2 हजार वर्ष पूर्व में होती थी पंच मुखी शिव लिंग की पूजा

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अतीत की कहानियां कहती संग्रहालय की शिव मूर्तियां
2 हजार वर्ष पूर्व में होती थी पंच मुखी शिव लिंग की पूजा
श्रावण मास में महादेव के पांच मुख की पूजा का बड़ा महत्व माना गया है। अनेक विद्वानों के अनुसार सृष्टि, स्थिति, लय, अनुग्रह एवं निग्रह- इन 5 कार्यों की निर्मात्री 5 शक्तियों के संकेत शिव के 5 मुख से मिलते हैं। पूर्व मुख सृष्टि, दक्षिण मुख स्थिति, पश्चिम मुख प्रलय, उत्तर मुख अनुग्रह (कृपा) एवं ऊर्ध्व मुख निग्रह (ज्ञान) का सूचक माना जाता है। किन्तु अब मथुरा में कहीं भी पंच मुखी शिव लिंग की पूजा नहीं होती है, जनपद में कहीं भी पाँच मुखी शिव लिंग नहीं हैं। लगभग दो हजार वर्ष पूर्व में मथुरा जनपद में पंच मुखी शिव की पूजा के प्रमाण राजकीय संग्रहालय, मथुरा में मिलते हैं। मथुरा संग्रहालय में एक मुखी शिव लिंग, दो मुखी शिव लिंग, चार मुखी शिव लिंग तथा पाँच मुखी शिव लिंग की मूर्तियाँ यहां पर दर्शनीय हैं।
किस प्रकार भगवान शंकर के हुए पांच मुख
भगवान शंकर के पांच मुखों में ऊर्ध्व मुख ईशान दुग्ध जैसे रंग का, पूर्व मुख तत्पुरुष पीत वर्ण का, दक्षिण मुख अघोर नील वर्ण का, पश्चिम मुख सद्योजात श्वेत वर्ण का और उत्तर मुख वामदेव कृष्ण वर्ण का है। भगवान शिव के पांच मुख चारों दिशाओं में और पांचवा मध्य में उपर की ओर है। भगवान शिव के पश्चिम दिशा का मुख सद्योजात बालक के समान स्वच्छ, शुद्ध व निर्विकार है। उत्तर दिशा का मुख वामदेव अर्थात् विकारों का नाश करने वाला है। दक्षिण मुख अघोर अर्थात निन्दित कर्म करने वाला है। निन्दित कर्म करने वाला भी शिव की कृपा से ही निन्दित कर्म को शुद्ध बना लेता है। शिव के पूर्व मुख का नाम तत्पुरुष अर्थात अपनी आत्मा में स्थित रहने वाला है। वहीं ऊर्ध्व मुख का नाम ईशान अर्थात जगत का स्वामी का प्रतीक है।
शिवपुराण में भगवान शिव शंकर कहते हैं
सृष्टि, पालन, संहार, तिरोभाव और अनुग्रह- ये मेरे पांच कृत्य (कार्य) मेरे पांचों मुखों द्वारा धारित हैं। कथा अनुसार एक बार भगवान विष्णु ने अत्यन्त मनोहर किशोर रूप धारण किया। उस मनोहर रूप को देखने के लिए चतुर्भुज ब्रह्मा, बहुमुख वाले शेष, सहस्त्राक्ष मुख धारण कर इन्द्र आदि देवता आए। सभी ने भगवान के इस रूप का आनंद लिया तो भगवान शिव सोचने लगे कि यदि मेरे भी अनेक मुख होते तो मैं भी अनेक नेत्रों से भगवान के इस किशोर रूप का सबसे अधिक दर्शन करता। कैलाशपति के मन में इस इच्छा के उत्पन्न होते ही वे पंचमुख के हो गए। भगवान शिव के पांच मुख-सद्योजात, वामदेव, तत्पुरुष, अघोर और ईशान हुए और प्रत्येक मुख में तीन-तीन नेत्र बन गए। तभी से वे ‘पंचानन’ या ‘पंचवक्त्र’ कहलाने लगे। भगवान शिव के इन पंचमुख के अवतार की कथा पढ़ने और सुनने का बड़ा माहात्म्य है। यह प्रसंग मनुष्य के अंदर शिव-भक्ति जाग्रत करने के साथ उसकी समस्त मनोकामनाओं को पूरा कर परम गति को देने वाला है।
