छत्तीसगढ़ में दुर्ग रेलवे स्टेशन पर दो ननों, सिस्टर प्रीति मैरी और वंदना फ्रांसिस और एक आदिवासी युवक सुखमन मंडावी पर बजरंग दल के लोगों द्वारा हमले, उनके खिलाफ जबरन धर्मांतरण और मानव तस्करी के मामले दर्ज होने, एनआईए कोर्ट द्वारा तीनों आरोपियों को जमानत मिलने का मामला मीडिया की सुर्खियों में है। इसी बीच ओरछा की तीन आदिवासी युवतियों द्वारा, जो ननों के साथ आगरा जाने के लिए दुर्ग स्टेशन में आई हुई थीं, द्वारा नारायणपुर थाने में शिकायत दर्ज कराने के बावजूद अभी तक बजरंगी गुंडों पर किसी भी प्रकार की कार्यवाही नहीं हुई है। इस मामले में सरकार की किरकिरी हुई है, क्योंकि एनआईए कोर्ट ने आरोपियों के खिलाफ सरकार द्वारा पेश प्रथम दृष्टया सबूतों को भी विश्वसनीय नहीं माना है और बड़ी सहजता से उन्हें जमानत मिल गई। लेकिन इस किरकिरी को उत्तेजक हिंदुत्व अभियान से ढंकने की कोशिश में संघी गिरोह ने धर्मांतरण विरोधी अभियान और जोर-शोर से चलाने और धर्मांतरित आदिवासियों को डी-लिस्ट करने की मांग तेज करने की घोषणा की है। एक मंत्री ने फिर दावा किया है कि जिन आरोपियों को कोर्ट ने जमानत दे दी है, वे सजा से बच नहीं पाएंगे।
छत्तीसगढ़ में भाजपा ईसाई मिशनरियों और ननों के खिलाफ बयानबाजी कर रही है, वहीं केरल का भाजपा अध्यक्ष इस मामले में ननों के साथ खड़ा है। मामला बहुत ही साफ है। छत्तीसगढ़ में भाजपा सांप्रदायिक आधार पर समाज को ध्रुवीकृत करके, अल्पसंख्यकों के प्रति बहुसंख्यक हिंदुओं के मन में नफरत फैलाकर अपनी राजनैतिक रोटी सेंकना चाहती है, तो वहीं केरल में ईसाई समुदाय के खिलाफ खड़े होकर अपनी संभावना को धूमिल नहीं कर सकती। भाजपा और संघी गिरोह की उस नैतिकता को याद कीजिए, जब केरल और उत्तर-पूर्व के चुनावों में उसने उत्तम गुणवत्ता का बीफ उपलब्ध कराने का वादा किया था। गौ-सेवा का दिखावा करने वाली भाजपा में बीफ भक्षण करने वाले नेताओं की कमी नहीं है। आम जनता की पिछड़ी चेतना को सहलाकर ही भाजपा अपनी राजनीति को आगे बढ़ा सकती है।
नन प्रकरण के मुख्य तथ्यों को फिर से दोहराना उचित होगा : सिस्टर प्रीति मैरी और वंदना फ्रांसिस, जो मूलतः केरल से संबंध रखती हैं, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ के वंचित और दूरदराज के इलाकों में कई सालों से अपने संस्थानों द्वारा स्थापित क्लीनिकों और अस्पतालों के माध्यम से गरीबों की सेवा कर रही हैं। आगरा, भोपाल और शहडोल स्थित उनके संस्थानों को रसोई सहायकों की आवश्यकता है। इसके लिए उन्होंने अपने एक पूर्व सहायक, सुखमती नामक एक आदिवासी महिला से संपर्क किया। यह महिला कई वर्षों तक उनके अस्पताल में काम कर चुकी थी और अपनी शादी के कारण उसने अपनी नौकरी छोड़ दी थी। अब वह तीन साल के बच्चे की माँ है। सुखमती ने नारायणपुर जिले के अपने कुछ परिचित परिवारों से संपर्क किया, तो तीन परिवार इस प्रस्ताव को स्वीकार करने के लिए तैयार हो गए।
