होती है। भारत विविधाताओं से भरा हुआ देश है| बोली भाषायों से लेकर खानपान और परिधान सब भिन्न है| परन्तु हम सभी को हमारी संस्कृति जोड़े रखती है| अनेकता में एकता ही हमारा भाव है| सांस्कृतिक विरासत को संजोकर रखने की जिम्मेदारी सिर्फ सरकार की नहीं आम नागरिकों की भी है| परन्तु बिना सरकार की भूमिका के कार्य करना इस क्षेत्र में कठिन है क्योकि सरकार ही निर्णायक भूमिका में कार्य करती है|  

पिछले लम्बे समय के अलग-अलग दलों की सरकारों के इतिहास में देखने में मालूम पड़ता है कि इस महत्वपूर्ण और सांस्कृतिक विरासत वाले मंत्रालय की जिम्मेदारी पूर्ण रूप से किसी को भी नहीं दी गयी है| हाल ही में हुए भारत सरकार के मंत्रिपरिषद् के विस्तार को देखें, तो पता चलता है कि इस बार भी संस्कृति मंत्रालय के लिए पूरा समय देने वाला कोई मंत्री नहीं है। इतना ही नहीं, संस्कृति मंत्रालय को पर्याप्त निधि नहीं मिलती है। जो मिलती है, उसका पूरा उपयोग नहीं किया जाता। यह मंत्रालय ऐसे नौकरशाहों से भरा पड़ा है, जिनका संस्कृति से कोई लेना-देना नहीं होता। विदेशों में स्थापित इंडियन काउंसिल ऑफ कल्चरल रिलेशन्स भारत की विरासत को पहचान दिलाने के लिए निरंतर उत्कृष्ट कार्य कर रहा है। भारत से हर साल सैकड़ों लोग इंडियन काउंसिल ऑफ कल्चरल रिलेशन्स के बैनर पर दुनिया के अलग अलग देशों में भारतीय सभ्यता, ज्ञान और संस्कृति का प्रचार-प्रसार करने जाते हैं| देश की अनेक प्रमुख अकादमियों इस विषय पर कार्य कर रही हैं मगर अभी भी बहुत काम करने की आवश्यकता है

पिछले साल दिसंबर में नई दिल्ली में आयोजित हुए इंटरनेशनल कांउसिल ऑन मोन्यूमेन्टस एण्ड साइट्स के अधिवेशन में इस विषय पर कई महत्वपूर्ण बातें संज्ञान में आई जो देश को समझनी चाहिए। इंटरनेशनल कांउसिल ऑन मोन्यूमेन्टस एण्ड साइट्स 1965 से विश्व धरोहरों के लिए यूनेस्को के साथ मिलकर काम कर रही है। इस अधिवेशन के जरिए से भारतीय समाज को अपनी खूबसूरत ऐतिहासिक इमारतों एवं परिदृश्यों की साज-संभाल करने वालों को जानने में मदद मिली। साथ ही यह भी समझने में मदद मिली कि हमारे देश के अनेकवाद का पूरे विश्व में कितना विशिष्ट स्थान है।

इस गोष्ठी में कई महत्वपूर्ण बातों पर चर्चा हुई जो भारतीय संस्कृति और विरासत को समझने और सहजने के लिए आवश्यक है| हमारी भारतीय सभ्यता “विरासत एवं प्रजातंत्र” पर आधारित है|   

भिन्न- भिन्न समुदायों को विरासत प्रबंधन के काम में कैसे लगाया जा सकता है ?

सांस्कृतिक विरासत के माध्यम से शांति एवं सद्भाव को कैसे बढ़ाया जा सकता है ?

सांस्कृतिक विरासत को संजोने में डिजिटल मीडिया का उपयोग कैसे किया जा सकता है?

प्राकृतिक परिदृश्यों के साथ लोगों का कैसा संबंध है ?

