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ये हरियाणा के रणबांकुरे, पढ़िए पूर्व IAS चोब सिंह वर्मा का धमाकेदार आलेख

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हाल ही में सम्पन्न खेलों के विश्वस्तरीय महाकुंभ – टोक्यो ओलंपिक में भारतीय खिलाड़ियों ने इस बार कई नये कीर्तिमान देश के लिए कायम कर दिए हैं। इनमें भी हरियाणा के तीन खिलाड़ियों ने तो विजयी पोडियम के तीनों पायदानों पर अपने-अपने गेम्स में खड़े होकर शोभा बढ़ायी – नीरज चोपड़ा – गोल्ड, रवि दहिया – सिलवर व बजरंग पुनिया – ब्राँज मेडल के हकदार बने। भारतवर्ष की कुल जनसंख्या में छोटा-सा हिस्सा इस प्रदेश का आता है तथा जमीन का भौगोलिक क्षेत्रफल तो नक्शे में गौर से देखने पर ही ढूँढ़ा जा सकता है। लेकिन स्पोर्ट्स के फील्ड में इस प्रदेश के युवाओं की उपलब्धियां पाठ्य पुस्तक का विषय बन देश को हैरत में डाल देती हैं। पिछले चार ओलंपिक में तो आधे पदक विजेता इसी प्रदेश के रहे हैं। पिछले बीस साल में सम्पन्न हुए कॉमन वैल्थ, एशियन गेम्स व एशियन तथा विश्व चैम्पियनशिप में भी यहाँ के लड़के लड़कियाँ पदकों से देश की झोली भरते रहे हैं।

हरियाणा के हर बड़े गाँवों में फैले अखाड़े, बड़े कस्बों में बने व चल रहे स्टेडियम इन वर्तमान खिलाड़ियों की तथा भावी ओलंपियन्स की नर्सरी साबित हो रहे हैं। हरियाणा की राजनीति भले ही उठा-पटक वाली रही हो लेकिन खेलों के प्रति सभी सरकारों का समर्थन रहा है। गाँव-गाँव में लड़के लड़कियां ज्यादा से ज्यादा खेलों में शामिल करने की जैसे होड़ लग गयी हो। कारण है सरकारों ने इतने तरह के पुरस्कार व आर्थिक मदद के साथ नौकरियों की व्यवस्था मेडल विजेताओं के लिए एक नीति के रूप में तय कर रखी हैं। आमजन इसका फायदा भरपूर उठा रहे हैं। जो भी बालक / बालिका शारीरिक रूप से हृष्ट-पुष्ट व मजबूत इच्छा शक्ति वाला होता या होती है खेती किसानी कर गरीबी से दो-चार हाथ कर रहे लोग इन्हें नौकरी की आशा में खेलों की ओर खेल देते हैं। ऐसे माता-पिताओं का त्याग व संघर्ष देखने लायक होता है – वे सुबह तीन-चार बजे जग कर इन बच्चों को तैयार होने को कह खुद गाय / भैंस को सानी/पानी दे उनसे दूध निकालने के काम में जुट जाते हैं। दिन चढ़ते ही नजदीक के अखाड़े या थोड़ी दूरी स्थित स्टेडियम में उन्हें साईकिल पर बिठा छोड़ आते हैं।

विनेश फोगाट, सोनम मलिक, दीपक पूनिया व महिला हॉकी टीम की प्लेयर्स भले ही पदक से चूक गये हो लेकिन देशवासी इनके कठिन संघर्ष व प्रयासों के कायल हैं। पूरे हरियाणा में खेलों के प्रति जुनून व जज्बा सबके सिर चढ़के बोल रहा है। विनेश फोगाट, साक्षी मलिक, बिजेन्दर, बजरंग व दीपक पुनिया ने जो खेल के प्रति नशा यहाँ के युवाओं में भर दिया है उसकी अगली फसल के रूप में रवि दहिया व नीरज चैपड़ा का उदय इस ओलंपिक की खास उपलब्धि है। 57 किलोग्राम भार वर्ग के कुश्ती के फायनल मुकाबले में रवि दहिया सिलवर मैडल जीते / 23 वर्षीय रवि सोनीपत के गांव नाहरी निवासी किसान के बेटे हैं। सेमी फायनल मैच में 2-9 अंकों से पिछड़ रहे रवि ने अंतिम क्षणों में विशेष दाव लगा कजाकिस्तान पहलवान को चित कर दिया था। इस दर्शनीय भिंड़त में रवि की बाजू कजाक ने दांत से काटी पर रवि ने अपनी पकड़ ढीली नहीं की। ये उनकी ‘नैवर से डाई’ स्पिरिट की निशानी थी। रवि के पिता भूमिहीन हैं उन्हें औरों से जमीन बटाई पर लेकर खेती करनी पड़ती है। एक तरह से मजदूरी कर अपना घर चलाते हैं और जैसे-तैसे पेट काट कर बेटे को पहलवानी कराते हैं। पिता का जज्बा व बेटे में विश्वास हैरत वाला है – लॉकडाउन में रवि दिल्ली के छत्रसाल स्टेडियम में अकेले तैयारियां करता रहा। पिता राकेश सोनीपत के नाहरी गांव से हर रोज 60 किमी. दूर दूध व मक्खन देने दिल्ली जाते थे। नरेला में ट्रेन पकड़ने के लिए उन्हें थैले में केन रखकर दो किमी. पैदल आना जाना होता था पुराने आजादपुर में उतर कर मॉडल टाउन (दिल्ली) जाया करते थे। अब जब उनके बेटे ने ओलंपिक का रजत पदक जीत लिया है तो वे अपने श्रम व संघर्षों केा मूल पूरे देश को साथ उत्सव मना रहे हैं।

