फिल्म ‘द कश्मीर फाइल्स’ से 1980-90 के दशक में कश्मीरी पंडितों पर अत्याचार एवं उनके पलायन के पीछे की साजिशों को पर्दा उठाया गया है और इस बर्बरता के पीछे कई किरदारों का चेहरा उजागर हुआ है। इसी कड़ी में तत्कालीन मुख्यमंत्री फारूक अब्दुल्ला की भूमिका पर भी गहरे सवाल खड़े हो रहे हैं। 1989 में कश्मीरी पंडितों के पलायन के वक्त कश्मीर में तैनात रहे नौकरशाह फारूक रेंजू शाह ने भी फारूक की मंशा पर गंभीर सवाल खड़े कर दिए हैं। उन्होंने न्यूज़ चैनल टाइम्स नाउ नवभारत के एक कार्यक्रम में साफ-साफ कहा कि अगर तत्कालीन मुख्यमंत्री फारूक अब्दुल्ला चाहते तो कश्मीरी पंडितों का नरसंहार रुक सकता था।
उधर, बीजेपी आईटी सेल के अध्यक्ष अमित मालवीय ने भी जम्मू-कश्मीर शरणार्थी अचल संपत्ति कानून में दर्ज तारीख का हवाला देकर पूछा है कि आखिर 79 दिनों तक मुख्यमंत्री फारूक अब्दुल्ला ने क्या किया था?
फारूक अब्दुल्ला चाहते तो रुक सकता था अत्याचार
जब शाह से पूछा गया कि अगर मुख्यमंत्री फारूक अब्दुल्ला चाहते तो क्या कश्मीरी पंडितों पर अत्याचार और उनका पलायन रोका जा सकता था?
उन्होंने कहा… ‘हां-हां, बिल्कुल रुक सकता था।’ वो बोले, ‘पिछले 700 साल से कश्मीर मुसलमानों और पंडितों के बीच जबर्दस्त तालमेल और दोस्ती रही लेकिन उसे जहरीले बयानों से तार-तार कर दिया गया।’ उन्होंने दो दिनों पहले पूर्व डीजीपी डॉ. वैद के एक बयान का हवाला देकर कहते हैं कि 1989 में पाकिस्तान से प्रशिक्षित 70 आतंकियों को घाटी में उतारा गया था। वो कहते हैं, ‘दो दिन पहले डॉ. वैद ने कहा कि 70 प्रशिक्षित आतंकवादियों को एक गुप्त गलियारे से लाकर राजनीतिक संरक्षण में रखा गया। फिर उन्हें आम लोगों के बीच भेज दिया गया। वो 70 प्रशिक्षित आतंकी कौन थे?’
उन 70 प्रशिक्षित आतंकियों को लाया किसने था?
वो कहते हैं कि हमें यही पता था कि पांच-छह आतंकी ही थे जिन्हें रूबिया सईद की फिरौती में छोड़ा गया था। इन्हीं पांच-छह आतंकियों ने घाटी को बर्बाद कर दिया, लेकिन यह झूठ है। वहां पाकिस्तान में प्रशिक्षित 70 आतंकियों को लाया गया। शाह कहते हैं, ‘मैंने देखा कि आतंकियों ने टिकलाल टपलू को मारा तब कोई एक्शन नहीं हुआ, कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई। ऐसा लगा कि मानो कुछ हुआ ही नहीं। उसके बाद आतंकियों ने मकबूल बट्ट को फांसी की सजा सुनाने वाले जज को मार दिया गया।’
अल सफा अखबार में किसने छपवायी थी धमकी?
पूर्व नौकरशाह का दावा है कि घाटी में हर मुसलमान कश्मीरी पंडितों का दुश्मन नहीं था, और उन पर हुए अत्याचार के लिए सभी मुसलमान को दोषी बताना गलत है। उनका कहना है कि कश्मीरी पंडितों के साथ जो कुछ भी हुआ, उसके लिए वहां की सियासी साजिश जिम्मेदार है। शाह ने कहा, ‘हर कश्मीरी मुसलमान ने अत्याचार नहीं किया। एक टोले ने किया, जिसके नियंत्रण में अल सफा अखबार था। उसने अल सफा के पहले पन्ने पर बैनर न्यूज़ लगाया गया कि 48 से 72 घंटे के अंदर तमाम कश्मीरी पंडित निकल जाएं वरना मारे जाएंगे। अल सफा का चीफ एडिटर बाद में मारा गया।’ अल सफा में धमकी छपने के बाद ही कश्मीरी पंडित रातों-रात सब-कुछ छोड़कर भागने लगे थे। शाह आगे कहते हैं, ‘जो शख्स इस अखबार को कंट्रोल कर रहा था, वह 98 हजार वोट लाकर संसद पहुंच गया। उसने प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार गिरा दी।’
1998 में वाजपेयी सरकार के गिरने की तरफ इशारा
शाह का इशारा 1998 में वाजपेयी सरकार के एक वोट से विश्वास मत हारने की तरफ है। तब फारूक अब्दुल्ला की पार्टी नेशनल कॉन्फ्रेंस के सांसद सैफुद्दीन सोज ने पार्टी लाइन से हटकर विश्वास मत के विरोध में वोट डाल दिया और वाजेपेयी का सरकार एक वोट से गिर गई। बाद में सैफुद्दीन सोज कांग्रेस पार्टी में शामिल हो गए थे। ध्यान रहे कि 1998 की वाजपेयी सरकार में नेशनल कॉन्फ्रेंस बीजेपी की अगुवाई वाले राष्ट्रीय लोकतांत्रिक गठबंधन (NDA) का हिस्सा थी और उमर अब्दुल्ला केंद्र में मंत्री थे।
अमित मालवीय ने भी पूछा सवाल
बीजेपी आईटी सेल के प्रमुख अमित मालवीय ने भी एक दस्तावेज के जरिए फारूक अब्दुल्ला को कठघरे में खड़ा किया है। उन्होंने जेएंडके माइग्रेंट इमूवेबल प्रॉपर्टी एक्ट के पहले पन्ने को ट्वीट कर कहा कि उमर अब्दुल्ला अपने पिता फारूक अब्दुल्ला का दामन पाक-साफ होने का दावा कर रहे हैं जो सरासर झूठ है। वो लिखते हैं, ‘उमर ने पिता फारूक अब्दुल्ला को नरसंहार का जिम्मेदार नहीं माना है जो पूरी तरह झूठ है। यहां जम्मू-कश्मीर शरणार्थी अचल संपत्ति कानून है जिसे फारूक अब्दुल्ला ही लाए थे। इसमें माना गया है कि 1 नवंबर 1989 से कश्मीरी पंडितों का सामूहिक पलायन शुरू हो गया था।’ मालवीय ने पूछा कि फारूक अब्दुल्ला ने 18 जनवरी 1990 को मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दिया है तो इस बीच के 79 दिनों तक उन्होंने कश्मीरी पंडितों के संरक्षण के लिए क्या किया?
-एजेंसियां
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