तीन युवा आदिवासी महिलाओं – ललिता, कमलेश्वरी और एक तीसरी महिला, जिसका नाम भी सुखमती है – ने पहले प्रशिक्षण के लिए आगरा जाने की योजना बनाई। चूंकि इनमें से किसी भी युवती ने पहले अपने जिले से बाहर यात्रा नहीं की थी, इसलिए उनके माता-पिता ने पूर्व-सहायिका सुखमती के बड़े भाई सुखमन मंडावी को उनके साथ दुर्ग रेलवे स्टेशन तक जाने की व्यवस्था की, जहाँ नन उनसे मिलने और उन्हें आगरा तक छोड़ने वाली थीं।
दुर्ग स्टेशन पर एक टिकट निरीक्षक ने इस समूह को देखा और उनसे उनके टिकट मांगे। उन्होंने बताया कि टिकट उन ननों के पास हैं, जो उन्हें आगरा ले जाएगी। इस बातचीत को वहाँ मौजूद लोगों ने सुना, जिनमें से एक बजरंग दल का सदस्य भी था। ऐसा भी कहा जा रहा है कि टिकट निरीक्षक ने ही बजरंग दल के लोगों को इसकी सूचना दी। बहरहाल जो भी हो, इसी बीच नन भी आ गईं, लेकिन जल्द ही वहां बजरंग दल के लोगों की भीड़ जमा हो गई और आक्रामक नारे लगाते हुए वे लोग ननों पर जबरन धर्मांतरण और महिला तस्करी करने का आरोप लगाने लगे और रेलवे पुलिस से उन्हें गिरफ्तार करने की माँग करने लगे। रेलवे पुलिस नियंत्रण कक्ष में यात्रा करने वाली सभी आदिवासी महिलाओं ने बयान दिया कि वे अपनी मर्ज़ी से जा रही हैं। सुखमन ने लड़कियों के माता-पिता से फ़ोन पर संपर्क किया और उन्होंने भी पुलिस को बताया कि यात्रा को उनका समर्थन और सहमति प्राप्त है।
इसके बावजूद रेलवे स्टेशन के पुलिस नियंत्रण कक्ष को खुलेआम गुंडागर्दी का अखाड़ा बना दिया गया। ज्योति शर्मा नामक एक महिला के नेतृत्व में बजरंग दल के सदस्यों द्वारा ननों को गंदी, लैंगिक और अपमानजनक भाषा में अपमानित, धमकाते और चिल्लाते हुए वीडियो साक्ष्य मौजूद हैं। वीडियो में वे मंडावी की पिटाई करते और उसे ननों की “साजिश” में शामिल होने का “कबूलनामा” करवाने की धमकी देते दिखाई दे रहे हैं। बजरंग दल की इस गुंडागर्दी में पुलिस मूकदर्शक बनी रही। इसके बाद, बजरंग दल के एक नेता द्वारा दर्ज कराई गई शिकायत पर “संदेह” के आधार पर, ननों पर मंडावी के साथ मामला दर्ज कर उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया।
आतंकित आदिवासी महिलाओं को एक सरकारी आश्रय गृह ले जाया गया, जहाँ उन्हें अलग-थलग रखा गया और जब उनके चिंतित माता-पिता पहुँचे, तो उन्हें भी उनसे मिलने नहीं दिया गया। उनके माता-पिता ने स्पष्ट रूप से यह कहा कि वे और उनकी बेटियाँ कई सालों से ईसाई हैं और उनकी बेटियां उनकी सहमति और अपनी इच्छा से रोजगार के लिए ननों के साथ जा रही थीं। इन तथ्यों से स्पष्ट है कि न तो यह जबरन धर्म परिवर्तन का मामला है और न ही मानव तस्करी का। लेकिन पुलिस की मौन उपस्थिति में बजरंग दल ने जिस तरह की गुंडागर्दी की, वह जरूर संविधान, कानून के शासन और मानवाधिकारों के उल्लंघन का मामला जरूर बनता है।
