पुण्‍यतिथि: कश्मीरी पंडित थे उर्दू और फ़ारसी के शायर अल्‍लामा इक़बाल

पुण्‍यतिथि: कश्मीरी पंडित थे उर्दू और फ़ारसी के शायर अल्‍लामा इक़बाल

साहित्य


उर्दू और फ़ारसी के शायर और कवि अल्‍लामा इक़बाल का इंतकाल 1938 में आज के ही दिन अविभाजित भारत के लाहौर में हुआ था। 09 नवंबर 1877 को सियालकोट में जन्‍मे अल्‍लामा इक़बाल मुहम्मद इक़बाल मसऊदी था।
इक़बाल के दादा सहज सप्रू हिंदू कश्मीरी पंडित थे जो बाद में सिआलकोट आ गए। इनकी प्रमुख रचनाएं हैं: असरार-ए-ख़ुदी, रुमुज़-ए-बेख़ुदी और बंग-ए-दारा, जिसमें देशभक्तिपूर्ण तराना-ए-हिन्द (सारे जहाँ से अच्छा) शामिल है। फ़ारसी में लिखी इनकी शायरी ईरान और अफ़ग़ानिस्तान में बहुत प्रसिद्ध है, जहाँ इन्हें इक़बाल-ए-लाहौर कहा जाता है। इन्होंने इस्लाम के धार्मिक और राजनैतिक दर्शन पर भी काफ़ी लिखा है।
तराना-ए-मिल्ली या समुदाय का गान एक उत्साही कविता है जिसमें अल्लामा मोहम्मद इक़बाल मसऊदी ने मुस्लिम उम्माह (इस्लामिक राष्ट्रों) को श्रद्धांजलि दी और कहा कि इस्लाम में राष्ट्रवाद का समर्थन नहीं किया गया है। उन्होंने दुनिया में कहीं भी रह रहे सभी मुसलमानों को एक ही राष्ट्र के हिस्से के रूप में मान्यता दी, जिसके नेता मुहम्मद हैं जो मुसलमानों के पैगंबर है।
इक़बाल मसऊदी ने हिन्दोस्तान की आज़ादी से पहले “तराना-ए-हिन्द” लिखा था, जिसके प्रारंभिक बोल “सारे जहाँ से अच्छा, हिन्दोस्तां हमारा” थे। उस समय वो इस सामूहिक देशभक्ति गीत से अविभाजित हिंदुस्तान के लोगों को एक रहने की नसीहत देते थे और और वो इस गीत के कुछ अंश में सभी धर्मों के लोगों को ‘हिंदी है हम वतन है’ कहकर देशभक्ति और राष्ट्रवाद की प्रेरणा देते हैं।
उन्होंने पाकिस्तान के लिए “तराना-ए-मिली” (मुस्लिम समुदाय के लिए गीत) लिखा, जिसके बोल “चीन-ओ-अरब हमारा, हिन्दोस्तां हमारा; मुस्लिम है वतन है, सारा जहाँ हमारा…”
कुछ इस तरह से है। यह उनके ‘मुस्लिम लीग’ और “पाकिस्तान आंदोलन” के समर्थक होने को दर्शाता है।
अल्‍लामा इक़बाल को पाकिस्तान में राष्ट्रकवि माना जाता है।
अल्लामा इक़बाल की पांच श्रेष्ठ रचनाएं
1. सारे जहाँ से अच्छा, हिन्दोस्ताँ हमारा
हम बुलबुलें हैं इसकी, यह गुलिस्ताँ हमारा

ग़ुरबत में हों अगर हम, रहता है दिल वतन में
समझो वहीं हमें भी, दिल हो जहाँ हमारा

परबत वो सबसे ऊँचा, हमसाया आसमाँ का
वो संतरी हमारा, वो पासबाँ हमारा

गोदी में खेलती हैं, जिसकी हज़ारों नदियाँ
गुलशन है जिसके दम से, रश्क-ए-जिनाँ हमारा

ऐ आब-ए-रूद-ए-गंगा! वो दिन है याद तुझको
उतरा तेरे किनारे, जब कारवाँ हमारा

मज़हब नहीं सिखाता, आपस में बैर रखना
हिन्दी हैं हम, वतन है हिन्दोस्ताँ हमारा

यूनान-ओ-मिस्र-ओ- रोमा, सब मिट गए जहाँ से
अब तक मगर है बाकी, नाम-ओ-निशाँ हमारा

कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी
सदियों रहा है दुश्मन, दौर-ए-जहाँ हमारा

