Coronavirus in Agra: पढ़िए अंदर की बात

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Agra (Uttar Pradesh, India)। जब नासमझ अफसरों के हाथ में आगरा जैसे शहर की कमान सौंप दी जाएगी तो आगरा को बुहान बनने से हुकूमत को क्या ईश्वर भी नहीं रोक सकता। यकीनन कोरोना संक्रमण की जैसी महामारी आगरा में फैली है, कुछ वक्त बीतने के बाद यहां चारो तरफ हाहाकार होगी। इसका अंदाजा इस बात से लगाइए, शहर के डाक्टर घर बैठ गए हैं। प्राइवेट हो या सरकारी अस्पतालों में कोरोना तो दूर दीगर रोगों का इलाज भी बंद हो गया है। ऐसे बद से बदतर हालात किसी ने आजादी के सात दशक में किसी ने कभी नहीं देखे। कमोवेश आगरा अब ऐसे मरघट में तब्दील होता जा रहा है, जहां हर दिन मौतें हो रही हैं पर प्रशासन को नहीं लगता कि ये मौतें कोरोना संक्रमण से हो रही है। गांधी जी के बंदरों को लग भी नहीं सकता, क्योंकि मरने वालों का न तो कोरोना का टैस्ट हुआ और न ही उन्हें इलाज के लिए अस्पताल में भर्ती किया गया। ये तस्वीर आगे चलकर और भयावह होगी। आगरा ही क्यों आसपास के 10 जिलों के गांव-गांव में कोरोना फैल गया है। इसे फैलाने वाले पारस हाॅस्पीटल के संचालक डाॅ अरिंजय जैन को जेल भेजना तो दूर गिरफ्तारी तक नहीं हुई है। वहीं इस अस्पताल में भर्ती रहे मरीजों की ताबड़तोड़ मौत का सिलसिला शुरू हो गया है।

शहर में दूध के लिए मारामारी

अफसरान हैं कसूरवार
आगरा में कोरोना के कहर के लिए कोई और नहीं पूरी तरह शासन और प्रशासन जिम्मेदार है। इससे भी दुखद बात यह है कि सरकार ने अभी तक आगरा में तैनात किसी भी अधिकारी के खिलाफ कोई कार्रवाई तक नहीं की है। आगरा में कोरोना फैलने के लिए प्रशासन और शासन क्यें जिम्मेदार है ?इसके लिए मैं दिसंबर से फरवरी के बीच केंद्रीय हिंदी संस्थान और दयालबाग से संबंधित उन खबरों का जिक्र करता हूं जिन पर प्रशासन ने यदि संज्ञान लिया होता तो आगरा में कोरोना संक्रमण से सैकड़ों परिवारो को बर्बाद होने से बचाया जा सकता था।

जब पहली बार देखा कोरोना से तवाही का मंजर
सड़कों पर सन्नाटा और बाजारों में मौत का मंजर। वीरान बस्तियों में छाई खामोशी में सिर्फ हवा के झोंकों का शोर। दिन में बदरी तो रात में टिमटिमाते तारों के साये में झींगुर की डराती आवाज। कहीं बेवस डाक्टर के सामने दम तोड़ती इंसानी भीड़ और अकाल मौत का मातम सा नजारा, जहां-तहां पड़ी लावारिश लाशों पर किसी रुदाली का मातम तो दूर एक अदद कफन तक मयस्सर नहीं।तो कहीं बीमार को एक अस्पताल से दूसरे अस्पताल तक लेकर भागते तीमारदारा….। फिजा ऐसी गोया सरकारी स्वास्थ्य सेवाएं कोरोना के सामने बेदम हो गईं हो। दिल दहला देने वाले इस खौफ की झलक आगारा में भले आज दिखाई दे रही हो, मुझे इसका एहसास बीते साल 12 दिसंबर को तब हो गया था जब मैंने चीनी छात्राओं के मोबाइल में वाट्सएप्प पर बुहान में कोरोना कहर की खौफनाक तस्वीर वीडियो क्लीपिंग में देखी थी। ये चीनी छात्राएं आज भी केंद्रीय हिंदी संस्थान हैं जो कि यहां हिंदी सीखने आई हैं। यकीनन चीनी छात्राएं बुहान में कोरोना वायरस के तांडव से थर्राये अपने लोगों की हालत जानकर इस कदर दहशत में थीं कि उन्हें महादेवी वर्मा हाॅस्टल से निकलकर क्लास रुम तक जाने तक में डर लगता था।