शिव शंकर की व्यापकता
हमारे देश के विभिन्न प्रांतों में अनेक देवताओं का पूजन होता रहा है और होता है, किंतु शिव की व्यापकता ऐसी है कि वह हर जगह पूजे जाते हैं। हमारे प्राचीन ग्रंथ, जो हर जिज्ञासा को शांत करने में समर्थ हैं, जो श्रुति स्मृति के दैदीप्यमान स्तंभ हैं, ऐसे वेदों के वाग्मय में जगह-जगह शिव को ईश्वर या रुद्र के नाम से संबोधित कर उनकी व्यापकता को दर्शाया गया है।
यजुर्वेद के एकादश अध्याय के 54वें मंत्र में कहा गया है कि रुद्रदेव ने भूलोक का सृजन किया और उसको महान तेजस्विता से युक्त सूर्यदेव ने प्रकाशित किया। उन रुद्रदेव की प्रचंड ज्योति ही अन्य देवों के अस्तित्व की परिचायक है। शिव ही सर्वप्रथम देव हैं, जिन्होंने पृथ्वी की संरचना की तथा अन्य सभी देवों को अपने तेज से तेजस्वी बनाया।
शिव को पंचमुखी, दशभुजा युक्त माना गया है। पांच तत्वों का निर्माण भगवान सदाशिव से ही हुआ है। इन्हीं पांच तत्वों से संपूर्ण चराचर जगत का निर्माण हुआ है। तभी तो देवराज पुष्पदंत महिम्न में कहते हैं – हे सदाशिव! आपकी शक्ति से ही इस संपूर्ण संसार का चर-अचर निर्माण हुआ है।
शिव का वर्णन शब्दों से नहीं किया जा सकता
इस प्रकार यह स्पष्ट हो जाता है कि भगवान शिव उत्पत्ति, स्थिति एवं संहार के दृष्टा हैं। निर्माण, रक्षण एवं संहरण कार्यों का कर्ता होने के कारण उन्हें ही ब्रम्हा, विष्णु एवं रुद्र कहा गया है। शिव के विषय में उनका वर्णन शब्दों से नहीं किया जा सकता है। शिव की महिमा वाणी का विषय नहीं है। मन का विषय भी नहीं है। वे तो सारे ब्रह्मांड में तद्रूप होकर विद्यमान होने से सदैव श्वास-प्रश्वास में अनुभूत होते रहते हैं। इसी कारण ईश्वर के स्वरूप को अनुभव एवं आनंद की संज्ञा भी दी गई है।
भगवान शिव को लिंग रूप में क्यों पूजा जाता है
इसकी वजह बेहद दिलचस्प है जबकि शिव शंभु आदि और अंत के देवता है और इनका न कोई स्वरूप है और न ही आकार वे निराकार हैं। आदि और अंत न होने से लिंग को शिव का निराकार रूप माना जाता है, केवल शिव ही निराकार लिंग के रूप में पूजे जाते हैं। लिंग रूप में समस्त ब्रह्मांड का पूजन हो जाता है।
पौराणिक कथा के अनुसार जब समुद्र मंथन के समय सभी देवता अमृत के आकांक्षी थे लेकिन भगवान शिव के हिस्से में भयंकर हलाहल विष आया। उन्होंने बड़ी सहजता से सारे संसार को समाप्त करने में सक्षम उस विष को अपने कण्ठ में धारण किया तथा ‘नीलकण्ठ’ कहलाए। समुद्र मंथन के समय निकला विष ग्रहण करने के कारण भगवान शिव के शरीर का दाह बढ़ गया। उस दाह के शमन के लिए शिवलिंग पर जल चढ़ाने की परंपरा प्रारंभ हुई, जो आज तक चली आ रही है।
