ब्रजगोपाल राय चंचल आज हमारे बीच नहीं रहे

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Mathura (Uttar Pradesh, India)। मथुरा।  ब्रजगोपाल राय चंचल आज हमारे बीच नहीं रहे। असमय ही इस प्रकार अचानक उनका चले जाना मन को बहुत व्यथित कर गये। लम्बे समय से मेरा उनका एक मित्र के रूप में एक भाई के रूप में सम्बन्ध रहा है। उम्र के हिसाब से वह मुझसे छोटे थे। परन्तु वह अपने गुणों के कारण मुझसे काफी बड़े थे। तमाम बड़ी बड़ी हस्तियों के साथ नजदीकी सम्बन्ध रखने बाले मृदुभाषी, विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में जैसे सरिता, मुक्ता, कादम्बिनी जैसी पत्रिकाओं में लम्बे समय तक काम करने वाले। पत्रकार, कहानीकार, साहित्यकार, नाटककार, के साथ-साथ अनेक विद्याओं में वह पारंगत थे। फोटो खींचने और खिचाने का भी बड़ा शौक था।

हमेशा मेरे घर आना काफी समय विताना व कुछ काम की वातें होती थीं। आर्थिक तंगी तथा पारिवारिक समस्याओं में उलझे रहते हुए भी हमेशा हंसी खुशी जीवन जीने बाले चंचल जी कभी भी किसी के सामने यह आभास नहीं होने देते थे। वर्ष 2018 में ही उनका रक्षाबन्धन के दिन मेरे घर आना और मेरे घर पर ही उनका स्वास्थ्य खराब होने पर उन्हें कोसीकलां भिजवाना। काफी तबियत खराब हुई थी और उस समय भी उनको एक अटेक आया था। फिर वह ठीक भी हो गये थे, वृन्दावन शोध संस्थान में उनसे जाकर अक्सर मिलता था। लॉकडाउन में भी वार्ता होती थी। अचानक फिर उनका स्वास्थ्य खराब हुआ। कोसी के एक निजी अस्पताल में उन्होंने अन्तिम सांस ली। वह आज हमारे बीच नहीं रहे अत्यन्त दुःखद घटना है। उनसे वातें हुई तो उन्होंने मुझे अपने बारे में कुछ बताया था। जिसे में यहां उनकी ओर से लिख रहा हूँ।

ब्रजगोपाल राय चंचल के अन्दर एक ’रचनाकार’ का जन्म दो परस्पर-विरोधी विचारों के बीच हुआ। माता-पिता कट्टर, मूर्तिपूजक, वैष्णव सम्प्रदायनुयायी बंगला भाषी ब्राहृम्ण थे और इनकी शिक्षा दीक्षा कठोर आर्यसमाजी विद्यालय में हुई। घर में बांगला बोली जाती थी, बचपन के मित्र ठेठ ब्रजभाषा बोलने वाले ब्रजवासी थे और शिक्षा-दीक्षा संस्कृत भाषा माध्यम से हुई। यानी गुरूकुल में कक्षा 4 से मैने पाणिनी की अष्टाध्यायी के सूत्रों को रहना शुरू किया और 8वीं में लघु सिद्वान्त कौमुदी को।

       उन्होंने बताया कि मॉं ने बंगला के क्रीर्तिवास रचित ’रामायण’ तथा काशीरामदास की ’महाभारत’ से परिचित कराया, तो शिक्षा-दीक्षा के दौरान कालिदास रचित रघुवंश और मेघदूत समेत तमाम संस्कृत के क्लासिक नाटक पढ़ डाले। कुछ कोर्स में, कुछ शौक मे। ब्रजभूमि वृंदावन में जन्म लेने के कारण रहीम, रसखान, बिहारी, पद्माकर, रत्नाकर की रचनाओं को न पढ़ने में दिक्कत होती थी, न समझने में। क्येंकि ये उस ब्रज भाषा में थीं, जिन्हें हम धाराप्रवाह यूॅ ही बोलते थे।

       श्री राय ने बताया कि कक्षा 6 से अंग्रेजी पढ़नी शुरू की, तो मजा यह रहा था अंग्रेजी के ’गुरूजी’ शेरो-शायरी के शौकीन निकले। उन्होने बचपन में ही हमें सैकड़ों शेर याद करा दिए थे। विद्यालय में मै ’सत्यार्थप्रकाश’ (कोर्स में) पढ़ा करता था, और घर में छिपकर जयदेव रचित ’गीत गोंविद! (यह पिताजी की निजी लाइब्रेरी में थी) मुझे पूरी संध्या – हवन (आर्य समाजी रीति) कंठस्थ थी, तो बॉके बिहारी की आरती भी। मॉ चैतन्य सम्प्रदाय में दीक्षित थी,ं सो बंगला भाषा में ’चैतन्य चरितामृत’ भी पढ़ डाला। बंगला भाषा का अक्षरज्ञान मॉं ने ही करा दिया था।