इस एक प्रकरण में कई मुद्दे हैं। पहला यही कि, क्या अल्पसंख्यकों और आदिवासियों को इस देश में एक जगह से दूसरी जगह आने-जाने और रोजगार हासिल करने की स्वतंत्रता नहीं हैं? या एक धर्म के लोग दूसरे धर्म के लोगों के साथ यात्रा नहीं कर सकते? इस देश में आम नागरिकों के लिए यह स्वतंत्रता संविधान से सृजित होती है और इस अधिकार का किसी भी रूप में हनन संबंधित नागरिक के लिए संविधान का निलंबन है। हम देख रहे हैं कि छत्तीसगढ़ के बस्तर में माओवादियों से सुरक्षा के नाम पर आवाजाही पर प्रतिबंध है। न केवल बस्तर से बाहर के लोग वहां स्वतंत्र रूप से नहीं जा सकते, बल्कि बस्तर के लोग भी आसानी से घोषित रुप से बस्तर से बाहर नहीं आ सकते।
यही हालत हसदेव के वन्य क्षेत्र की है, जहां भाजपा सरकार ने अडानी द्वारा कोयला खनन के लिए अंतिम वन स्वीकृति जारी करके हसदेव के विनाश पर अपनी मुहर लगा दी है। साफ है कि जहां-जहां कॉरपोरेट परियोजनाएं चलेंगी, वहां-वहां नागरिकों की आवाजाही प्रतिबंधित की जाएगी। पूरे देश में बसे हुए बांग्लाभाषी समुदाय को आजकल मोदी सरकार द्वारा बांग्लादेशी के रूप में चिह्नित किया जा रहा है, उन्हें गिरफ्तार करके प्रताड़ित किया जा रहा है या उन्हें बंगाल सहित अपने मूल स्थान पर भागने के लिए विवश किया जा रहा है। मुस्लिमों की रोजी-रोटी को निशाना बनाने की संघी गिरोह की मुहिम बहुत पुरानी है, लेकिन सभी बंगालियों को बांग्लादेशी के रूप में चिह्नित करने का यह आयाम बहुत पुराना नहीं है।
दूसरा मुद्दा धर्मांतरण का है, जिसका आरोप ननों पर लगाया गया है और प्रथम दृष्टया ही गलत साबित हुआ है, क्योंकि संबंधित आदिवासी परिवार पहले से ही ईसाई धर्म के अनुयायी हैं। हमारे देश का संविधान कहता है कि धर्म किसी भी व्यक्ति का व्यक्तिगत विश्वास है और वह वह कभी भी इस विश्वास को बदल सकता है। कोई भी समुदाय उसे अपने धार्मिक विश्वासों को बदलने से रोक नहीं सकता। आदिवासियों के संदर्भ में विचार किया जाएं, तो वे मूलतः प्रकृति पूजक होते हैं, जो आदि धर्म से जुड़ा है।
यह आदि धर्म पूरी तरह से भिन्न हैं और इसका हिंदू धर्म या ईसाई धर्म से कुछ लेना-देना नहीं है। इस तरह वे न हिंदू हैं, न ईसाई और न किसी अन्य धर्म के। हिंदू धर्म सहित किसी अन्य धर्म के विश्वासी वे बाद में बने हैं। इसलिए चाहे वे हिंदू बने हों या ईसाई, दोनों परिघटनाएं धर्मांतरण की श्रेणी में आती हैं। ये तो संघी गिरोह है, जो आदिवासियों के धर्म और संस्कृति को हिंदू धर्म में समाहित करना चाहता है और बड़े पैमाने पर ईसाई धर्म के आदिवासी अनुयायियों को हिंदू धर्म में शामिल करने के लिए ‘घर वापसी’ का अभियान चला रहा है। यदि ईसाई धर्म के विश्वासी किसी आदिवासी को हिंदू बनाना वैध धर्मांतरण है, तो आदि धर्म के अनुयायी या हिन्दू मतावलंबी किसी आदिवासी का ईसाई या किसी अन्य धर्म में अंतरण अवैध धर्मांतरण कैसे हो सकता है? साफ है कि कोई गिरोह अपनी केंद्र और राज्य की सत्ता की ताकत का उपयोग धर्म के आधार पर आदिवासियों में सांप्रदायिक विभाजन पैदा करने के लिए कर रहा है।