खतरे से ऐसे बरती सतर्कता
इस संस्थान में चीन की छह छात्राएं अगस्त माह से हैं। उनकी हालत देखकर बाकी विदेशी छात्र-छात्राएं चीन में कोरोना वायरस के हर अपटेड से वाकिफ होने लगे। किंतु इसका किसी को अनुमान नहीं था जो हालता बुहान में हैं, आगरा में भी ऐसा मंजर दिखने लगेगा। संस्थान में भी सजगता बरती जाने लगी। खासकर विदेशी छात्र-छात्राएं दिल्ली और अन्य शहरों में विदेश से आने वाले लोगों के कम से कम संपर्क में रहें ताकि ये कोरोना से संक्रमित न हो जाएं। यहां 29 देशों के छात्र-छात्राएं पढ़ते हैं। विश्व हिंदी दिवस पर 10 जनवरी को विदेशी छात्र-छात्राएं विदेश मंत्रालय के परंपरागत कार्यक्रम में भाग लेने दिल्ली गए पर किसी को भी कार्यक्रम स्थल के अलावा अन्य कहीं जाने की इजाजत नहीं दी गई। मैंने चीनी छात्राओं के हवाले से हिन्दुस्तान अखबार के आगरा संस्करण में जनवरी माह में कोरोना संक्रमण पर कई खबरें लिखी। आगरा प्रशासन फिर भी नहीं चेता। यदि इन खबरों को संज्ञान में लेकर सतर्कता बरती गई होती तो आगरा की तस्वीर गोवा से भी बेहतर होती।

सत्संगी जागते रहे, हुकूमतें सोती रहीं
जनवरी माह में कोरोना संक्रमण को लेकर मुल्क की हुकूमतें कुंभकरणी नींद सो रही थीं तब आध्यामिक केंद्र दयालबाग में सत्संगी जाग रहे थे। राधास्वामी सत्संग सभा के धर्म गुरू प्रो पीएस सत्संगी ने जनवरी माह में एक दिन सत्संग में सिर पर हेलमेट, मास्क, दस्ताने पहने। उस दिन उनका पूरा प्रवचन कोरोना वायरस पर केंद्रित रहा। प्रो सत्संगी ने बताया कि किस तरह कोरोना वायरस मानव समाज के लिए खतरा है और यह महामारी बनकर दुनिया तवाह कर देगी।इससे कैसे बचा जा सकता है। चूंकि कोरोना का वायरस हवा में तैरकर कपड़े, खुले शरीर की त्वचा और सिर के बालों पर चिपकता है। लिहाजा बचाव के लिए सत्संगी भाई हेलमेट पहनकर घर से निकलें और घर वापसी पर ही सिर से हेलेमेट उतारें। घर से बाहर किसी से भी फासले से मिलें। सफाई पर ध्यान दो। बार-बार हाथ धोंयें और गर्म पानी पिएं। राधास्वामी मत के पहले गुरू परम पुररू पूरन धनी स्वामीजी महाराज की पोथी में इसका जिक्र है कि कैसे एक वायरस खतरा बनेगा और इससे बचने के लिए सबसे पहले मन से कपट निकालना होगा। मालिक के इस फरमान का असर दयालबाग के सत्संगियों पर त्वरित गति से दिखा। यहां सत्संगी हेलमेट लगाए दफ्तर, कार, पैदल और रिक्शे में दिखे तो बाकी आगरा वालों ने इनका मजाक उड़ाया। सत्संगियों से इसकी परवाह किए बगैर कोरोना वायरस को लेकर जागरुकता फैलाने का अभियान जारी रखा। यह बात मेरे भी जेहन में आई, प्रो सत्संगी खुद वैज्ञानिक और शिक्षाविद हैं। मैं विज्ञान का छात्र रहा हूं लिहाजा उनके आध्यामिक पक्ष को दरकिनार करते हुए वैज्ञानिक पक्ष को ही आधार बनाकर जनवरी माह में कोरोना पर खबरें लिखी। जो संत्संगी डाॅक्टर हैं, इंजीनियर, शिक्षाविद और आईएएस, जो छह जिलों में डीएम रह चुके हैं, उनके कोरोना संक्रमण से बचाव करते हुए फोटो और बर्जन के साथ हिन्दुस्तान अखबार में खबरें छपीं। दयालबाग के सरन आरश्र अस्तपाल में चिकित्सकों ने कोरोना से बचाव के लिए होम्योपैथी की दबाइयों का चयन कर लिया। यहां डाॅ सिद्धार्थ अग्रवाल की देखरेख में कोरोना से बचाव के लिए इमरजैंसी सेवा का सेंटर खोल दिया गया। पूरे दयालबाग में राधास्वामी सत्संग सभा द्वारा कोरोना से बचाव के लिए जारी गाइड लाइंस का पालन किया जाने लगा।

कहां थी एलआईयू ?