शिव, हिंदू मतानुसार त्रिमूर्ति (ब्रह्मा, विष्णु और महेश) के रूप में एक महत्वपूर्ण देवता हैं, जिन्हें कई रूपों में दर्शाया गया है। वह एकमात्र देवता हैं जिनकी प्रतीकात्मक पूजा उन्होंने मानवरूपी रूप के साथ-साथ जारी रखी। इस उप-प्रकट रूप को लिंग (फालस) के माध्यम से दिखाया गया है। कभी-कभी लिंग पहलू को उनके मानव रूप के साथ भी जोड़ा जाता है।
मथुरा संग्रहालय में दर्षनीय शिव प्रतिमाएं
मथुरा संग्रहालय में रखी शिव प्रतिमाओं के पास जाने से ज्ञात होता है कि यहां संरक्षित मूर्तियां गुप्त काल से भी पहले की हैं जिससे यह ज्ञात होता है कि यहां शिव लिंग की पूजा की जाती रही है। राजकीय संग्रहालय, मथुरा की मूर्तिकला के संग्रह में एक मुखी, दोमुखी, चार मुखी एवं पांच मुखी शिवलिंग की मूर्तियां प्रदर्शन के लिए रखी गयी हैं, जिनमें (11-15.462), जो जटायुक्त बैर, माथे पर तीसरा नैत्र और मानव खोपड़ी की एक माला (मुंड माला जोर अक्षमाला, रुद्राक्ष की माला) इनमें से एक के चेहरे पर कुछ उल्लेखनीय विशेषताएं भी देखने को मिलती हैं।
एक अन्य मूर्ति (29.1931) में वर्गाकार आधार और शीर्ष पर एक स्वतंत्र अष्टकोणीय स्तंभ पर एक बड़ा त्रिशूल (शिव का हथियार जिसे त्रिशूल के रूप में जाना जाता है और तीसरी आंख (त्रिनेत्र) के साथ एक विशाल आकृति) और दाहिने हाथ में एक शाफ्ट पकड़े हुए है। उसका निचला हिस्सा नग्न दिखता है और हो सकता है यह लकुलिश पंथ का प्रतिनिधित्व करता हो, जिसकी एक समय में मथुरा में मजबूत पकड़ थी। शिलालेख में दर्ज है कि कुछ उदिताचार्य ने गुप्त काल (380) के सम्बत् 61 वें वर्ष में दो शिवलिंग (उपमितेश्वर और कपिलेश्वर) स्थापित किए थे। यह जान कर आर्श्चय और दिलचस्प लगता है कि यह स्तंभ उसी स्थान से जहां आज भी प्रसिद्ध शिव मंदिर रंगेश्वर है इस मंदिर के पास से ही इसे प्राप्त किया गया था।
एक अन्य शिवलिंग (15.516) जिसमें चार मानव आकृति के साथ अलग-अलग दिशाओं में उभरे हुए हैं। पांचवें सिर के निशानों से ऐसा प्रतीत होता है कि पंचमूर्ति में शिव के पंचानन पहलू का प्रतिनिधित्व करने वाला पंच मुखी (पांच मुखी) शिव लिंग है। इन सिरों को क्रमशः पूर्व, दक्षिण, पश्चिम और उत्तर दिशाओं की ओर मुख करके तत्पुरुष, अघोरा, वामदेव और सद्योजात कहा जाता है। ऊपरी चेहरा जो ऊपर की ओर दिखता है उसे ईशान के नाम से जाना जाता है। इस मूर्ति को देखकर लगता है कि आज से लगभग दो हजार वर्ष पूर्व में पांच मुखी शिव की पूजा मथुरा जनपद में की जाती थी। जिसमें मोतियों की माला के चारों ओर बंधे मोटे उभरे हुए बैंड के आधार पर यह मूर्ति प्रारंभिक गुप्त काल की प्रतीत होती है। इस मूर्ति को संग्रहालय में स्थित सप्त समुद्री कूप से बरामद किया गया था।
