सुभाष ढल
एक आत्मीय संबंध की स्मृति में
आज भी जब निहाल सिंह भाई साहब को स्मरण करता हूँ, तो अपने एक व्यवहार को लेकर मन में ग्लानि और शर्म का भाव उत्पन्न होता है।
राजनीति और आंदोलन का दौर
वर्ष 1988, स्थान नई दिल्ली – 15, नॉर्थ एवेन्यू स्थित आगरा के तत्कालीन सांसद श्री निहाल सिंह जैन का सरकारी आवास। आगरा में हाईकोर्ट की बेंच की स्थापना हेतु आंदोलन अपने चरम पर था। जसवंत सिंह आयोग की रिपोर्ट लागू करने की माँग जोरों पर थी।
सरकारी आवास की बैठक में अनेक लोग उपस्थित थे। वरिष्ठ अधिवक्ता श्री देवेंद्र बाजपेयी जी (पूर्व अध्यक्ष, आगरा बार एसोसिएशन) सोफे पर विराजमान थे। गर्मजोशी से चर्चा चल रही थी। मैं भी उसमें शामिल था और अपनी बात रखते हुए केवल इतना कहा – “आगरा में हाईकोर्ट की बेंच का स्थापना का अधिकार भी है।”
एक प्रतिक्रिया जिसने सब कुछ बदल दिया
मेरे इतना कहते ही, शायद मेरे शब्द निहाल सिंह भाई साहब को रुचिकर नहीं लगे। वे अत्यंत क्रोधित हो उठे और पूरा गुस्सा मुझ पर उतार दिया। उनके आक्रोश में मैं भी अपने आपे से बाहर हो गया और मन में जो आया, कह डाला। दुर्भाग्यवश, मेरी भाषा में अपशब्द सम्मिलित हो गए।
पूरा वातावरण स्तब्ध हो गया। लोकेश श्रोतीय भाई साहब और यदुवंश कुमार शर्मा जी भी उस समय वहीं उपस्थित थे। मैं चुपचाप अपना थैला उठाकर “राम-राम” कहता हुआ वहां से निकल गया। रात्रि के लगभग 9 बजे का समय था।
गहरी कटुता और मन का द्वंद्व
बस स्टॉप पर खड़ा था कि भाई साहब के शैडो श्री भीम सिंह आए और बोले – “साहब बुला रहे हैं।” मैंने तीखे शब्दों में उत्तर दिया – “जा कह दियो अपने साहब से…” और अपशब्दों की झड़ी लगा दी।
आगरा लौटते ही मन में यह ठान लिया कि अब निहाल सिंह भाई साहब से कभी कोई मेल-मिलाप नहीं होगा।
चुटकी, व्यंग्य और संबंधों की गहराई
कुछ समय पश्चात रोशन मोहल्ला स्थित कार्यालय में, जब फतेहपुर सीकरी के तत्कालीन ब्लॉक प्रमुख गुलाब सिंह जी ने भाई साहब से मेरे बारे में पूछा तो निहाल सिंह जी ने मुस्कुराते हुए कहा – “ढल साहब अभी कोप भवन में हैं, निकाले जाने का प्रयास किया जा रहा है।”
कांग्रेस के वरिष्ठ नेता श्री रूपा भाई, जो भाई साहब के अत्यंत करीबी थे, ने इस पूरे प्रकरण पर मुझसे चर्चा की। मैंने दो टूक कह दिया – “अब उनसे कोई संबंध नहीं रखूँगा।”
रूपा भाई समझाने लगे – “एक बार मेरे कहने पर मिल तो लो।”
मैंने उत्तर दिया – “चाचा जी, मेरा सार्वजनिक अपमान हुआ है, मैं कैसे भूल जाऊँ?”
एक आत्मीय पुनर्मिलन
अगले ही दिन निहाल सिंह जी के चचेरे भाई मेरे पास आए और बोले – “नीलम भाभी जी (भाई साहब की धर्मपत्नी) ने आपको बुलाया है। कुछ ज़रूरी बात करनी है। भाई साहब मुंबई गए हुए हैं।”
मैं पप्पू भाई के साथ रोशन मोहल्ला स्थित आवास पर पहुँचा। भाभी जी ने कहा – “ढल साहब, आप ऊपर बैठिए, मैं अभी आती हूँ।”
अंतर्मन की थरथराहट
ऊपर पहुँचा तो देहरी से देखा – भाई साहब लेटे हुए हैं। मुझे देख उन्होंने आँखें बंद कर लीं, जैसे सो रहे हों। मैं दुविधा में था – भीतर जाऊँ या नहीं? फिर साहस कर दीवान पर बैठ गया।
गर्मी का दिन था। रामू आया और पूछा – “ढल साहब, शरबत पियोगे या चाय?”
मैंने कहा – “शरबत ले आओ।” तभी भाई साहब भी बोल उठे – “एक गिलास शरबत मेरे लिए भी ले आना।”
संबंधों की पुनः रचना
उसके बाद अनेक बातें हुईं। हँसी-मज़ाक का दौर भी चला। उन्होंने स्वयं मेरी पुरानी भाषा को दोहराया और उस पर आनंद लिया।
एक अविस्मरणीय व्यक्तित्व
निहाल सिंह जैन जी, एक सरल, सहज, आत्मीय व्यक्तित्व की सजीव प्रतिमा थे। राजनीति अब बहुत बदल गई है। ऐसे लोग अब बहुत कम दिखाई देते हैं।
उनकी द्वितीय पुण्यतिथि पर मेरी विनम्र श्रद्धांजलि।
संपादक की टिप्पणी
संस्मरण केवल घटनाओं का दस्तावेज़ नहीं होता, वह एक जीवंत अनुभूति होती है, जिसमें रिश्तों की गर्माहट, मनोभावों का द्वंद्व और आत्मा की सच्चाई उतरती है। सुभाष ढल जी का यह संस्मरण स्वर्गीय निहाल सिंह जैन जी के प्रति उनकी अंतरात्मा की श्रद्धा और आत्ममंथन का एक दुर्लभ उदाहरण है।
जिस घटना को कोई भी व्यक्ति अपने स्वाभिमान के नाम पर ताउम्र भूलना न चाहे, उसे ढल जी ने न केवल स्वीकार किया, बल्कि जिस साहस और सच्चाई से उन्होंने अपनी भूल को शब्दों में ढाला है, वह उनके व्यक्तित्व की उदात्तता को दर्शाता है।
आज के समय में जब सार्वजनिक जीवन में आत्मालोचना और आत्मस्वीकृति दुर्लभ हो चली है, ढल जी का यह लेख पाठकों को एक नैतिक पाठ पढ़ाता है — मानवता सबसे बड़ी राजनीति है।
निहाल सिंह जैन जैसे सज्जन, स्पष्टवादी और आत्मीय राजनेता की स्मृति में यह लेख न केवल श्रद्धांजलि है, बल्कि आने वाली पीढ़ियों के लिए एक मूल्यवान संदर्भ भी है।
– संपादक
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