गौर करने वाली बात है कि केंद्रीय हिंदी संस्थान और दयालबाग उसी आगरा शहर में हैं, जहां उत्तर प्रदेश के सबसे ज्यादा कोरोना संक्रमित मरीज हैं। प्रशासन, शासन या उत्तर प्रदेश सरकार कुछ नहीं करती तो इन दोनों स्थानों पर कोरोना से बचाव को लेकर जो सजगता और जागरूकता का ना सही हिन्दुस्तान अखबार में छपी खबरों का ही संज्ञान लेकर बचाव की तैयारी की होती तो आज आगरा में कोरोना से मौत तांडव नहीं होता। दयालबाग-स्वामीबाग और केंद्रीय हिंदी संस्थान का दुनियाभर से संपर्क रहता है। ताजमहल पर भी दुनियाभर से पर्यटक आते हैं। इस लिहाज से हुकूमत और प्रशासन को आगरा में विशेष ध्यान देना चाहिए था पर ऐसा नहीं हुआ। केंद्रीय हिंदी संस्थान और दयालबाग को छोड़कर पूरा आगरा कोरोना संक्रमण की चपेट में है।

सवाल उठता है कि जब चीन में फैले कोरोना संक्रमण को लेकर दयालबाग के लोग जनवरी में ही सचेत हो गए और केंद्रीय हिंदी संस्थान में विदेशी छात्र छात्राएं सतर्क रहे तो आगरा प्रशासन और शासन का ध्यान इस पर क्यों नहीं गया ? हिन्दुस्तान अखबार के आगरा संस्करण में जनवरी और फरवरी माह में कई खबरें कोरोना संक्रमण को लेकर छपती रहीं किंतु सूचना एवं जनसंपर्क विभाग और पूलिस की एलआईयू टीम क्या कर करती रही ? दयालबाग में पीले हेलमेट लगाए हजारों सत्संगी भी सड़कों पर नजर नहीं आए ?

लापरवाही पर सरकार लापरवाह क्यों ?

हिन्दुस्तान अखबार समाज के सजग पहरी की भूमिका निभाई पर जिनके जिम्मे जनता के स्वास्थ्य की सुरक्षा का दायित्व है और इस काम के लिए उन्हें जनता से वसूले गए कर से लाखों रुपये मासिक पगार, एसी लग्जरी कारें, आलीशान महलनुमा बंगले, खिदमत में सरकारी चाकरों की पलटन और इंद्रलोक सा सुख-वैभव का बंदोबस्त होता है।

शायद जम्हूरितय का यही कसूर है कि आवाम के मुलाजिमों पर रंगीन चकाचौंध मे इतनी मदहोशी छा गई कि कर्तव्यों का निर्वाह करना तो दूर उनकी सामान्य समझ भी कलवाग्रस्त हो गई। ये गैर जिम्मेदारान रवैया किसी भी सूरत मे माफी के नाकाबिल जुर्म है। मुमकिन है ये स्वंयभू साहबान खुद की मत मारे जाने से हुई इस अनदेखी को भूल बताकर बेकसूरी की बयानी करें। ऐसे में गांधी जी के बंदरों से मेरा सवाल है कि हत्या करके माफी मांग लेने से अपराध खत्म हो जाता है क्या ? यदि नहीं तो आगरा में तमाम मौतों के कसूरवारों पर अब तक कार्रवाई क्यों नहीं ?

साल 1978 में जाटव-पुलिस संघर्ष के आगरा कांड में 22 मौतें हुई, साल 1990 में अयोध्या विवाद के दौरान कर्फ्यू के दौरान पुलिस गोली से 17 मौतें और साल 1993 में पेयजल त्रासदी में 18 बेकसूरों की जानें गई। तीनों बार फौरी तौर पर जिम्मेदार अफसरों को निलंबित कर न्यायिक जांच हुई। इस बार सरकार की खामोशी क्यों ? किसका इंतजार है ? कोरोना संक्रमण आगरा की गली-गली में कोहराम मचाने का ? या बस्तियों में मौत का मंजर और सडकों पर मरघट सा सन्नाटा पसरे या आवाम को दर और दीवार भीतर तन्हाई मेंं दम तोड़ने को मजबूर होने पर ? या फिर यहां भी बुहान के माफिक दुनिया लाशें गिरती देखे, इसका ?