एक अन्य मूर्ति (30.2084) में शिव नंदी (बैल) और उनकी पत्नी पार्वती अपने वाहन सिंह के साथ खड़े हैं। दोनों तरफ उकेरी गई मूर्ति में शिव को उलझे हुए बालों (जटा), तीसरी आंख (त्रिनेत्र) और लिंग के साथ सीधी स्थिति में दिखाया गया है। वह बाघ की खाल (व्याघ्रजिना या व्याघ्रांबर) पहने हैं, जैसा कि दोनों के सिरों पर अंकित आभा मण्डल जैसे उकेरे गये संकेत से मिलता है। शिव और पार्वती वाली इस मूर्ति को आमतौर पर उमामहेश्वर के नाम से जाना जाता है। उमा संभवतः अपने बाएं हाथ में एक लिली का फूल लिए हुए हैं। शिव के एक मुखी लिंग पहलू को शिव के सिर के रूप में भी दर्शाया गया है।
शिव एवं पार्वती के अर्धनारीश्वर स्वरूप के दर्शन
गुप्त काल के पांच सिरों वाले शिव को दर्शाया गया है, जिनमें अलग-अलग हेयर स्टाइल दिखाई गई हैं। यह प्रतिमा (13.362) गुप्त काल की कलाकृति उच्च कारीगरी को प्रदर्शित करती है। जिसमें पुरुष और महिला के दो अलग-अलग पहलुओं को दिखाया गया हैं। एक तरफ दाहिनी ओर ऊंचे उलझे हुए बाल के साथ दिखाई देता है, जबकि बाईं ओर सुंदर हेयर स्टाइल और ऊर्ध्वाधर मोती की माला के साथ एक बड़े गोल आकार के कान के कुंडल से सुशोभित है। इस मूर्ति में मर्दाना और स्त्रियोचित विशेषताओं को अलग-अलग दर्शाया गया है। शिव की भौंहें ऊपर की ओर खिंची हुई हैं जबकि महिला के भाग को नाजुक ढंग से संभाला गया है। एक कुशल कलाकार ही यह उत्तम संश्लेषण कर सकता था।
एक अन्य प्रदर्शित मूर्ति (15.772) में एक असाधारण सुंदर अर्धनारीश्वर की है जो शिव के ईश्वर पहलू को दर्शाती है, जो शिव और पार्वती का एक मिश्रित रूप है जो पुरुष और महिला की ऊर्जा के संलयन का संकेत देता है। ऊँचे उलझे बालों (जटाजूट) के साथ दाहिना भाग शिव का प्रतिनिधित्व करता है, जबकि शेष आधा हिस्सा आकर्षक रूप से कंघी किए हुए बालों और फूलों से सजे बालों, बड़े और भारी कान की बाली के साथ, पार्वती का है। माथे पर एक ऊर्ध्वाधर तीसरी आंख है और गले में एकावली (मोती का हार) पहने हुए है। सुंदर होंठ, आधी बंद आंखें और सूक्ष्म लालित्य ने समग्र विशेषताओं के कारण आकर्षण को और बढ़ा दिया है।
पुराणों में शिव और पार्वती के विलय की कहानी अलग-अलग तरह से वर्णित की गई है। कालिका पुराण के अनुसार एक बार पार्वती ने शिव की छाती पर अपना प्रतिबिंब देखा जो एक चमकती हुई आकृति के रूप में था। उन्हें कोई अन्य स्त्री समझकर ईर्ष्या होने लगी और उन्होंने शिव से उसे एक क्षण भी अपने से अलग न करने का अनुरोध किया। शिव ने पार्वती का यह अनुरोध स्वीकार कर लिया और उन्होंने अपने और पार्वती के शरीर को एक में मिला दिया। आध्यात्मिक रूप से अर्ध न अर स्वरे रूप प्रकृति और पुरुष के अनलोन का सुझाव देता है। पुरुष और महिला पंथ का संयोजन उदारवाद को आगे बढ़ाने वाले दृष्टिकोण की ओर संकेत करता है।
प्रस्तुति – सुनील शर्मा 9319225654