न मुड़िया मेला, न श्रद्धालुओं का रेला, फिर कहां जा रहा दूध
शादी, विवाह व पार्टियां नहीं हो रहीं, मिठाई की दुकानें भी बंद
किसानों ने दूध नहीं फेंका, दूधियों ने भी शिकायत नहीं की
Mathura (Uttar Pradesh, India)। करोड़ी मुड़िया मेला नहीं लग रहा है। मठ और मंदिर बंद हैं। धार्मिक आयोजन हो नहीं रहे। श्रद्धालुओं का रेला नहीं है। शादी, विवाह व पार्टियां नहीं हो रहीं, मिठाई की दुकानें भी अभी लगभग बंद हैं, फिर भी दूध बार्बद नहीं हो रहा है। किसानों ने दूध को सडकों पर कहीं नहीं बहाया, दूधिया ने खरीददार नहीं मिलने पर दूध बर्बाद होने की शिकायत कहीं दर्ज नहीं कराई है। फिर दूध गया कहां?
दूध खराब होने की सूचना भी नहीं मिली
लॉकडाउन में लोगों और वाहनों का आवागमन लगभग पूरी तरह ठप था। उस समय भी इस तरह की शिकायत कहीं से नहीं आई कि दूध बार्बाद हो रहा है और किसान परेशान है। हुआ तो बस इतना कि स्थिति का लाभ उठाते हुए दुधिया और दूध के कारोबार में लगे लोगों ने किसान के द्वार पर दूध के दाम कम कर दिये, जबकि खरीददार के दरवाजे पर भाव जस की तस रहा, कहीं-कहीं यह बढ़ा भी। लॉकडाउन में लोगों के पास काम नहीं रहा और पैसा भी नहीं। ऐसे में क्रय शक्ति भी कम हुई होगी। इसके बाद भी दूध खराब होने की कोई सूचना कहीं से नहीं मिली।
विचारणीय मुद्दा
ऐसा भी नहीं है कि किसान ने कम कीमत की वजह से दूध को बेचना बंद कर दिया और घी, पनीर बनाना शुरू कर दिया, क्योंकि घी और पनीर के दामों में भी कोई कमी नहीं आई और न ही कहीं भी पनीर और घी की बहुतायत की बात सामने आई। फिर ब्रज में प्रतिदिन आने वाले हजारों श्रद्धालुओं के लिए दूध की आपूर्ति कैसे होती थी। विशेष अवसरों पर लाखों और मुड़िया मेला जैसे आयोजनों के समय कई लाख श्रद्धालुओं के लिए भी दूध की आपूर्ति निर्बाधरूप से होती रहती थी।

काला कारोबार चल रहा?
आंकडों के मुताबिक मुड़िया मेला के असवर पर लाखों टन दूध की खतप हो जाती है, बावजूद इसके कि इसकी बाहर से आपूर्ति नहीं होती है और पूरा दूध स्थानीय स्तर पर ही मिल जाता है। लॉकडाउन ये यह साबित कर दिया कि कान्हा की नगरी में सफेद दूध का काला कारोबार वर्षों से बड़े पैमाने पर चल रहा है।
अज्ञानी का एक सवाल
एक बड़े चिकित्सा संस्थान से जुडे प्रशांत अज्ञानी का कहना है कि सारी मिठाई की दुकानें बंद थीं। सारे रेस्टोरेन्ट बंद थे। सारी चाय की दुकानें व चाय के ठेले बंद थे। शादी, विवाह व पार्टियां नहीं हो रहीं, तो फिर इनमें खपने वाला हजारों लीटर दूध कहां जा रहा है ? और दूध वालों ने अतिरिक्त दूध रास्ते पर भी नहीं फेंका है। हमें सस्ते दामों में भी दूध नहीं दे रहे हैं। हमारे घरों में जितना दूध आ रहा था आज भी उतना ही आ रहा है और दूध को रखा भी नहीं जा सकता। क्या सचमुच बाजार में इतने बडे पैमाने पर कृत्रिम दूध का धंधा चल रहा था?
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