Birthday special: well-known writer Ayodhya Singh Upadhyay 'Hariodh'

जन्‍मदिन विशेष: साहित्‍यकार अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

साहित्य


उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ में जन्‍मे हिंदी के सुप्रसिद्ध साहित्‍यकार अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ का आज जन्‍मदिन है।
15 अप्रैल 1865 को जन्‍मे ‘हरिऔध’ की मृत्‍यु 16 मार्च 1947 को अपने गृह जनपद आजमगढ़ में ही हुई थी। वे 2 बार हिंदी साहित्य सम्मेलन के सभापति रहे और सम्मेलन द्वारा विद्या वाचस्पति की उपाधि से सम्मानित किये गए। प्रिय प्रवास हरिऔध जी का सबसे प्रसिद्ध और महत्वपूर्ण ग्रंथ है। यह हिंदी खड़ी बोली का मंगलाप्रसाद पारितोषिक पुरस्कार प्राप्त प्रथम महाकाव्य है।
हरिऔध जी का जन्म आजमगढ़ जिले के निजामाबाद नामक स्थान में हुआ। उनके पिता का नाम पंडित भोलानाथ उपाध्याय था। प्रारंभिक शिक्षा निजामाबाद एवं आजमगढ़ में हुई। पांच वर्ष की अवस्था में इनके चाचा ने इन्हें फारसी पढ़ाना शुरू कर दिया था।
हरिऔध जी निजामाबाद से मिडिल परीक्षा पास करने के पश्चात काशी के क्वींस कॉलेज में अंग्रेज़ी पढ़ने के लिए गए किन्तु स्वास्थ्य बिगड़ जाने के कारण उन्हें कॉलेज छोड़ना पड़ा। उन्होंने घर पर ही रह कर संस्कृत, उर्दू, फ़ारसी और अंग्रेजी आदि का अध्ययन किया और 1884 में निजामाबाद में इनका विवाह निर्मला कुमारी के साथ सम्पन्न हुआ।
सन् 1889 में हरिऔध जी को सरकारी नौकरी मिल गई। वे कानूनगो हो गए। इस पद से सन 1932 में अवकाश ग्रहण करने के बाद हरिऔध जी ने काशी हिंदू विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में अवैतनिक शिक्षक के रूप से कई वर्षों तक अध्यापन कार्य किया। सन 1941 तक वे इसी पद पर कार्य करते रहे। उसके बाद यह निजामाबाद वापस चले आए। इस अध्यापन कार्य से मुक्त होने के बाद हरिऔध जी अपने गाँव में रह कर ही साहित्य-सेवा कार्य करते रहे। अपनी साहित्य-सेवा के कारण हरिऔध जी ने काफी ख़्याति अर्जित की। हिंदी साहित्य सम्मेलन ने उन्हें एक बार सम्मेलन का सभापति बनाया और विद्यावाचस्पति की उपाधि से सम्मानित किया। सन् 1947 ई० में निजामाबाद में इनका देहावसान हो गया।
काव्यगत विशेषताएँ
वर्ण्य विषय- हरिऔध जी ने विविध विषयों पर काव्य रचना की है। यह उनकी विशेषता है कि उन्होंने कृष्ण-राधा, राम-सीता से संबंधित विषयों के साथ-साथ आधुनिक समस्याओं को भी लिया है और उन पर नवीन ढंग से अपने विचार प्रस्तुत किए हैं।
वियोग तथा वात्सल्य-वर्णन- प्रिय प्रवास में कृष्ण के मथुरा गमन तथा उसके बाद ब्रज की दशा का मार्मिक वर्णन है। कृष्ण के वियोग में सारा ब्रज दुखी है। राधा की स्थिति तो अकथनीय है। नंद यशोदा आदि बड़े व्याकुल हैं। पुत्र-वियोग में व्यथित यशोदा का करुण चित्र हरिऔध ने खींचा है, यह पाठक के ह्रदय को द्रवीभूत कर देता है।
हरिऔध जी ने ब्रजभाषा और खड़ी बोली दोनों में ही कविता की हैं किंतु उनकी अधिकांश रचनाएँ खड़ी बोली में ही हैं।
हरिऔध की भाषा प्रौढ़, प्रांजल और आकर्षक है। कहीं-कहीं उसमें उर्दू-फारसी के भी शब्द आ गए हैं। नवीन और अप्रचलित शब्दों का प्रयोग भी हुआ है। संस्कृत के तत्सम शब्दों का तो इतनी अधिकता है कि कहीं-कहीं उनकी कविता हिंदी की न होकर संस्कृत की सी ही प्रतीत होने लगती है।
हरिऔध जी ने गद्य और पद्य दोनों ही क्षेत्रों में हिंदी की सेवा की। वे द्विवेदी युग के प्रमुख कवि हैं।
-Legend News

Dr. Bhanu Pratap Singh