हो रही मौतों के मायने

यह तो तय है आगरा में कोरोना फैल चुका है। इसे रोकने के जो भी इंतजाम हैं नाकाफी हैं। शहर में कोरोना को लेकर कल की जो तस्वीर उभर रही है, इतनी भयावह है कि उसके बारे में लिखने से ऐसे डर लगता है मानो मैं ही बुहान में बैठकर कहानी लिख रहा हूं। यकीनन। मेरे हाथ कांप रहे हैं। यह भी सच है कि
आजादी से अब तक जो भी सरकारें रहीं, शिक्षा और स्वास्थ्य प्राथमिकता किसी की नहीं रही। यही कारण है कि कोरोना जैसी महामारी और किसी भी प्राकृतिक आपदा से निपटने को सरकारी बंदोबस्त बेहद सीमित रहते हैं। हमारे सूबे की आवादी तकरीबन 23 करोड़ है और यहां कोरोना संक्रमण परखने के अब तक महज 25 हजार लोगों के सेंपिल टेस्ट हुए हैं। बस्ती-बस्ती मौतों का सिलसिला शुरू हो गया है। ये मौत किस-किस रोग से हो रही हैं हुई कोई हवाला कोई हवाला देने को तैयार नहीं है।

सरकारी और प्राइवेट हाॅस्पीटलों में आम आदमी का इलाज बंद है। शायद कोरोना के अलावा किसी अन्य बीमारी से अवाम के मरने से हुक्मरानों को फर्क नहीं पड़ता है और न इंतजामिया को। यह बेजा बात है और सरकारों का संवेदनहीन सोच परिलक्षित होता है। गौर तलब है, हमारे सूबे ने मुल्क के नौ बजीर-ए-आजम दिए। सूबे में हर सियासी जमात की हुकूमतें रहीं। कभी जाति के नाम पर तो कभी धर्म के नाम पर मतदाताओं का भरोसा ठगा जाता रहा है। सत्ता में आते ही भूल जाते हैं कि जिस मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठकर अपनी सात पीढी की सेहद का इंतजाम कर रहे है, उसे देने वाली जनता बीमार है।

इन्हें कतई शर्म नहीं कि हमारी स्वास्थ्य सेवाएं इतनी लचर हैं कि तमाम जिला अस्पतालों में बेंटीलेटर तक नहीं है। कोरोना का इलाज क्या करेंगे ?
लिहाजा कह सकता हूं कि सभी दलों के नेताओं के हाथ कोरोना से हो रही मौतों में खून से सने हैं। आखिर इनसे आवाम की इस बेवसी का सवाल क्यों नहीं पूछा जाना चाहिए कि 23 करोड़ आवादी की स्वास्थ्य सेवा में वेटिलेटर, सात दशक की सरकारों की प्राथमिकता क्यों नहीं रही ? सरकारी हो या प्राइवेट हास्पीटल में कोरोना के अलावा दीगर रोगों से बीमार लोगों का इलाज क्यों नहीं हो रहा है ? मुश्किल वक्त में आज जोे हालात हैं, सच मानो बीते साल दिसंबर में जो दशा चीन के बुहान प्रांत की थी, कमोवेश आज आगरा उसके मुहाने पर है। इसके आगे क्या होगा ? सोचकर थर्राता हूं।

चूंकि हम हर तरह से बहुत कमजोर हैं। मसलन हमारी अवाम का बड़ा हिस्सा बहुत घनी बस्तियों में है, जहां संक्रमण तेजी से फैलता है। उनमें जागरुकता का अभाव है। उनके पास धन का अभाव है। उनके घर में आटा और साफ पीने का पानी नहीं है। सरकारी अस्पताल में दवा और इलाज तो दूर डाक्टर तक नहीं है। सरकार की परवाह और कवायद नाकाबिल है। किसी आम इसान का दर्द हुकूमत तक पहुंचाना तकरीबन नामुकिन है।

-वरिष्ठ पत्रकार बृजेन्द्र पटेल की फेसबुक वॉल से साभार