ट्रेन में ‘सब चंगा सी’, और एक ज़िन्दगी थम गई, सवालो के जवाब देगा कौन ?

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भारतीय रेल, देश की जीवन रेखा, आज एक बार फिर अपनी ‘आधुनिक’ सुविधाओं की पोल खोलती नज़र आई. तमिलनाडु के 83 वर्षीय कल्याण सुंदरम, एक सेवानिवृत्त सरकारी अधिकारी, दिल्ली जाने वाली ट्रेन में सफर कर रहे थे. सफर क्या, शायद मौत का सफर कहना ज़्यादा उचित होगा, क्योंकि आगरा कैंट स्टेशन पर उतरने से पहले ही उन्होंने दम तोड़ दिया. कारण? कथित तौर पर दिल का दौरा. लेकिन असल कारण क्या था? शायद भारतीय रेल की वो लचर व्यवस्था, जिसका ढोल पीटने में हम कभी पीछे नहीं हटते.

सवाल ये नहीं है कि दिल का दौरा क्यों पड़ा. सवाल ये है कि जब दर्द उठा, जब सांसे उखड़ने लगीं, तब वो कौन सी ‘अभूतपूर्व’ मेडिकल सुविधा थी जो हमारे रेलवे ने उपलब्ध कराई? जवाब है- कुछ नहीं! जी हाँ, कुछ भी नहीं. न डॉक्टर, न नर्स, न प्राथमिक उपचार, न शायद कोई बुनियादी फर्स्ट-एड किट. क्या अमृत काल में हम ऐसे ही विकसित भारत की कल्पना कर रहे हैं, जहाँ चलती ट्रेन में एक वरिष्ठ नागरिक को दर्द से तड़पते हुए मरने के लिए छोड़ दिया जाता है?

चलती ट्रेन, दम तोड़ती उम्मीदें और ‘लाचार’ रेलवे

मिली जानकारी के अनुसार, कल्याण सुंदरम दिल्ली जा रहे थे. रास्ते में उन्हें सीने में तेज़ दर्द हुआ. यात्री चिल्लाते रहे, शायद ट्रेन की चेन भी खींची गई होगी, लेकिन कौन सुनता है? रेलवे को तो सिर्फ़ वंदे भारत और बुलेट ट्रेन का हिसाब चाहिए, जहाँ एसी डिब्बों में मूंगफली के पैकेट बेचे जा सकें. इंसान की जान की क़ीमत, क्या वो भी अब रेलवे के रेवेन्यू मॉडल में फिट नहीं बैठती?

सहयात्रियों की चीख़ें, उनकी अपीलें हवा में घुलती रहीं. एक यात्री ने तो साफ़-साफ़ कहा, “हमने बार-बार चेन पुल कर मदद मांगी लेकिन कोई डॉक्टर या मेडिकल स्टाफ नहीं आया.” ये सिर्फ़ एक यात्री की शिकायत नहीं है, ये देश के लाखों रेल यात्रियों का वो अनुभव है जो हर रोज़ रेलवे की इस ‘अव्यवस्था’ से गुज़रते हैं. क्या हमें सच में ये मानना चाहिए कि एक ट्रेन में, जहाँ सैकड़ों लोग यात्रा करते हैं, वहाँ एक साधारण पैरामेडिक भी नहीं होता? या फिर रेलवे के लिए सिर्फ़ टिकट बेचना और अपने आंकड़ों को बढ़ाना ही विकास है, इंसान की जान नहीं?

जब ट्रेन आगरा कैंट स्टेशन पहुंची, तब तक बहुत देर हो चुकी थी. रेलवे के अधिकारी, जो शायद अपने दफ्तरों में चाय पी रहे होंगे, तब जाकर उन्हें ट्रेन से उतारते हैं. और फिर वही घिसी-पिटी कहानी

– जीआरपी ने शव को क़ब्ज़े में लिया, पोस्टमार्टम के लिए भेजा, परिवार को सूचना दी गई. ये सब तो तब की बात है जब सब ख़त्म हो चुका होता है. क्या रेलवे के पास ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है कि चलती ट्रेन में किसी को मेडिकल इमरजेंसी हो तो अगले स्टेशन पर तत्काल एम्बुलेंस या मेडिकल टीम तैयार रहे? या फिर स्टेशन सिर्फ़ यात्रियों को चढ़ाने-उतारने के लिए हैं, अस्पताल का छोटा-मोटा संस्करण बनने के लिए नहीं?

रेलवे प्रशासन ने इस घटना को “अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण” बताया है. हमेशा की तरह, जांच के आदेश दे दिए गए हैं और “भविष्य में ऐसी घटनाओं को रोकने के लिए व्यवस्था सुधारने का आश्वासन” भी दिया गया है. ये आश्वासन सुनने में कितने खोखले लगते हैं, ये हम सब जानते हैं. जब तक ऐसी किसी घटना पर हंगामा नहीं होता, तब तक रेलवे प्रशासन नींद में सोता रहता है. क्या ऐसे ही हम 2047 तक विकसित राष्ट्र बनेंगे, जहाँ बुनियादी स्वास्थ्य सुविधाएं भी जनता को नसीब नहीं होंगी?

सवाल कई हैं, जवाब कौन देगा ?

क्या भारतीय रेलवे के पास वाकई कोई प्राथमिक उपचार किट भी नहीं है, जो एक जीवन बचा सके?

क्या हमारे स्टेशनों पर इमरजेंसी रिस्पॉन्स टीम सिर्फ़ कागज़ों पर मौजूद है?

क्या ट्रेन में सफर करने वाले यात्रियों की जान की कोई क़ीमत नहीं है?

क्या सिर्फ़ पटरियां बिछाना और नई ट्रेनें चलाना ही विकास है, और यात्रियों की सुरक्षा और स्वास्थ्य नहीं?

ये सवाल आज कल्याण सुंदरम की मौत के बाद उठे हैं, लेकिन ये सवाल हर उस भारतीय के मन में उठते हैं जो इस देश की ट्रेनों में सफर करता है. उम्मीद है कि रेलवे प्रशासन अपनी जांच रिपोर्ट के साथ कुछ ठोस कदम भी उठाएगा, या फिर अगले किसी दुर्भाग्यपूर्ण वाकये का इंतज़ार करेगा. तब तक, सब चंगा सी!

-मोहम्मद शाहिद की कलम से

Dr. Bhanu Pratap Singh