भारत, जहां सांस्कृतिक और सामाजिक विविधता अपनी अमिट छाप छोड़ती है, वहां जाति और पहचान के प्रश्न हमेशा से गहन संवेदनशीलता के साथ उभरते रहे हैं। उत्तर प्रदेश, जो सामाजिक परिवर्तन और जागरूकता का केंद्र रहा है, आज एक ऐतिहासिक बदलाव की ओर अग्रसर है। भारतीय जाटव समाज के राष्ट्रीय अध्यक्ष श्री उपेंद्र सिंह ने अपनी दृढ़ निष्ठा और सामाजिक सम्मान की भावना के साथ, जाति प्रमाण पत्रों में “चमार” शब्द को हटाकर “जाटव” शब्द को अपनाने की मांग उठाई है। यह मांग केवल शब्दों का परिवर्तन नहीं, बल्कि सामाजिक गरिमा, स्वाभिमान और पहचान की पुनर्स्थापना का संकल्प है।
ऐतिहासिक बोझ से मुक्ति की ओर
“चमार” शब्द, जो संस्कृत के “चर्मकार” से उत्पन्न हुआ, कभी चमड़े के कार्य से जुड़े पेशे को दर्शाता था। किंतु समय के साथ यह शब्द सामाजिक भेदभाव और अपमान का प्रतीक बन गया। उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल क्षेत्र में जाटव, दोहरे, अहिरवार, शंखवार, कुरील और रविदास जैसे उपजातीय समुदायों को सामान्यतः “चमार” के नाम से संबोधित किया जाता रहा है। यह संबोधन न केवल उनकी विविध पहचान को धूमिल करता है, बल्कि सामाजिक तिरस्कार को भी बढ़ावा देता है। अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 के तहत इस शब्द का अपमानजनक प्रयोग दंडनीय है, फिर भी आधिकारिक दस्तावेजों में इसका उपयोग एक विरोधाभास के रूप में बना हुआ है। श्री उपेंद्र सिंह की मांग इस ऐतिहासिक बोझ से मुक्ति और एक सम्मानजनक पहचान की स्थापना का प्रयास है।
आगरा से उठी स्वाभिमान की आवाज
आगरा, जो जाटव समाज की सांस्कृतिक और ऐतिहासिक उत्पत्ति का केंद्र माना जाता है, आज सामाजिक परिवर्तन की एक नयी लहर का साक्षी बन रहा है। भारतीय जाटव समाज के राष्ट्रीय अध्यक्ष श्री उपेंद्र सिंह ने उत्तर प्रदेश सरकार के दो मंत्रियों—समाज कल्याण राज्य मंत्री श्री असीम अरुण और जल शक्ति मंत्री श्री स्वतंत्र देव सिंह—से भेंट कर यह मांग दृढ़ता से रखी। उन्होंने छत्तीसगढ़ सरकार के शासनादेश का उदाहरण प्रस्तुत किया, जहां “चमार” शब्द को जाति प्रमाण पत्रों से हटा दिया गया है। दोनों मंत्रियों ने इस मुद्दे पर सकारात्मक रुख अपनाया और मुख्यमंत्री श्री योगी आदित्यनाथ से चर्चा करने का आश्वासन दिया। यह भेंट न केवल एक प्रशासनिक पहल है, बल्कि जाटव समाज की एकजुटता और स्वाभिमान की पुकार का प्रतीक है।
श्री उपेंद्र सिंह ने इस उदाहरण को उत्तर प्रदेश के समक्ष रखकर एक ऐसी व्यवस्था की मांग की है, जो जाटव समाज की गरिमा को संरक्षित करे। उत्तर प्रदेश, जो दलित आंदोलनों का गढ़ रहा है, को इस दिशा में छत्तीसगढ़ से प्रेरणा लेकर एक नया मानक स्थापित कर सकता है।
राष्ट्रीय आंदोलन की ओर अग्रसर
श्री उपेंद्र सिंह ने स्पष्ट किया कि यह मांग केवल उत्तर प्रदेश तक सीमित नहीं रहेगी। वे इस मुद्दे को राष्ट्रीय स्तर पर ले जाने के लिए आंदोलन शुरू करने की योजना बना रहे हैं। यह घोषणा दर्शाती है कि उनकी दृष्टि केवल स्थानीय सुधार तक सीमित नहीं, बल्कि पूरे देश में जाटव समाज की एक सम्मानजनक पहचान स्थापित करने की है। आगरा, जहां से “जाटव” शब्द की उत्पत्ति मानी जाती है, इस आंदोलन का प्रारंभिक बिंदु बन सकता है। यह प्रयास न केवल जाटव समाज के लिए, बल्कि समस्त अनुसूचित जातियों के लिए एक नयी प्रेरणा का स्रोत बनेगा।