हमारी सरकारों की उपेक्षा के कारण हमारी ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक धरोहरों का क्रमशः क्षय होता जा रहा है। केवल कुछ ही अधिकारी हैं, जो इस प्रकार के कामों में रुचि रखकर अपना समय देना चाहते हैं। संस्कृति मंत्रालय एवं शहरी विकास मंत्रालय भारतीय पुरातत्व विभाग को नियंत्रित करते हैं, एवं धरोहरों की देखरेख करते हैं। उनका यह प्रयास पर्याप्त नहीं है।

शांति एवं सद्भाव के लिए राजनैतिक एवं कूटनीतिक स्तर पर अनेक चर्चाएं होती रहती हैं। अब सांस्कृतिक संबंधों को भी इसका हिस्सा बनाया जाना चाहिए। 2011 में जाफना में टी.एम.कृष्णा के गायन ने भारत-श्रीलंका संबंधों को नया आधार प्रदान कर दिया था।

अगर स्मारकों एवं अन्य विरासतों के लिए हम डिजिटल मीडिया की बात करें, तो देखते हैं कि अक्सर अनुवाद सुविधाओं के वायदे किए जाते हैं, लेकिन इनकी उपलब्धता इतनी आसान नहीं है। इस कार्य में विशेषज्ञता के साथ-साथ सृजनात्मकता की आवश्यकता है, जिसे समझदारी एवं ईमानदारी से व्यवहार में लाया गया हो। अतः इस कार्य में पुरातत्वविदों के साथ-साथ लेखकों एवं कलाकारों को भी जोड़ना होगा।

भारत में तेजी से होते शहरीकरण ने हमारी प्राकृतिक धरोहरों का बहुत नाश किया है। लोगों एवं सरकार के मन में प्राकृतिक परिदृश्यों, पारस्थितिकी तंत्र एवं सांस्कृतिक संबंधों की समझ को बढ़ाने की जरूरत है, ताकि हमारे पहाड़, रेगिस्तान और तटीय क्षेत्रों की रक्षा की जा सके।

विदेशों में संस्कृति की रक्षा हेतु प्रयास

चीन ने केवल बीजिंग में 150 आर्ट गैलरी स्थापित की हैं। इसके अलावा एक जिला ही पूरा कला को समर्पित कर दिया है।

सिंगापुर, थाईलैण्ड और फिलीपींस ने कला संग्रहालयों के निर्माण पर अथाह राशि खर्च की है। हांगकांग ने अपनी सांस्कृतिक विरासत की रक्षा हेतु अरबों रुपए लगाए हैं। यूएई ने भी कला संग्रहालयों और कार्यक्रमों के लिए काफी धन लगाया है।

कला एवं संस्कृति की रक्षा के प्रयास क्यों आवश्यक हैं ?

जब संस्कृति में संस्थागत रूप से निवेश नहीं किया जाता है, तो एक प्रकार की सांस्कृतिक उदासीनता घर कर जाती है। इसका परिणाम यह होता है कि हम लोकप्रिय व क्लासिकल संस्कृति के बीच संतुलन बनाकर नहीं चल पाते। सांस्कृतिक सक्रियता की कमी से लोग अपनी संस्कृति का जब पर्याप्त ज्ञान प्राप्त नहीं कर पाते हैं, तो वे आसानी से सांस्कृतिक उग्रवाद की ओर आकर्षित हो जाते हैं, जो अनुचित होता है। यह बहिष्करण की दृष्टि से जुड़ा हुआ है, जिसके प्रतिकूल राजनीतिक परिणाम होते हैं। ऐसे में संस्कृति एक नारा बन जाती है। यही आज कश्मीर की प्रकृति की अक्षम्य क्षति कर रहा है। झारखण्ड ओडिशा जैसे प्रकृति के पालक राज्यों में युवाओं में भटकाव आ रहा है| परन्तु उनकी सभ्यता अभी उन्हें थामे हुए है| नाट्यशास्त्र, अजंता और मुगलों के शिल्पकारों की भूमि में जर्जर कला सभागार, उपेक्षित संग्रहालय, ढहते स्मारक धब्बे की तरह हैं। भारत की भूमि को इस ओढ़ी हुई सांस्कृतिक दरिद्रता से बाहर निकलने की आवश्यकता है।

सरकारी संस्थाओं को चाहिए कि वे स्थानीय समुदाय (जिसमें सभी धर्म शामिल हो) को ऐतिहासिक स्मारकों की सुरक्षा एवं देख-रेख के काम में सहयोगी बनाएं। ऐसा करके उनके बीच के आपसी बैरभाव को कम किया जा सकेगा। इस बातचीत में खुलापन, रोचकता, इतिहास की समझ पैदा करने की क्षमता, सांस्कृतिक अभिव्यक्ति एवं कौशल विकास के आयाम होने चाहिए। इसके लिए विरासत की ऐसी व्याख्या की जाए, जिससे प्राकृतिक धरोहरों के प्रति भी जागरूकता आए।

डॉ. सरवन सिंह बघेल

स्वत्रंत स्तंभकार, लेखक, सामाजिक विचारक

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Dr. Bhanu Pratap Singh