Dadaji maharaj agra

राधास्वामी गुरु Dadaji Maharaj के अनमोल बचन -35: सतसंगी की सबसे बड़ी चाह क्या होनी चाहिए

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राधास्वामी मत (Radhasoami Faith) के प्रवर्तक परम पुरुष पूरन धनी स्वामीजी महाराज (Soamiji Maharai) और परम पुरुष पूरन धनी हजूर महाराज (Hazur maharaj) ने इस नश्वर संसार में इस बात के लिए अवतार धारण किया कि जीवों का उद्धार हो सके। उन्होंने जीवों पर अनोखी दया लुटाई, बचन बानी के माध्यम से जीवों को अपने चरनों में खींचा, चेताया और उनका कारज बनाया। उन्होंने गुरुभक्ति और सतगुरु सेवा पर भी विशेष बल दिया और स्पष्ट रूप से कह दिया कि जब तक संपूर्ण जगत का उद्धार नहीं होता, धार की कार्यवाही निरंतर जारी रहेगी, वक्त के गुरु जीवों को चेताते रहेंगे। तब से लेकर आज तक यह सिलसिला जारी है और हजूर महाराज के घर हजूरी भवन, पीपल मंडी, आगरा (Hazuri Bhawan, Peepal mandi, Agra) में वर्तमान सतगुरु दादाजी महाराज (Radha Soami guru Dadaji maharaj) जीवों पर अपनी दया फरमा रहे हैं, उनका भाग जगा रहे हैं। दादा जी महाराज (Prof Agam Prasad Mathur former Vice chancellor Agra university) अपने सतसंग (Radhasoami satsang) में नित्य नवीन बचन फरमाते हैं जिससे यह जीव चेते और चरनों में लगे। उन्हीं बचनों में से कुछ अप्रकाशित वचन पुस्तिका ‘दादा की दात’ में जीवों के कल्याण के वास्ते दिए गए हैं। ये वचन न केवल जीवों के प्रीत प्रतीत को बढ़ाएंगे वरन उनका कारज भी बनाएंगे। यहां हम प्रस्तुत कर रहे हैं दादाजी महाराज के बचनों की श्रृंखला।

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जो मौज है उसके अनुसार काम करिए। अपनी करनी में कोई ढील मत डालिए। सब लोग राधास्वामी दयाल की दया पर निर्भर हैं। इसलिए किसी प्रकार की मान बड़ाई चित्त में नहीं आनी चाहिए। जो लोग दुखी ,हैं किसी रोग से ग्रसित हैं या कोई परेशानी आई है उनको भी है सलाह है कि मालिक की तरफ देखो, परेशानी तुम्हारी जरूर होगी, इसका निश्चय करो क्योंकि उनको तो तुम्हें एक दिन राधास्वामी धाम में पहुंचाना है और यही चाह सबसे बड़ी चाह है। तो जब राधास्वामी धाम में ले जाएंगे तो फिर यहां की जो चीजें हैं उनको भी छुड़वाएंगे। यहां के बंधन ढीले करवाएंगे, यहां जहां-जहां वृत्ति लगी है, उसे हवाएंगे, यहां संतुलन देंगे और जब यह देंगे तो कुछ दिक्कत हो सकती है, मन पर मार पड़ सकती है, उदासी आ सकती है और जो बिल्कुल बर्दाश्त नहीं कर पाते हैं वह संतुलन खो सकते हैं। इसलिए समन्वय और संतुलन आना बहुत जरूरी है और उसी के लिए संग है, सतसंग है, बानी का पाठ भी इसीलिए, ध्यान भी इसीलिए और उसके बाद जिसका ध्यान मुकम्मल बन जाए, वो ही तो अपनी सुरत को आंखों के मुकाम पर और फिर तीसरे तल पर जमा सकता है और इसके बाद आगे चढ़कर धुन को सुन सकता है। यह पहले स्थान की धुन कोई पास की चीज नहीं है यानी नित्य प्रति आप जब अभ्यास में बैठते हैं तो आप की चढ़ाई होती है, चाल भी चलाई जाती है और वह चाल चलाने वाले, सुरत को चढ़ाने वाले संत सतगुरु दयाल हैं।

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जिसका व्यापक दृष्टिकोण होगा, जो दूसरों के दुख दर्द को समझेगा, जो दूसरे की दुखती रग को पहचानेगा और उसमें सहयोग देगा वही बड़भागी है, वही अपने ऊपर आए हुए दुखों को सहन कर सकता है और मालिक भी उस पर प्रेम की दात की बख्शीश कर सकते हैं। वो चाहे तो छिन में रोग और शोक सब दूर कर सकते हैं या उसको बर्दाश्त करने की अजब ताकत दे सकते हैं। यह जलन ईर्ष्या, हसद, कंपटीशन सब दुनिया की चीजें हैं, यह काल मत के अनुसार करनी है, यह सारी की सारी बातें दयाल मत की नहीं है। फिर भी यह हावी हैं तो इसका मतलब यह है कि मन के ऊपर अभी पूरा नियंत्रण नहीं आया है या मालिक की मौज और दया को भूल जाते हैं परेशानी के वक्त। अरे वही वक्त है तुम्हारी परीक्षा का कि जब कोई परेशानी आवे या दुख और तकलीफ आवे तब तुम अपना संतुलन न खोओ और मौज को निहारो। सहूलियतें वही बख्शने वाले हैं, दया करने वाले वही हैं। कर्मों की कटाई तो होती है कभी जो नःकर्मी हैं या जो कर्म कर चुके हैं, उनको भी कोई परेशानी लगा दी जाती है ताकि वह एक दूसरों के लिए नजीर बन जाएं कि ऐसे समय में कैसा व्यवहार करना चाहिए। यह काम बहुत कठिन है। संतुलन बड़े बड़ों का बिगड़ जाता है। इसलिए सबके लिए यह जरूरी है कि अभ्यास करके अपने आप को संतुलित रखना सीखें। आपने क्या सत्संग किया अगर अपने आपको परिवर्तित नहीं किया। दुख में शामिल होना और सच्चा दर्द है, उसका इजहार करना, जरूरी काम है, जो उस समय कोई सहायता की दरकार है तो सहायता भी कर देनी चाहिए न कि तमाशा देखना चाहिए क्योंकि कोई भी संकट किसी पर भी आ सकता है। यह तो कारखाना ही संकटों का है। संकट से लोग बड़े पदों को छिन में गंवा देते हैं। इसलिए यहां के किसी भी पद का, यहां पर कमाए हुए धन का, कमाई हुई शोहरत का, प्रतिष्ठा का और मान का भरोसा नहीं है। किसी क्षण भी वह जा सकता है। फिर उन चीजों में मोह का बंधन क्या लगाना, क्या फायदा है उसका। उससे बेहतर है कि हम लोग अपनी प्रीत और प्रतीत कुलमालिक राधास्वामी दयाल के चरनों में लगाएं। जब तक कुछ प्राप्त हो, चाहे वह मान हो, पद व प्रतिष्ठा हो या आपके हाथ से उपकार बनता हो, तब उनका शुकराना करना चाहिए। जब कोई संकट जावे तब भी आपकी नजर उनकी ओर हो कि उनकी मौज क्या है और उससे जब आप मेल कर लेंगे तब इसी को मुआफकत कहते हैं।