उपेंद्र सिंह जाटव
अध्यक्ष, भारतीय जाटव समाज
भारत में दलित समुदायों में से एक प्रमुख समुदाय, चमार, का इतिहास प्राचीन काल से जुड़ा हुआ है। यह समुदाय परंपरागत रूप से चमड़े के काम से संबंधित रहा है, जिसके कारण इसे सामाजिक भेदभाव और छुआछूत का सामना करना पड़ा। उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, बिहार, राजस्थान, हरियाणा, दिल्ली, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र और पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में इस समुदाय की उल्लेखनीय उपस्थिति है।
उत्तर प्रदेश में विशेष रूप से पूर्वांचल क्षेत्र में दोहरे, अहिरवार, शंखवार, कुरील, रविदास आदि उपजातियां निवास करती हैं, जिन्हें आम बोलचाल में “चमार” कहा जाता है। लेकिन इस शब्द को लेकर आज एक बहस छिड़ी हुई है, खासकर नयी युवा पीढ़ी के बीच, जो इसे अपने सामाजिक सम्मान और गरिमा के लिए हानिकारक मानती है। इस लेख में हम चमार और जाटव शब्दों की स्थिति, जाति प्रमाण पत्रों में नाम बदलने की मांग और इसके सामाजिक-कानूनी पहलुओं पर चर्चा करेंगे।
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
“चमार” शब्द संस्कृत के “चर्मकार” से लिया गया है, जिसका अर्थ है चमड़ा बनाने वाला। प्राचीन काल में यह समुदाय चमड़े की तनाई और जूते बनाने जैसे कार्यों में संलग्न था, जिसे उच्च जातियों द्वारा “अशुद्ध” माना जाता था। इस कारण इस समुदाय को सामाजिक बहिष्कार और अपमान का सामना करना पड़ा। भारतीय संविधान के तहत चमार समुदाय को अनुसूचित जाति के रूप में वर्गीकृत किया गया है, जिसके कारण उन्हें शिक्षा, नौकरी और राजनीति में आरक्षण जैसे लाभ मिलते हैं।
इस समुदाय के भीतर कई उपजातियां हैं, जैसे जाटव, दोहरे, अहिरवार, शंखवार, कुरील और रविदास। ये उपजातियां विभिन्न क्षेत्रों में फैली हुई हैं, लेकिन उत्तर प्रदेश में इन्हें सामान्यतः “चमार” के नाम से ही संबोधित किया जाता है।
“चमार” शब्द की धारणा
आज की युवा पीढ़ी का मानना है कि “चमार” शब्द उनके सामाजिक सम्मान को ठेस पहुंचाता है। इस शब्द का प्रयोग अक्सर अपमानजनक तरीके से किया जाता रहा है, जिसके कारण यह नकारात्मक अर्थों से जुड़ गया है। अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 के तहत इस शब्द का अपमानजनक प्रयोग अपराध माना जाता है और इसके लिए सजा का प्रावधान है।हालांकि, कुछ जगहों पर इस शब्द को गर्व के प्रतीक के रूप में अपनाने की कोशिश भी हुई है। उदाहरण के लिए, उत्तर प्रदेश के सहारनपुर जिले के घड़कौली गांव में एक साइनबोर्ड पर लिखा है, “द ग्रेट चमार डॉ. भीमराव अंबेडकर गांव घड़कौली आपका स्वागत करता है।” यह दर्शाता है कि समुदाय इस शब्द को अपमान से सम्मान में बदलने की दिशा में प्रयास कर रहा है। फिर भी, आधिकारिक दस्तावेजों में इस शब्द के प्रयोग को लेकर असंतोष बना हुआ है।
जाति प्रमाण पत्र: विवाद का केंद्र
जाति प्रमाण पत्र अनुसूचित जातियों के लिए एक महत्वपूर्ण दस्तावेज है, जो उन्हें संवैधानिक लाभ प्राप्त करने में मदद करता है। लेकिन उत्तर प्रदेश में यह प्रमाण पत्र “चमार” नाम से जारी किया जाता है, भले ही व्यक्ति जाटव या अन्य उपजाति से संबंधित हो। यह प्रथा युवाओं को अस्वीकार्य लगती है, क्योंकि यह उस शब्द को बढ़ावा देती है जिसे वे अपमानजनक मानते हैं।
उदाहरण के लिए, उत्तर प्रदेश में इटावा से आगे के क्षेत्रों में भी जाति प्रमाण पत्र “चमार” नाम से ही बनाए जाते हैं, जो एक बड़ी विसंगति को दर्शाता है। अनुसूचित जाति सूची में “चमार, धूसिया, झूसिया, जटावा” आदि शामिल हैं, लेकिन व्यवहार में “चमार” का प्रयोग आम है। यह समुदाय की विविध पहचान को नजरअंदाज करता है।
