आगरा का प्रधान डाकघर: इतिहास के खंडहर पर मंडराता ‘विकास’ का प्लास्टर

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तो आज बात करेंगे, उस ऐतिहासिक इमारत की, जो अपने इतिहास के बोझ तले ही दबने को तैयार बैठी है. हम बात कर रहे हैं आगरा के उस पुराने डाकघर की, जो एक सदी से भी ज़्यादा पुराना है. इस इमारत ने न जाने कितने ही चिट्ठियों के सफर देखे होंगे, न जाने कितने ही संदेश पहुँचाए होंगे. लेकिन आज ये ख़ुद ही ख़तरे का संदेश देने को मजबूर है. . . क्या किसी को सुनाई दे रहा है?

इतिहास के खंडहर पर मंडराता ‘विकास’ का प्लास्टर

आगरा के प्रतापपुरा में 1913 में बना ये ऐतिहासिक डाकघर, जिसे कभी ब्रिटिश काल की इंजीनियरिंग का नमूना माना जाता था, आज अपनी ही उम्र और लापरवाही के बोझ से जर्जर हो चुका है. जब शहर में कंक्रीट के जंगल और शॉपिंग मॉल की नई-नई इमारतें खड़ी हो रही हैं, तब एक पुरानी, पर ऐतिहासिक इमारत, अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही है. सवाल ये है कि क्या हमारा विकास सिर्फ नया बनाने तक ही सीमित है? क्या हमें अपनी धरोहरों को सहेजने की ज़रूरत नहीं? या फिर हमें अपनी धरोहरों का भी ‘स्मार्ट सिटी’ की तरह री-डेवलपमेंट करना है, वो भी तब जब वो गिर जाएँ?

यहाँ हर रोज़ सैकड़ों लोग आते हैं- कोई स्पीड पोस्ट करने, कोई बैंक के काम निपटाने, तो कोई बिल भरने. लेकिन यहाँ आने वाले हर शख्स को एक अदृश्य धमकी मिलती है- छत से गिरता हुआ प्लास्टर. ये प्लास्टर, प्लास्टर नहीं, हमारे सिस्टम पर लगे दाग हैं, हमारी व्यवस्था पर लगे सवाल हैं. एक तरफ हम डिजिटल इंडिया की बात करते हैं, दूसरी तरफ लोग अपनी जान जोखिम में डालकर मैन्युअल काम करने को मजबूर हैं.

“आगरा का प्रधान डाकघर: सुविधा या ख़तरा?”

स्थानीय निवासी महेश ने ठीक कहा, “मजबूरी है, क्योंकि यहाँ मिलने वाली सुविधाएं कहीं और नहीं हैं.” ये मजबूरी ही तो हमारे सिस्टम की सबसे बड़ी जीत है. हमें इस हद तक मजबूर कर दिया जाता है कि हम अपनी जान भी दांव पर लगाने को तैयार हो जाते हैं. रोज़ अपनी जान हथेली पर लेकर काम करने वाले कर्मचारी, जिन्होंने छत पर एक जाल लगा रखा है- एक ऐसा जाल, जो शायद किसी बड़े हादसे को रोक न पाए. ये जाल सिर्फ प्लास्टर के टुकड़ों को ही रोक सकता है, पर व्यवस्था के टुकड़ों को नहीं.

एक कर्मचारी ने नाम न छापने की शर्त पर कहा, “हम 6 महीने से इस जाल के भरोसे काम कर रहे हैं. हर वक़्त डर बना रहता है कि कब हादसा हो जाए.” ये डर, ये डर सिर्फ कर्मचारियों का नहीं है, ये हम सभी का डर है. ये उस सिस्टम का डर है, जहाँ हम शिकायतें करते हैं, पर सुनवाई नहीं होती. क्या हमारी सरकार ने अपनी आँखें बंद कर रखी हैं? या फिर उन्हें सिर्फ उन्हीं इमारतों में दिलचस्पी है, जहाँ वोट बैंक है या जहाँ से मोटी कमाई हो सकती है?

एएसआई भाग रहा ज़िम्मेदारी से ?

पोस्टमास्टर शशिकांत ने बताया कि इस डाकघर की मरम्मत 15 साल पहले हुई थी. 15 साल! ये कोई छोटी-मोटी अवधि नहीं है. इन 15 सालों में न जाने कितनी सरकारें आईं और गईं, कितने ही वादे किए गए, लेकिन इस इमारत की किस्मत नहीं बदली.

पोस्टमास्टर ने भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (ASI) को भी सूचित किया था, लेकिन उन्होंने साफ कह दिया कि यह इमारत उनके अंतर्गत नहीं आती.

अब यहाँ एक बहुत बड़ा सवाल खड़ा होता है. 100 साल से भी पुरानी सरकारी इमारत, जो भारत का गौरव है, क्या वो ASI के अधीन नहीं आ सकती? क्या ASI सिर्फ ताजमहल और लाल किला जैसे टूरिस्ट स्पॉट के लिए है? क्या ASI का काम सिर्फ उन्हीं इमारतों की देखभाल करना है, जहाँ विदेशी सैलानी आते हैं और हमारी ‘शानदार’ छवि बनती है? क्या इस डाकघर की कोई अहमियत नहीं है उनकी नज़रों में? या फिर उन्हें लगता है कि 100 साल पुरानी सरकारी इमारत को बचाने की ज़िम्मेदारी सरकार की नहीं, जनता की है?

ये इमारत आज भी हमारे अतीत को बताती है, हमारे भविष्य पर सवाल खड़ा करती है. क्या हम अपनी धरोहरों को ऐसे ही ख़त्म होने देंगे? या फिर हम सिर्फ तभी जागेंगे, जब कोई बड़ा हादसा हो जाएगा? और तब सरकारें सिर्फ शोक जताने के लिए प्रेस रिलीज़ जारी करेंगी?

फिलहाल, गिरते प्लास्टर और मलबे के बीच कर्मचारियों द्वारा लगाया गया जाल ही एकमात्र सुरक्षा का सहारा बना हुआ है. और हम सब उसी उम्मीद के भरोसे बैठे हैं कि ये जाल कभी न कभी, किसी बड़े हादसे को ज़रूर रोक पाएगा. . . शायद. . .

तो बस आज के लिए इतना ही, नमस्कार!

मोहम्मद शाहिद की कलम से

Dr. Bhanu Pratap Singh