तर्कशक्ति, ज्ञान, नीर-क्षीर विवेक, समझ, कल्पनाशीलता सीखनी है तो पुस्तकों को मित्र बनाइए
डॉ. भानु प्रताप सिंह
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Agra, Uttar Pradesh, India. तर्कशक्ति, ज्ञान, नीर-क्षीर विवेक, समझ, कल्पनाशीलता सीखनी है तो पुस्तकों को मित्र बनाइए। व्यक्ति का पुस्तक से संबंध जन्म से लेकर मृत्यु तक होता है। सभी महापुरुषों को प्रेरणा किसी न किसी पुस्तक से मिली है। अगर आज बच्चों में पुस्तक पढ़ने के प्रति रुचि नहीं है तो इसके लिए मां-बाप का दोष है।
ये बातें अक्षरा साहित्य अकादमी द्वारा आयोजित राष्ट्रीय पुस्तक मेला 2023 के साहित्यिक मंच पर कार्यक्रम के चौथे सत्र में ऑथर्स गिल्ड ऑफ इंडिया के तत्वाधान में आयोजित विचार गोष्ठी में कही गईं। विषय था- डिजिटल मीडिया के दौर में पुस्तकों की उपयोगिता। पुस्तक मेला जीआईसी मैदान पर चल रहा है। विचार गोष्ठी का संचालन अकादमी की कोषाध्यक्ष और कवि श्रुति सिन्हा ने किया। डॉ. भीमराव आंबेडकर विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति और इतिहासवेत्ता प्रो. सुगम आनंद ने अध्यक्षता की। मुख्य अतिथि के रूप में जाने-माने पर्यटन विशेषज्ञ प्रोफेसर लवकुश मिश्रा ने भाग लिया। वरिष्ठ पत्रकार मधुकर चतुर्वेदी ने भी चर्चा में सभागिता की। वरिष्ठ पत्रकार डॉ. भानु प्रताप सिंह और साहित्यप्रेमी शरद गुप्ता ने सवाल किए।
प्रारंभ में प्रो. सुगम आनंद ने कहा- विज्ञान और प्रौद्योगिकी का परिवर्तन पुस्तकों को हमारे मोबाइल पर ले आया है। यह प्रगति का द्योतक है। इसके लाभ और हानि दोनों हैं। पुस्तकों का महत्व कभी कम नहीं होगा। तात्कालिक रूप से ज्ञान मोबाइल पर मिल जाता है लेकिन वह कहां तक ले जाएगा, इसके परिणाम क्या होंगे, यह सोचने का दृष्टिकोण तभी आएगा जब विस्तार से और आराम से पढ़ेगा। चाय की चुस्कियों के साथ पुस्तक पढ़ने का जो आनंद है वह आँख पर जोर डालकर टैब पर पढ़ने में नहीं है। पुस्तकें शॉर्ट फार्म में आपके पास पहुंच जाएंगी लेकिन इससे पुस्तकों का चिरंतन महत्व कम नहीं होगा। मोबाइल का उपयोग स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। पुस्तकों के महत्व को तभी समझ सकता है जब उसमें रचि की चीजें हों।
संचालन करते हुए श्रुति सिन्हा ने कहा कि परीक्षा में प्रश्न सभी विद्यालयों के लिए एक लेकिन 250 विद्यार्थियों का उत्तर अलग-अलग होता था। जो ज्ञान गुरु ने दिया, उस ज्ञान का चिंतन और मंथन उत्तर के रूप में आता था। अब कॉपी में करेक्शन करने की जरूरत नहीं पड़ती है क्योंकि सबके उत्तर समान होते हैं। आज पढ़ा और दो दिन बाद भूल गए। हमें अभी भी नौवीं का कोर्स याद है। साहित्य की कुछ कविताएं याद हैं। इसके पीछे हमारे गुरु और पुस्तकें हैं। पुस्तकें अच्छा नागरिक बनाने में मदद करती हैं। पुस्तक कभी साथ नहीं छोड़ती है लेकिन तकनीक साथ छोड़ सकती है। बिजली चली गई तो सोशल मीडिया बेकार है। कागज की महक ये नशा रूठने को है, किताबों से इश्क करने की ये आखिरी सदी है, मेरा यह कथन गलित हो जाए।
किताबें हमारी कल्पनाशीलता को बढ़ाती हैं, क्या सोशल माडिया ऐसा करता है?