भारतीय ओलंपिक के 121 वर्ष के इतिहास में नीरज चोपड़ा (23 वर्ष) द्वारा जेवलिन थ्रो में जीता गोल्ड मैडल ट्रैक एंड फील्ड प्रतियोगिता पहला स्वर्ण पदक है। अभिनव बिंद्रा के बाद व्यक्तिगत स्तर पर सोना जीतने वाले नीरज दूसरे भारतीय हैं। पानीपत के खांड्रा गांव निवासी किसान के बेटे नीरज ने फायनल में 87.58 मीटर दूरी तक माला फेंक कर दुनिया को नये स्टार के रूप में उदय हो चौंका दिया। इस उपलब्धि से टोकियो में 13 वर्ष बाद जब राष्ट्रगान बजा तो 135करोड़ देशवासी रोमांच से भर गये। ऐथिलिटिक्स में सवा सौ वर्ष से तरस रहा देश एक मेडिल पाने से जरा-सा चूके स्व. मिलखा सिंह, पी.टी. उषा, अंजू बॉबी जॉर्ज आदि जैसे खिलाड़ियों को आइकन मान सम्मान देता रहा है नीरज भी अपने प्रदेश के अन्य पदक विजेताओं की तरह निम्न मध्यम वर्गीय परवरिस में पले बढ़े और पग-पग पर अभाव व गरीबी से दो-दो हाथ करते रहे। खेती किसानी पर निर्भर एक किसान की आर्थिक हैसियत ऐसी नहीं थी कि लड़के को 1.10 लाख रुपये का जेवलिन खरीद कर दिला सकें। पिता व चाचा ने जैसे-तैसे सात हजार रुपये इकट्ठे कर नीरज को एक काम चलाऋऊ जेवलिन प्रेक्टिस हेतु दी थी।

पानीपत की सरजमीं ने पिछली पांच शताब्दियों में तीन ऐसे बड़े युद्ध झेले हैं जिन्होंने हिन्दुस्तान के इतिहास की तकदीर और दिशा बदल दी थी। युद्धपीड़ित इसी धरती से इतने अरसे बाद सोना निकला है। नीरज चोपड़ा ओलंपियन चैम्पियन स्वर्ण पदक विजेता के रूप में। भारतीय सेना को बड़ा श्रेय जाता है कि उसने अपनी फोर्स के इस जवान को अपना सर्वश्रेष्ठ गेम खेलने के मौके, समर्थन, सुविधाएं व मान सम्मान सब कुछ दिया।

पहलवान व ऐथलीटों की पेशेवर जिन्दगी ज्यादा लंबी नहीं होती। ये तीस-बत्तीस की उम्र के बाद रिटायर हो जाते हैं। जो समाज आज इन्हें इनकी शानदार उपलब्धियों के कारण अपने सिर पर उठाए हुए है और इनकी उपलब्धि पर गर्व कर ढोल नगाड़े बजा उत्सव मना रहा है, इन्हें ये प्यार व सम्मान इनके प्रोफेशनल जीवन के समाप्त होने के बाद भी जारी रखना होगा तभी अन्य सितारे हरियाणा के आकाश पर उदय होते रहेंगे।

अकेले हरियाणा या पूर्वोत्तर भारत के राज्यों के निवासी खिलाड़ियों पर दबाव कम करने की जिम्मेदारी यू.पी., बिहार, महाराष्ट्र जैसी बड़ी जनसंख्या वाले राज्यों की भी बनती है। जो आर्थिक मदद, सुविधायें सम्मान व नौकरियां देकर हरियाणा की सरकारों ने पिछले बीस-पच्चीस वर्ष से खिलाड़ियों को ओलंपियन बनाया है उसका प्रतिफल इन युवाओं ने हर राष्ट्रीय, अन्तर्राष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में झण्डे गाड़ कर दे दिया है। बड़े राज्यों को अपनी खेल अवस्थापनाएं बढ़ानी होंगी, विशेषज्ञ कोच रखने होंगे तथा हरियाणा पैटर्न अपना कर मेडल विजेताओं को नौकरी देने की नीति बनानी होगी। शारीरिक क्षमता वाले इन खेलों के प्रतियोगी बच्चे ज्यादातर गरीब, अभावग्रस्त व सुविधाविहीन घरों से आते हैं इसलिए ऐसी पृष्ठभूमि वाले बच्चों को स्वस्थ भोजन, ठहरने, प्रैक्टिस करने की बेहतर व्यवस्था, शिक्षा व अच्छे ट्रेनर कोच देने होंगे। बागपत का जोहड़ी गांव इसका उदाहरण है। स्व. चन्द्रो तोमर (चंदो चाची) गन्ने के खाली खेत में ईंट के टुकड़ों से निशाना लगाने की प्रैक्टिस कर निशानेबाज बन गईं। जोहड़ी से निकले 100 के आसपास बच्चे स्पोर्ट्स कोटे में सेंट स्टीफन व हिन्दू कॉलेज जैसी एलीट संस्थाओं में दाखिल पाकर पढ़े और एयर इंडिया, रेलवे, ओएनजीसी, आईओसी जैसी संस्थाओं में नौकरी पा चुके हैं। सरकारी मदद और सुविधाएं इन्हें तीस साल पहले मिली होंती निशानेबाजी में आज ओलंपिक पदक लाए होते। देर आए दुरुस्त आए। महामारी के कारण घोर अव्यवस्था, निराशा व मानसिक अवसाद जैसी अवस्था में जी रहे असंख्य भारतीयों को इन मेडल विजेताओं ने उत्सवी मूड में लाकर अपना ऋणी बना दिया है।

चोब सिंह वर्मा, पूर्व आईएएस

9871117587