श्रद्धा का प्रतिरूप ही श्राद्ध — पंडित अमित भारद्वाज

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Mathura (Uttar Pradesh, India) मथुरा। पितृ पक्ष 2 सितंबर से प्रारंभ होकर 17 को सर्वपितृ अमावस्या तक चलेगा। मनु द्वारा शुरू की गयी श्राद्ध की परंपरा का मुख्य तत्व श्रद्धा अर्थात् पवित्र आस्था है। जिसमें अपने पितरों के प्रति श्रद्धा नहीं वह श्रद्धा नहीं वह श्राद्ध करने का अधिकारी नहीं होता। श्राद्ध कर्म पितृ ऋण चुकाने की प्रक्रिया है जिसमें अपने पुरखों के प्रति कृतज्ञता का भाव होता है।

श्राद्ध करता है व समस्त पापों से रहित होकर मुक्ति प्राप्त करता है

महर्षि जाबालि के अनुसार श्राद्ध करने से पुत्र आयु, आरोग्य, अतुल एश्वर्य एवं इच्छित वस्तुओं की प्राप्ति होती है। महर्षि कार्षणाजिनी के अनुसार पितृ पक्ष में पितृ श्राद्ध न पाने पर निराश होकर दीर्घ स्वांस लेते हुए गृहस्थ को दारुण दुख का श्राप देकर पितृलोक में वापस चले जाते हैं। कूर्म पुराण में कहा गया है कि किसी भी विधि से एकाग्रचित होकर श्राद्ध करता है व समस्त पापों से रहित होकर मुक्ति प्राप्त करता है एवं पुन: संसार चक्र में नहीं आता। वेद व्यास के अनुसार जो व्यक्ति श्राद्ध द्वारा अपने पितरों को संतुष्ट करता है वह पितृ ऋण से मुक्त होकर ब्रह्मलोक को जाता है। ब्रह्म पुराण के अनुसार श्राद्ध के तीन देवता वसु, रुद्र, आदित्य हैं जो तीन पीढ़ियों के तीन पूर्वज क्रमश: पिता, पितामह व प्रपितामह तुल्य माने गए हैं।

गरुण पुराण के अनुसार तिल परमात्मा के स्वेद की बूंदें हैं

विश्वास है कि श्राद्ध के समय उच्चारित नाम, गोत्र और मंत्रों से श्राद्ध में अर्पित द्रव्य वायु रूप में प्रविष्ट होकर हव्य के रूप में पितरों को प्राप्त होते हैं। श्राद्ध के द्रव्य तिल, उड़द, जौ, चावल, जल, कंदमूल, फल, व दूध से निर्मित पदार्थ हैं। तिल व उड़द की डाल का प्रयोग महत्वपूर्ण है। गरुण पुराण के अनुसार तिल परमात्मा के स्वेद की बूंदें हैं। पितरों का आवास दक्षिण दिशा में होने के कारण श्राद्ध के समय दक्षिणामुख होकर जनेऊ को दाहिने कंधे पर रखा जाता है। कुशा को पवित्र माना गया है। देव कार्यो में काटी गयी कुशा प्रयुक्त होती है लेकिन श्राद्ध में जड़ सहित। क्योंकि कुशा का ऊर्ध्वं भाग देवताओं का, मध्य भाग मनुष्यों का व जड़ें पितरों के लिए होती है।

आचार्य के निर्देशन में तर्पण अवश्य करना चाहिए

पितृ पक्ष में दिन में सोना, असत्य भाषण, रतिक्रिया, सिर व शरीर पर तेल, साबुन आदि लगाना, मदिरा सेवन, अनैतिक कृत्य, जुआ खेलना, झगड़ा व वाद विवाद करना तथा किसी भी जीवधारी को हानि व कष्ट पहुँचाना निषेध है। श्राद्ध पक्ष में प्रतिदिन ठाकुरजी का भोग लगाकर गौ ग्रास निकालना, श्राद्ध की तिथि को गौ ग्रास के अलावा कुत्ता, कौआ, जलचर जैसे कछुआ, मछली आदि का ग्रास निकालना चाहिए। विद्वान व सात्विक ब्राह्मण को श्रद्धा के साथ भोजन कराके भेंट, उपहार देना एवं किसी आचार्य के निर्देशन में तर्पण अवश्य करना चाहिए। दरिद्र व्यक्ति कंदमूल फल से या कुछ भी न हो तो तिलयुक्त जल से तिलांजलि देकर अपने कर्तव्य की पूर्ति कर सकता है। दक्षिण दिशा की ओर मुख करके अपने पितरों को श्रद्धा के साथ हाथ जोड़कर स्मरण करने से भी पितृ संतुष्ट व तृप्त हो जाते हैं।

चावल से देवताओं को, जौ से ऋषियों को एवं तिल से पितरों का तर्पण का विधान है

तर्पण — श्राद्ध में तर्पण अर्थात् जलदान महत्वपूर्ण है। प्रतिदिन गौ ग्रास निकालने के बाद एवं श्राद्ध की तिथि वाले दिन ब्राह्मण को भोजन कराने के बाद किसी पवित्र सरोवर, नदी पर योग्य आचार्य के निर्देशन में तर्पण अवश्य करना चाहिए। सर्वप्रथम देव तर्पण फिर ऋषि तर्पण तत्पश्चात अपने पितरों के त तर्पण का विधान है। जिसमें काले तिल, जौ, चावल व जल का प्रयोग होता। चावल से देवताओं को, जौ से ऋषियों को एवं तिल से पितरों का तर्पण का विधान है। एवं पितरों को जड़युक्त कुशा से जलदान किया जाता है । बिना जलदान के श्राद्ध पूर्ण नही होता।

Dr. Bhanu Pratap Singh