‘इक़बाल’ कोई महरम, अपना नहीं जहाँ में
मालूम क्या किसी को, दर्द-ए-निहाँ हमारा

सारे जहाँ से अच्छा, हिन्दोस्ताँ हमारा
हम बुलबुलें हैं इसकी, यह गुलिसताँ हमारा

2. ला फिर इक बार वही बादा ओ जाम ऐ साक़ी
हाथ आ जाए मुझे मेरा मक़ाम ऐ साक़ी

तीन सौ साल से हैं हिन्द के मय-ख़ाने बंद
अब मुनासिब है तिरा फ़ैज़ हो आम ऐ साक़ी

मेरी मीना-ए-ग़ज़ल में थी ज़रा सी बाक़ी
शेख़ कहता है कि है ये भी हराम ऐ साक़ी

शेर मर्दों से हुआ बेश-ए-तहक़ीक़ तही
रह गए सूफ़ी ओ मुल्ला के ग़ुलाम ऐ साक़ी

इश्क़ की तेग़-ए-जिगर-दार उड़ा ली किस ने
इल्म के हाथ में ख़ाली है नियाम ऐ साक़ी

सीना रौशन हो तो है सोज़-ए-सुख़न ऐन-ए-हयात
हो न रौशन तो सुख़न मर्ग-ए-दवाम ऐ साक़ी

तू मिरी रात को महताब से महरूम न रख
तिरे पैमाने में है माह-ए-तमाम ऐ साक़ी

3. न आते हमें इस में तकरार क्या थी
मगर वा’दा करते हुए आर क्या थी

तुम्हारे पयामी ने सब राज़ खोला
ख़ता इस में बंदे की सरकार क्या थी

भरी बज़्म में अपने आशिक़ को ताड़ा
तिरी आँख मस्ती में हुश्यार क्या थी

तअम्मुल तो था उन को आने में क़ासिद
मगर ये बता तर्ज़-ए-इंकार क्या थी

खिंचे ख़ुद-बख़ुद जानिब-ए-तूर मूसा
कशिश तेरी ऐ शौक़-ए-दीदार क्या थी

कहीं ज़िक्र रहता है ‘इक़बाल’ तेरा
फ़ुसूँ था कोई तेरी गुफ़्तार क्या थी

4. जुगनू की रौशनी है काशाना-ए-चमन में
या शम्अ’ जल रही है फूलों की अंजुमन में

आया है आसमाँ से उड़ कर कोई सितारा
या जान पड़ गई है महताब की किरन में

या शब की सल्तनत में दिन का सफ़ीर आया
ग़ुर्बत में आ के चमका गुमनाम था वतन में

तक्मा कोई गिरा है महताब की क़बा का
ज़र्रा है या नुमायाँ सूरज के पैरहन में

हुस्न-ए-क़दीम की इक पोशीदा ये झलक थी
ले आई जिस को क़ुदरत ख़ल्वत से अंजुमन में

छोटे से चाँद में है ज़ुल्मत भी रौशनी भी
निकला कभी गहन से आया कभी गहन में

5. सितारों से आगे जहाँ और भी हैं
अभी इश्क़ के इम्तिहाँ और भी हैं

तही ज़िंदगी से नहीं ये फ़ज़ाएँ
यहाँ सैकड़ों कारवाँ और भी हैं

क़नाअत न कर आलम-ए-रंग-ओ-बू पर
चमन और भी आशियाँ और भी हैं

अगर खो गया इक नशेमन तो क्या ग़म
मक़ामात-ए-आह-ओ-फ़ुग़ाँ और भी हैं

तू शाहीं है परवाज़ है काम तेरा
तिरे सामने आसमाँ और भी हैं

इसी रोज़ ओ शब में उलझ कर न रह जा
कि तेरे ज़मान ओ मकाँ और भी हैं

गए दिन कि तन्हा था मैं अंजुमन में
यहाँ अब मिरे राज़-दाँ और भी हैं
-Legend News

Dr. Bhanu Pratap Singh