विरह-व्यथा को संगीत में ढाल कर रख देता है पूर्वांचल का ‘बिरहा’

विरह-व्यथा को संगीत में ढाल कर रख देता है पूर्वांचल का ‘बिरहा’

साहित्य


भोजपुरी स्टार दिनेश लाल यादव निरहुआ फ‍िल्मों में आने से पहले ब‍िरहा गायन क‍िया करते थे, उनके पर‍िवारीजन भी इस शैली का गायन करते थे। दरअसल विरह-व्यथा से व्याकुल नायिका ज‍िस छंदबद्ध तरीके से लोकगीतों में स्वयं को ढाल कर अभिव्यक्त करती है, नायिका की विरह-व्यथा का प्रकटीकरण को उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल क्षेत्र में ‘बिरहा’ नाम से पहचाना जाता है।

भारतीय लोक संगीत में अनेक ऐसी शैलियाँ प्रचलित हैं, जिनमें नायक से बिछड़ जाने या नायक से लम्बे समय तक दूर होने की स्थिति में  देश के प्रायः प्रत्येक क्षेत्र में नायिका की विरह-व्यथा का प्रकटीकरण करते गीत बहुतेरे हैं, परन्तु विरह-पीड़ित नायक की अभिव्यक्ति देने वाले लोकगीत बहुत कम मिलते हैं।

बिरहा अहीरों का जातीय लोकगीत है। लोकगीतों में इसका स्थान उसी तरह महत्त्वपूर्ण है, जिस तरह संस्कृत में ‘द्विपदी’, प्राकृत में ‘गाथा’ और हिन्दी में ‘बरवै’ का है। यह दो कड़ियों की रचना है। जब एक पक्ष अपनी बात कह लेता है तो दूसरा पक्ष उसी छन्द में उत्तर देता है। मात्राओं की संख्या इसमें सीमित नहीं होतीं। गाने वाले की धुनकर मात्राएँ घट-बढ़ जाती हैं।

उन्नीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में मिलते हैं। ब्रिटिश शासनकाल में ग्रामीण क्षेत्रों से पलायन कर महानगरों में मजदूरी करने की प्रवृत्ति बढ़ गयी थी। ऐसे श्रमिकों को रोजी-रोटी के लिए लम्बी अवधि तक अपने घर-परिवार से दूर रहना पड़ता था। दिन भर के कठोर श्रम के बाद रात्रि में छोटे-छोटे समूह में यह लोग इसी लोक-विधा के गीतों का ऊँचे स्वरों में गायन किया करते थे। लगभग 55 वर्ष पहले वाराणसी के ठठेरी बाज़ार, चौखम्भा आदि व्यावसायिक क्षेत्रों में श्रमिकों को बिरहा गायन करते हुए देखा-सुना जाता था।

‘बिरहा’ की उत्पत्ति के सम्बन्ध में भोजपुरी बिरहा की प्रेम और विरह की उपयुक्त व्यंजना के लिए सार्थक लोक छन्द है। विप्रलम्भ श्रृंगार को अधिकांश बिरहा में स्थान प्राप्त है। कहते हैं, इसका जन्म भोजपुर प्रदेश में हुआ। गड़रिये, पासी, धोबी, अहीर और अन्य चरवाह जातियाँ कभी-कभी होड़ बदकर रातभर बिरहा गाती हैं

पर्वों-त्योहारों अथवा मांगलिक अवसरों पर बिरहा गायन की परम्परा रही है। किसी विशेष पर्व पर मन्दिर के परिसरों में बिरहा दंगल का प्रचलन भी है। बिरहा के दंगली स्वरूप में गायकों की दो टोलियाँ होती है और वे बारी-बारी से बिरहा गीतों का गायन करते हैं। ऐसी प्रस्तुतियों में गायक दल परस्पर सवाल-जवाब और एक-दूसरे पर कटाक्ष भी करते हैं। इस प्रकार के गायन में आशुसर्जित लोक-गीतकार को प्रमुख स्थान मिलता है। बिरहा के अखाड़े (गुरु घराना) भी होते है। विभिन्न अखाड़ों के बीच स्वस्थ प्रतिस्पर्धा का भाव रहता है। लगभग पाँच दशक पहले एक ऐसे ही अखाड़े के गुरु पत्तू सरदार भी थे। वह बिरहा-गीतों के अनूठे रचनाकार और गायक थे। उनके अखाड़े के सैकड़ों शिष्य थे, जिन्हें समाज में लोक गायक के रूप में भरपूर सम्मान प्राप्त था। गुरु पत्तू सरदार निरक्षर थे।

-Legend News

Dr. Bhanu Pratap Singh