मजरूह की पुण्‍यतिथि: रक़्स करना है तो फिर पाँव की ज़ंजीर न देख

मजरूह की पुण्‍यतिथि: रक़्स करना है तो फिर पाँव की ज़ंजीर न देख

साहित्य

 

1 अक्टूबर 1919 को निजामाबाद जन्‍मे उर्दू के मशहूर शायर मजरूह सुल्तानपुरी का इंतकाल 24 मई 2000 को मुंबई में हुआ था। पेशे से हकीम लेकिन हर्फों के जादूगर इस अजीम शायर का नाम असल नाम असरार उल हसन खान था।
मुशायरे के मंचों से होते हुए लोगों के दिलों में दाखिल होने वाले मजरूह सुल्तानपुरी ‘जब दिल ही टूट गया, हम जी के क्या करेंगे’ जैसे सदाबहार गीत के रचियता थे। कहा जाता है कि ये उस वक़्त के दिलफ़िगार आशिकों के लिए राष्ट्रीय गीत की तरह था।
सारे हिंदुस्तान को अपनी कलम की नोक पर नचाने वाले मजरूह सुल्तानपुरी ने बंबई में मजदूरों की एक हड़ताल के दौरान एक ऐसी कविता पढ़ी कि खुद को भारत के जवान समाजवादी सपनों का कस्टोडियन कहने वाली नेहरू सरकार आग-बबूला हो गई।
तत्कालीन गवर्नर मोरार जी देसाई ने महान अभिनेता बलराज साहनी और अन्य लोगों के साथ मजरूह सुल्तानपुरी को भी ऑर्थर रोड जेल में डाल दिया। मजरूह सुल्तानपुरी को अपनी कविता के लिए माफ़ी मांगने के लिए कहा गया और उसके एवज में जेल से आजादी का प्रस्ताव दिया गया पर मजरूह के लिए किसी नेहरू का क़द उनकी कलम से बड़ा नहीं था सो उन्होंने साफ़ शब्दों में इंकार कर दिया। मजरूह सुल्तानपुरी को दो साल की जेल हुई और आज़ाद भारत में एक शायर आज़ाद लबों के बोल के लिए दो साल तक सलाखों के पीछे कैद रहा। आप भी पढ़िए, मजरूह साहब ने पंडित नेहरू के लिए क्या कहा था-
मन में ज़हर डॉलर के बसा के,
फिरती है भारत की अहिंसा
खादी की केंचुल को पहनकर,
ये केंचुल लहराने न पाए
ये भी है हिटलर का चेला,
मार लो साथी जाने न पाए
कॉमनवेल्थ का दास है नेहरू,
मार लो साथी जाने न पाए 
सत्ता की छाती पर चढ़कर एक शायर ने वह कह दिया था, जो इससे पहले इतनी साफ़ और सपाट आवाज़ में नहीं कहा गया था। यह मज़रूह का वह इंक़लाबी अंदाज़ था, जिससे उन्हें इश्क़ था। वह फिल्मों के लिए लिखे गए गानों को एक शायर की अदाकारी कहते थे और चाहते थे कि उन्हें उनकी ग़ज़लों और ऐसी ही इंक़लाबी शायरी के लिए जाना जाए।
शायद इसीलिए वो ऐसे शेर भी लिख सके-

अब सोचते हैं लाएँगे तुझ सा कहाँ से हम
उठने को उठ तो आए तिरे आस्ताँ से हम

बढ़ाई मय जो मोहब्बत से आज साक़ी ने
ये काँपे हाथ कि साग़र भी हम उठा न सके

बहाने और भी होते जो ज़िंदगी के लिए
हम एक बार तिरी आरज़ू भी खो देते

देख ज़िंदाँ से परे रंग-ए-चमन जोश-ए-बहार
रक़्स करना है तो फिर पाँव की ज़ंजीर न देख

मैं अकेला ही चला था जानिब-ए-मंज़िल मगर
लोग साथ आते गए और कारवाँ बनता गया

रहते थे कभी जिन के दिल में हम जान से भी प्यारों की तरह
बैठे हैं उन्हीं के कूचे में हम आज गुनहगारों की तरह

Dr. Bhanu Pratap Singh