कानूनी और सामाजिक आयाम
जाति प्रमाण पत्र अनुसूचित जातियों के लिए एक महत्वपूर्ण दस्तावेज है, जो उन्हें शिक्षा, नौकरी और सरकारी योजनाओं में आरक्षण जैसे लाभ प्रदान करता है। किंतु जब इस दस्तावेज में “चमार” जैसे शब्द का प्रयोग होता है, जो सामाजिक अपमान से जुड़ा है, तो यह समुदाय की गरिमा पर आघात करता है। अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 के तहत इस शब्द का अपमानजनक प्रयोग दंडनीय है। ऐसे में, आधिकारिक दस्तावेजों में इसका उपयोग एक गंभीर विसंगति है। “जाटव” शब्द का प्रयोग न केवल कानूनी जोखिम को कम करेगा, बल्कि सामाजिक समानता और सम्मान को भी बढ़ावा देगा।
नयी पीढ़ी का स्वाभिमान
जाटव समाज की नयी पीढ़ी इस मुद्दे पर मुखर है। वे “चमार” शब्द को अपमानजनक और अपनी सांस्कृतिक पहचान के लिए अनुपयुक्त मानते हैं। यह पीढ़ी, जो शिक्षा और जागरूकता के बल पर अपने अधिकारों के लिए संघर्षरत है, “जाटव” के रूप में अपनी पहचान को स्थापित करना चाहती है। श्री उपेंद्र सिंह का नेतृत्व इस नयी पीढ़ी की आकांक्षाओं को एक मंच प्रदान कर रहा है। यह मांग केवल शब्द परिवर्तन की नहीं, बल्कि आत्म-सम्मान और सामाजिक स्वीकार्यता की खोज है।
संपादकीय: उपेंद्र सिंह की पहल—एक प्रेरणादायी संकल्प
भारतीय जाटव समाज के राष्ट्रीय अध्यक्ष श्री उपेंद्र सिंह की यह पहल भारतीय समाज में एक ऐतिहासिक परिवर्तन की नींव रख रही है। उनकी दृढ़ता, दूरदर्शिता और सामाजिक न्याय के प्रति समर्पण न केवल जाटव समाज, बल्कि समस्त अनुसूचित जातियों के लिए एक प्रेरणा स्रोत है। आगरा से शुरू हुआ यह आंदोलन, जो अब राष्ट्रीय स्तर पर अपनी गूंज बुलंद करने को तैयार है, सामाजिक सम्मान और स्वाभिमान की एक नयी परिभाषा गढ़ रहा है।
उनका यह प्रयास कि “चमार” शब्द को जाति प्रमाण पत्रों से हटाकर “जाटव” शब्द को अपनाया जाए, केवल एक प्रशासनिक सुधार नहीं, बल्कि सामाजिक क्रांति का प्रतीक है। छत्तीसगढ़ के शासनादेश को उदाहरण के रूप में प्रस्तुत कर उन्होंने यह सिद्ध किया कि परिवर्तन संभव है। दोनों मंत्रियों—श्री असीम अरुण और श्री स्वतंत्र देव सिंह—द्वारा दिए गए सकारात्मक आश्वासन इस दिशा में एक आशाजनक शुरुआत हैं। हम आशा करते हैं कि मुख्यमंत्री श्री योगी आदित्यनाथ इस मांग पर गंभीरता से विचार करेंगे और उत्तर प्रदेश को सामाजिक समानता की दिशा में एक नया मॉडल बनाएंगे।
श्री उपेंद्र सिंह का यह साहसिक कदम दर्शाता है कि नेतृत्व केवल सत्ता का प्रतीक नहीं, बल्कि सामाजिक परिवर्तन का वाहक भी हो सकता है। उनकी यह पहल नयी पीढ़ी को अपनी पहचान पर गर्व करने और सामाजिक भेदभाव के खिलाफ एकजुट होने का संदेश देती है। हम उनकी इस निस्वार्थ और साहसिक पहल को हृदय से सराहते हैं और आशा करते हैं कि यह प्रयास न केवल जाटव समाज, बल्कि पूरे भारत में सामाजिक समावेश और सम्मान की एक नयी लहर लाएगा।यह समय है कि हम सब मिलकर एक ऐसे समाज का निर्माण करें, जहां हर व्यक्ति की पहचान उसकी गरिमा और योगदान से परिभाषित हो, न कि ऐतिहासिक भेदभाव से।
श्री उपेंद्र सिंह की यह पुकार उस भारत की पुकार है, जो समानता और स्वाभिमान के सपने को साकार करना चाहता है।
डॉ भानु प्रताप सिंह
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