इसके साथ ही तीसरा मुद्दा, इस गिरोह द्वारा उठाया जा रहा डी-लिस्टिंग का मुद्दा है। इसका अर्थ है कि उन आदिवासियों को, जो हिंदू धर्म के अलावा, किसी और धर्म के विश्वासी बन गए हैं, उन्हें संविधान प्रदत्त सुविधाएं मिलनी बंद होनी चाहिए। यह मांग वे केवल उन राज्यों में, मसलन छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश, झारखंड, या राजस्थान में, उठा रहे हैं, जहां वे आदिवासियों के बीच सांप्रदायिक ध्रुवीकरण करने की हैसियत रखते हैं। उत्तर-पूर्व के राज्य, जहां बड़े-बड़े आदिवासी समुदाय ईसाई मतावलंबी हैं, वहां ये इस मांग पर चुप्पी साधे हुए हैं। यही गिरोह का यह दोहरा चरित्र हैं।
इस मामले में हमारा संविधान क्या कहता है? संविधान एक आदिवासी को, स्पष्ट रूप से उसके धार्मिक विश्वासों से परे, एक आदिवासी के रूप में मान्यता देता है और किसी भी धार्मिक समूह में उसके अंतरण से उसकी ‘आदिवासीयत’ पर कोई अंतर नहीं पड़ता। इसका अर्थ है कि संविधान की नजर में आदि धर्म को मानने वाला एक प्रकृति पूजक आदिवासी, हिंदू धर्म का अनुयायी आदिवासी, ईसाई मतावलंबी आदिवासी और किसी अन्य धर्म को मानने वाले आदिवासी में कोई अंतर नहीं है, वे मात्र आदिवासी हैं, जिसकी सूची राष्ट्रपति के आदेश में सूचीबद्ध की गई है। इसलिए धर्म के आधार पर किसी भी आदिवासी को उसके शिक्षा और रोजगार में आरक्षण प्राप्त करने के संवैधानिक अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता। इसलिए संघ-भाजपा द्वारा गैर-हिंदू धर्मांतरित आदिवासियों को डी-लिस्ट किए जाने की मांग ही संविधान विरोधी मांग है। लेकिन सभी जानते हैं कि संघी गिरोह का तो संविधान के बुनियादी मूल्यों पर ही कोई विश्वास नहीं है, तो फिर वह आदिवासियों के संवैधानिक अधिकारों को ही क्यों मान्यता देगी? वह तो आदिवासियों के हित में बनाए गए पेसा और वनाधिकार कानून तक का पालन करने के लिए तैयार नहीं है।
चौथा मुद्दा, भाजपा राज में अल्पसंख्यकों और महिलाओं पर लगातार बढ़ रहे हमलों का है। इंडिया हेट लैब की एक रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 2023 में मुस्लिमों और ईसाईयों सहित अन्य अल्पसंख्यकों पर हमलों की 823 घटनाएं दर्ज की गई हैं। इनमें से 75% घटनाएं भाजपा शासित राज्यों में हुई हैं। इन घटनाओं में अल्पसंख्यकों के साथ हिंसा करने के लिए उकसावे, यौनिक गाली-गलौज, मारपीट, उनके पूजा स्थलों को निशाना बनाने का आह्वान आदि घटनाएं शामिल हैं। दुर्ग में इन ननों के खिलाफ बजरंग दल के गुंडों ने जिस अभद्र और यौनिक भाषा का इस्तेमाल किया है, आदिवासी युवक सुखमन मंडावी के साथ पुलिस थाने में जैसी मारपीट की है, वह अत्यंत गंभीर घटना है। वास्तव में, मामला बजरंग दल के इन गुंडों के खिलाफ बनता है, जिन्होंने न केवल दुर्ग से आगरा के लिए यात्रा कर रही महिलाओं को गैर-कानूनी रूप से रोका, बल्कि कानून अपने हाथ में लेकर उनके साथ ‘हिंसक आचरण’ भी किया। इस निंदनीय आचरण का बचाव संघी गिरोह को छोड़कर और कोई नहीं कर सकता। सरकार और प्रशासन के बिना संरक्षण के ऐसी घटनाएं नहीं घट सकती और इस घटना के बाद उपद्रवियों के पक्ष में भाजपाई नेताओं के बयान इसका स्पष्ट प्रमाण हैं।