वहीं, छत्तीसगढ़ में स्थिति अलग है। वहां की अनुसूचित जाति सूची में “चमार, चमारी, बैरवा, भांभी, जाटव, मोची, रेगर, नोना, रोहिदास, रामनामी, सतनामी, सूर्यवंशी, सूर्यरामनामी, अहिरवार, चमार, मगन, रैदास” शामिल हैं। इससे संकेत मिलता है कि वहां जाति प्रमाण पत्र “जाटव” सहित विभिन्न नामों से जारी किए जा सकते हैं। छत्तीसगढ़ सरकार ने “जाटव” नाम से प्रमाण पत्र जारी करने का आदेश भी दिया है, जो एक सकारात्मक कदम माना जा सकता है।
बदलाव की मांग
नयी पीढ़ी की मांग है कि पूरे देश में, विशेष रूप से उत्तर प्रदेश में, जाति प्रमाण पत्र “चमार” के स्थान पर “जाटव” नाम से जारी किए जाएं। उनका तर्क है कि यह न केवल उनकी पहचान को सम्मान देगा, बल्कि उस शब्द से मुक्ति दिलाएगा जो ऐतिहासिक रूप से अपमान से जुड़ा रहा है। यह मांग खासकर इसलिए भी प्रासंगिक है क्योंकि “चमार” शब्द का गाली के रूप में प्रयोग कानूनी रूप से दंडनीय है। ऐसे में, आधिकारिक दस्तावेजों में इस शब्द का प्रयोग अनुचित लगता है।
सुझाव है कि सिर्फ “जाटव” लिखकर प्रमाण पत्र जारी किए जाएं, ताकि समुदाय की एक विशिष्ट पहचान स्थापित हो। यह मांग सामाजिक सम्मान और आत्म-सम्मान की भावना को मजबूत करने की दिशा में एक कदम है।
कानूनी और सामाजिक पहलू
अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 के तहत “चमार” शब्द का अपमानजनक प्रयोग करने पर जेल और जुर्माने की सजा हो सकती है। इसलिए, यह आवश्यक है कि सरकारी दस्तावेजों में ऐसा शब्द प्रयोग न हो जो अपमान का कारण बन सके। “जाटव” या अन्य उपजातियों के नामों का प्रयोग न केवल कानूनी जोखिम को कम करेगा, बल्कि समुदाय की गरिमा को भी बनाए रखेगा।
सामाजिक रूप से, यह बदलाव अनुसूचित जातियों के भीतर विविधता को स्वीकार करने और उनकी आत्म-पहचान के अधिकार को सम्मान देने की दिशा में एक कदम होगा। यह सामाजिक न्याय और समानता के व्यापक लक्ष्य को भी समर्थन देगा।
निष्कर्ष
“चमार” और “जाटव” शब्दों को लेकर चल रही बहस केवल नामकरण की बात नहीं है, बल्कि यह सम्मान, पहचान और सामाजिक समानता की लड़ाई का प्रतीक है। जहां कुछ लोग “चमार” शब्द को गर्व के साथ अपनाना चाहते हैं, वहीं अन्य इसके ऐतिहासिक बोझ से मुक्त होना चाहते हैं। उत्तर प्रदेश और पूरे भारत में जाति प्रमाण पत्रों में “जाटव” या अन्य उपजातियों के नामों को अपनाने की मांग इस समुदाय की विविध पहचान को मान्यता देने और भेदभाव को खत्म करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है।
जैसे-जैसे भारत जाति और सामाजिक न्याय के मुद्दों से जूझ रहा है, यह जरूरी है कि प्रशासनिक नीतियां नागरिकों की आकांक्षाओं और सम्मान के अनुरूप ढलें। इस दिशा में आगे बढ़ने के लिए संवाद, समझ और समानता के प्रति प्रतिबद्धता आवश्यक है।
(लेखक राजनीतिक और सामाजिक कार्यकर्ता है)
संदर्भ:
चमार समुदाय का ऐतिहासिक और सामाजिक परिप्रेक्ष्य सामान्य जानकारी और उपलब्ध तथ्यों पर आधारित है।
जाति प्रमाण पत्रों और अनुसूचित जाति सूची की जानकारी विभिन्न राज्यों के संदर्भ से ली गई है।
कानूनी पहलू अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 से प्रेरित हैं।
- Agra News: आईफोन के लिए दो नाबालिगों ने लूटी थी व्यापारी की सौ ग्राम वजनी सोने की चेन, दोनों पकड़े गये - July 12, 2025
- आगरा की नगमा बेगम हरियाणा के नूंह जिले से अरेस्ट, साइबर अपराधियों को उपलब्ध कराती थी फर्जी बैंक खाते और सिम कार्ड - July 12, 2025
- Agra News: दुकान का शटर तोड़कर 18 लाख के मोबाइल चोरी कर ले गए चोर, सीसीटीवी में कैद हुए शातिर - July 12, 2025