प्रो. लवकुश मिश्राः हमारी समझ में गड़बड़ी हुई है। सूचना, समझ और ज्ञान में मूलभूत अंतर है। गूगल हमें सूचना दे सकता है लेकिन उसके बाद अपनी समझ अपने विचारों के अनुरूप विकसित कर सकते हैं। अनुभव और आने वाली चुनौती और सूचना की पैकेजिंग करें तो यह ज्ञान हो जाएगा। आर्टिफिशियली इंटेलीजेंस भाषण लिख रहा है लेकिन वह भावनाएं नहीं डाल सकता है। ओएमआर शीट पर परीक्षा से बच्चे की समझ का मूल्यांकन नहीं हो पाएगा। सोशल मीडिया की सूचना के आधार पर गलत प्रतिक्रिया होती है। जब तक नई पीढ़ी में समझ विकसित नहीं होगी, तब तक सोशल मीडिया की सूचनाएं गलत हैं तो गलत दिशा में ले जाएंगी। बुजुर्गों के अनुभव और ज्ञान को मिलाकर अपनी नई समझ विकसित कर सकते हैं।
अभिभावक अपने बच्चों को किस तरह प्रेरित करें कि वे फिर से पुस्तकों के पढ़न के युग में आ जाएं?
पत्रकार मधुकर चतुर्वेदीः भारत में जितने भी परिवार हैं उनकी प्रकृति रही है कि जो देखा जा रहा है, उसी का अनुसरण होता है। आज के माता-पिता जो बच्चों को दिखाएंगे और जैसा आचरण स्वयं करेंगे, बच्चे वैसा ही आचरण करेंगे। विद्यालय जाने से पहले बच्चा अपने घर में देखता है। सुंदरकांड, दुर्गा सप्तशती या विष्णु सहस्त्रनाम पढ़ते देखेगा तो वह भी पढ़ेगा। यह चीज समाप्त हो गई है। जब अभिभावक सुबह फूल पत्ती भेज रहे हैं तो वह भी फूल पत्ती ही भेजेगा। 30-40 की उम्र में साहित्य और पुस्तक प्रेम नहीं हो सकता है। बचपन में ही आदत बनानी होगी। अभी से चाउमीन मूमोज खिलाओगे तो वही पढ़ेगा। भारत देश का हर विषय पुस्तकों में है। दांतुन करने की बात भी पुस्तक में है। जीवन का हर विषय पुस्तक में है। जीवन का कोई भी आयाम हो उसकी जानकारी पुस्तक में है। गार्गी और याज्ञवल्क्य के संवाद में प्रारंभिक 15 सूत्र पाषाण पर संस्कृत में लिखे गए हैं, उन्हें समझकर व्याख्या की गई है। उस जमाने में पाषाण ही पन्नों के रूप थे। जीवन के सार लिखे हुए हैं।
क्या सोशल मीडिया वह जिम्मेदारी निभा रहा है जो पुस्तकें निभाती हैं?
प्रोफेसर सुगम आनंदः नहीं निभा रहा है। सोशल मीडिया पर जो भी सूचना आती है, उसकी सत्यता को परखना मुश्किल है। पुस्तक आपको प्रमाण दे रही है। सोशल मीडिया भावनाओं में बहा ले जाता है। आगरा के प्रख्यात सर्जन डॉ. एचएस असोपा रोज पुस्तक पढ़ते थे। बीमार हो जाने के कारण वे आधी पुस्तक पढ़ पाए। उनकी पौत्री ने वह पुस्तक चिता पर रख दी। यह दर्शाता है कि सभ्य समाज में जो भी बड़ा बना है, वह पुस्तक पढ़कर ही बना है। जितनी तरह का ज्ञान पुस्तकें देती हैं, वह सोशल मीडिया से नहीं मिल सकता है। पुस्तकें कभी खराब नहीं होगीं। जब मन करे तब पढ़ो। पुस्तकें चिंतन की वह शक्ति देती हैं, जो किसी भी समाज औऱ देश के लिए आवश्यक है। सभी आदर्श मूल्य पुस्तकों से मिलते हैं।
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