वह परिवार में अकेले थे, लाड़ले था, सो खूब पढ़ाई की, खूब आवारागर्दी भी! मॉ, फिल्मों की भी शौकिन थी सो बचपन में दारासिंह की ब्लैक एण्ड वहाईट फिल्में भी खूब देंखी। चैतन्य महाप्रभु और संत ज्ञानेश्वर फिल्मों की स्मृति तो आजतक रही हैं। तो, इस तरह मेरे उस अंतर्मन मे ंछिपे ’रचनाकार’ का विकास हुआ।

       बाद में, पिता के निधन के बाद, पढ़ाई छूट गई तो पत्रकारिता शुरू की। दिल्लीप्रेस में काम करना शुरू किया, तो धीरे-धीरे ’नास्तिष्क’ बनने लगा। कुछ समय दिल्ली के एक दिग्गज कांग्रेसी नेता स्व0 ब्रजमोहन जी की पत्रिका में उप संपादकी की, तो राजनीति का भी ’चस्का’ लगा। इस तरह तमाम नौकरियां करते, छोडते, राजनीति, फिल्म, टी0 वी0, सीरियल में हाथ आजमाते, नाकाम होते, थोड़ा सफल होते-होते जिन्दगी के 55 साल बिता दिए। शादी भी की। 2 बच्चे भी हुए। एक पुत्र व एक पुत्री।

       इन्ही परिस्थितियों में, कभी सुख में, कभी दुख में, कभी घोर संघर्ष में तो कभी सिर्फ पैसो के लिए- मैने कोई 100 से भी ज्यादा कहानियां लिखी। कुछेक को छोड़ दे तो ज्यादातर छपीं। छोटी, बड़ी, सरकारी गैर-सरकारी पत्रिकाओं में। अखबारों मे भी। कहानियों रेडियों पर भी प्रसारित हुई। लेकिन जीवन के इन वर्षों में ऐसा मौका कभी हाथ ही नहीं लगा, ज्यादात्तर कहानियों की पांडुलिपियां पत्रिकाओं/ अखबारों मे ही भेज दी गई थी। दूसरी ’प्रतिलिपि’ रखने को कभी सोचा नहीं। हां, छपी कहानियों के अंक उन दूसरी पत्र-पत्रिकाओं के विशालतम ढेर में दब गए, जिनमें मेरे पत्रकारिता के समय के सामाजिक-राजनीतिक लेख छपे थे, या जिनका मैने संम्पादन किया था। उस महाकाय ढेर मे से अपनी कहानियों को खोजना, उन्हे सुव्यवस्थित करना, छांटना, टाइपिंग कराना, प्रूफ पढ़ना, उन्हे आज के हिसाब से आवश्यक संपादित-संशोधित करना- यह मेरे लिए सदा से ही एक कठिन, दुष्कर सा कार्य रहा।

       बहुत बार सोचा, मित्रों से चर्चा की लेकिन कई बार आलस के कारण, तो कई बार मेहनत करने के डर से, तो कई बार सचमुच की व्यस्तताओं और निजी जीवन की अस्त- व्यस्तता के चलते यह सम्भव ही नही हो पाया। मजे की बात यह है कि इस बीच विभिन्न विषयों पर मेरी 8 किताबें लिखीं और छपी भी। लेकिन कहानी संग्रह का नम्बर नही आया। बहरहाल, 2014 में मैने यह तय किया कि एक कहानी संग्रह छापा जाय तो इन्द्रधनुष नाम से कहानी संग्रह को भी छपवा ही लिया।

मैं ब्रजगोपाल राय चंचल जी के अचानक चले जाने को पत्रकारिता के क्षेत्र में साहित्य के क्षेत्र में अपूर्णीय क्षति मानता हूँ। भगवान से उनकी आत्मा की शान्ति की प्रार्थना करता हूँ और उनके परिवार को इस दुःखद घड़ी को सहन करने की क्षमता प्रदान करें। ।।ओम शान्ति।।

Dr. Bhanu Pratap Singh