अंग्रेजों के समय से आज तक इस देश में ईसाई शैक्षणिक संस्थाएं सेवा और उत्कृष्टता के केंद्र हैं। ईसाई समुदाय, विशेष रूप से ननों और पादरियों ने स्वास्थ्य, शिक्षा और सामाजिक सेवा क्षेत्र में अभूतपूर्व योगदान दिया है। यही कारण है कि भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जे पी नड्डा सहित संघी गिरोह के कई बड़े नेता, जो आज हिंदुत्व के पुजारी बने हुए हैं, इन्हीं शिक्षा संस्थाओं से पढ़कर निकले हैं और उनका हिंदुत्व की कोई नसबंदी नहीं हुई है। इसलिए ईसाई संस्थाओं पर धर्मांतरण का थोक के भाव में आरोप लगाने का एक ही उद्देश्य है कि उनकी धार्मिक स्वतंत्रता को प्रतिबंधित किया जाएं और समाज में सांप्रदायिक विभाजन किया जाएं।
लेकिन जिस तरह बंगलादेश या कहीं और, हिंदुओं पर हमले होने पर हम चिंतित होते हैं, उसी तरह इस देश में मुस्लिमों या ईसाईयों या अन्य धार्मिक समूह के लोगों पर हमले या उन्हें उनके अधिकारों से वंचित करने की घटनाओं पर भी वैश्विक प्रतिक्रिया होती हैं। इसलिए हमारे देश की वैश्विक छवि इस बात पर निर्भर करती हैं कि हम अपने नागरिकों, खासकर अल्पसंख्यक समुदाय, के लोगों के साथ कैसा व्यवहार करते हैं।
इस देश में नेपाल और बांग्लादेश से तस्करी के जरिए हजारों लड़कियों को लाकर वेश्यावृत्ति की दलदल में धकेल दिया जाता है। लेकिन किसी तस्कर पर कार्यवाही होने का कोई समाचार नहीं मिलता।
इस देश में लाखों मजदूर दलालों के सहारे रोजगार पाने की आस में पलायन करते हैं, जहां उन्हें बंधुआ गुलामी का सामना करना पड़ता है। कुछ बंधुआ मजदूरों के मुक्त होने के समाचार तो मिलते हैं, लेकिन उन्हें बंधुआ बनाने वाले मालिकों के खिलाफ किसी तरह की कार्यवाही होने के कोई समाचार नहीं मिलते।
इस देश में हिंदू संस्थाओं और मंदिर-मठों के पास हजारों करोड़ रुपयों की संपत्ति है। लेकिन इसका उपयोग वे आम जनता के स्वास्थ्य, शिक्षा, कुपोषण को दूर करने के और उनकी भलाई के लिए उल्लेखनीय ढंग से कर रहे हैं, इसकी कोई सार्वजनिक जानकारी नहीं है।
लेकिन अल्पसंख्यकों, महिलाओं और आदिवासियों पर उनकी निजता, उनके संवैधानिक अधिकारों और उनके विश्वास पर हमला करने के लिए बहानों की कोई कमी नहीं है। राजधानी रायपुर सहित पूरे छत्तीसगढ़ में चर्चों और ईसाई समुदाय की प्रार्थना सभाओं पर धर्मांतरण के आरोप पर संघी गिरोह के हमले बढ़ रहे हैं और हमलावरों को सरकार और प्रशासन की सुरक्षा भी मिलती है, क्योंकि ये हमलावर संघी गिरोह की सांप्रदायिक राजनीति के हथियार हैं। छत्तीसगढ़ में संघ-भाजपा का हिंदू राष्ट्र अल्पसंख्यकों पर इसी तरह के हमलों और दमन से साकार किया जा रहा है।
(लेखक अखिल भारतीय किसान सभा से संबद्ध छत्तीसगढ़ किसान सभा के उपाध्यक्ष हैं। संपर्क : 94242-31650)
नोट- ये लेखक के निजी विचार हैं।
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