Mathura (Uttar Pradesh, India)। मथुरा, वृन्दावन । रसिक अनन्य नृपति स्वामी हरिदास के लड़ेते ठाकुर बांकेबिहारी लाल के 515 वें प्राकट्योत्सव पर झूमने के लिये कान्हा की नगरी तैयार है। बाँके की प्राक्टयस्थली निधिराज को दुल्हन की तरह सजाया जा रहा है।
बांकेबिहारी जी महाराज के दर्शनों की अभिलाषा हर वैष्णव भक्त को रहती है
श्री प्रियाप्रियतम जू की पावन लीलास्थली को कालांतर में पहचान दिलाने में भक्तिस्वरूप वृन्दावन हरित्रय स्वामी हरिदास, हित हरिवंश व स्वामी हरिराम व्यास की महती भूमिका रही है। यूं तो इस अलौकिक लीलाभूमि को देश देशांतर के अनेकों सिद्ध संतों ने अपनी साधनास्थली बनाया है। लेकिन साहित्यकार हरित्रय संतों को सर्वोपरि मानते है। वर्तमान में वैश्विक पटल पर ठाकुर बांकेबिहारी जी महाराज के दर्शनों की अभिलाषा हर वैष्णव भक्त को रहती है।
लता पताकाओं से आच्छादित वनस्थली को स्वामी जी ने अपनी साधनास्थली बनाया
जो भक्तिसमाज को स्वामी हरिदास जी की अनुपम देन है। संवत 1535 में सारस्वत ब्राह्मण कुल में जन्मे स्वामी हरिदास अल्पावस्था में ही विरक्त होकर ब्रजवृन्दावन की पवित्र धरा पर आ पहुंचे। अविरल यमुना के तट पर घनी लता पताकाओं से आच्छादित वनस्थली को स्वामी जी ने अपनी साधनास्थली बनाया। स्वामी हरिदास जी स्वरलहरियों के मानो विशेषज्ञ थे। सम्राट अकबर के नवरत्नों में शुमार संगीतज्ञ तानसेन और बैजू बाबरा स्वामी जी की संगीतकला के साधक थे। कथाओं में वर्णित है कि स्वामी जी की संगीत साधना की ख्याति सुनकर स्वयं सम्राट अकबर नंगे पैर उनके दर्शनमात्र के लिए उनकी कुटिया तक पहुंचा था। साहित्यकार लिखते है कि जब स्वामी जी एकाग्रचित्त होकर अपने तानपुरे पर राग छेड़ते थे। तो प्रियाप्रियतम जू उन स्वरलहरियों का रसास्वादन करने को प्रकट हो जाते थे। अपने प्रिय शिष्य के हठ पर स्वामी जी ने युगलजोड़ी सरकार को अपनी संगीत साधना के माध्यम से जैसे ही पद “माई री सहज प्रकट भई जोरी री” के गायन से रिझाकर एक प्रकाशपुंज के रूप में प्रकट किया जो वर्तमान में एक प्रतिमा स्वरूप में ठाकुर बाँकेबिहारी के नाम से विराजमान है।
ईसवी सन 1864 में नवमन्दिर का निर्माण करवा कर प्रतिमा को विराजित किया गया
विक्रम संवत 1562 की मार्ग शीर्ष शुक्ल पक्ष की पंचमी को जन-जन के आराध्य बाँकेबिहारी लाल निधिवनराज की लता पताकाओं के मध्य प्रकट हुए थे। 19 दिसम्बर को यह उत्सव मनाया जायेगा। जहां स्वामी जी के अनुज जगन्नाथ स्वामी के उपरांत उनके शिष्य विठल विपुलदेव व बिहारी दास इस अलौकिक प्रतिमा की अंगराग सेवा करते थे। इसी क्रम में ईसवी सन 1864 में नवमन्दिर का निर्माण करवा कर प्रतिमा को विराजित किया गया। वर्तमान में स्वामी जी की वंशपरम्परा के गोस्वामी परिवारों द्वारा मन्दिर में ठाकुर जी की नित्य अंगराग सेवा की जा रही है।
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