आज के अधिकांश अख़बारों से साहित्यिक पन्ने या तो पूरी तरह गायब हो चुके हैं या केवल खानापूरी तक सीमित हैं। लेखकों को छापकर उन्हें ‘कृपा’ का अनुभव कराया जाता है, परंतु सम्मानजनक मानदेय नहीं दिया जाता। अब कुछ मालिकान पुरस्कार योजनाएं बनाकर लेखक-सम्मान का दिखावा कर रहे हैं, जबकि बुनियादी ज़रूरत है — श्रम का मूल्य और साहित्य की जगह। लेखन कोई शौक नहीं, गहन परिश्रम है, जिसे मजूरी और मान चाहिए। पुरस्कार बाद में दीजिए, पहले लेखक को उसका मेहनताना दीजिए — यही सबसे बड़ा सम्मान होगा।
कभी अख़बारों के साहित्यिक पृष्ठों को देश की आत्मा कहा जाता था। वहां सिर्फ खबरें नहीं होती थीं, बल्कि विचार, विवेक और संवेदना की साझी विरासत सांस लेती थी। लेकिन आज जब हम अख़बार पलटते हैं, तो खबरें हैं, विज्ञापन हैं, राजनेताओं के प्रवचन हैं, पर कविता, कहानी, ललित निबंध, समीक्षा और विचारधारा का साहित्यिक पक्ष गायब है।
बड़ी विडंबना है कि जो मीडिया ‘प्रेस की स्वतंत्रता’ और ‘अभिव्यक्ति की आज़ादी’ का झंडा उठाए घूमता है, उसी ने अपने सबसे जरूरी हिस्से – साहित्य और साहित्यकारों को हाशिए पर धकेल दिया है। अख़बारों से साहित्यिक पन्ने चुपचाप ग़ायब कर दिए गए, और जो कुछ बचे हैं, उनमें भी केवल खानापूरी चल रही है।
लिखने वाले बचे हैं, पर छापने वाला कौन?
आज भी भारत में हजारों लेखक, कवि, निबंधकार, विचारक अपने मन की बात समाज तक पहुंचाना चाहते हैं। पर उन्हें जगह कहां मिलती है? अगर आप किसी अख़बार में साहित्यिक लेख भेजें तो या तो ‘संपादक व्यस्त हैं’ का जवाब मिलेगा, या कोई जवाब ही नहीं। जवाब मिला तो यह नहीं मालूम कि वह अस्वीकृति है या केवल औपचारिकता। और अगर छप भी गया — तो मानदेय? वो तो जैसे गाली मांग ली हो! कई अखबार बिना एक पैसा दिए लेखकों से नियमित सामग्री प्रकाशित करते हैं। और कुछ जगहों पर तो एक ऐसी व्यवस्था है जिसे लेखक-शोषण का मॉडल कहा जा सकता है — “छप कर खुश हो जाइए, पैसे का सवाल मत उठाइए।”
लेखकों का मानदेय नहीं, मगर मालिकान पुरस्कार देंगे!
अब सुनिए ताज़ा तमाशा —कुछ मीडिया संस्थान अब ‘लेखकों को पुरस्कार’ देने की योजना बना रहे हैं। वाह! आप पहले लेखकों से मुफ्त में लेख लिखवाते हैं, फिर उन्हें छपने के बदले में ‘कृपा’ समझते हैं, और अब पुरस्कारों का चारा डालकर आत्मसम्मान की हत्या कर रहे हैं। माना कि पुरस्कारों की परंपरा साहित्य में पुरानी है। लेकिन जब ये पुरस्कार उन हाथों से आने लगें जो लेखकों को रचनात्मक मजदूर नहीं, उपयोग की वस्तु समझते हैं, तो सवाल उठते ही हैं। क्या पुरस्कार उस संस्था की ओर से आना चाहिए जो मानदेय देने तक को बोझ समझती है?
‘साहित्यिक पृष्ठ’ अब सिर्फ रस्म अदायगी
अख़बारों में बचे हुए जो साहित्यिक कॉलम हैं, वे भी आज क्लबबाज़ी, गुटबाज़ी और व्यक्तिगत संबंधों की राजनीति के अड्डे बन चुके हैं। कुछ खास नामों को ही बार-बार छापा जाता है। नये लेखकों को तो जैसे इंट्री ही नहीं। मानदेय के नाम पर महीने भर बाद फोन घुमाइए, मेल भेजिए, और फिर भी… “आपका भुगतान प्रक्रिया में है”। कभी ‘धर्मयुग’, ‘साप्ताहिक हिंदुस्तान’, ‘कादम्बिनी’, ‘नवभारत टाइम्स’ जैसे स्तम्भ साहित्य की आवाज़ थे। आज तो ‘साहित्य’ शब्द से ही कुछ संस्थानों को एलर्जी हो गई है।
शब्दकर्मी भी मजदूर हैं, सिर्फ माइक वाले नहीं
पत्रकारिता में कैमरामैन, रिपोर्टर, एंकर, डिज़ाइनर सभी को वेतन मिलता है। लेकिन लेखकों को अब भी ‘हवा का प्राणी’ माना जाता है — उन्हें केवल सम्मान की तसल्ली चाहिए, पैसे की नहीं। यह सोच गहरी असंवेदनशीलता की परिचायक है।
लेखक कोई शौकिया कलाकार नहीं है, वह समय, श्रम, अध्ययन और संवेदना की मिट्टी से रचना करता है। उसकी लेखनी समाज को दिशा देती है, जनचेतना जगाती है। फिर उसे मज़दूरी देने में कंजूसी क्यों?
क्या आप पत्रकारिता को बिना विचार के चलाना चाहते हैं?
आज का अख़बार कॉर्पोरेट और सत्ता के गठजोड़ का माध्यम बनता जा रहा है। लेकिन जो लोग अखबारों को पढ़ते हैं, वे केवल हादसे, घोटाले और राजनीति नहीं चाहते — वे चाहते हैं वो दृष्टिकोण, जो उन्हें सोचने के लिए मजबूर करे। और यह काम साहित्य और विचारधारा ही कर सकती है। साहित्य न हो तो अख़बार सिर्फ ‘सूचना का कूड़ाघर’ बन जाएगा।
सोचिए — अगर समाज को दिशा देने वाला साहित्य गायब कर दिया गया, तो आप सूचना की भीड़ में विचारों की कब्रगाह ही तो बना रहे हैं।
सम्मान तब जब श्रम की कीमत दी जाए
यदि आप लेखक को “हम आपको सम्मानित करेंगे” कह रहे हैं, तो पहले यह भी सुनिश्चित कीजिए कि आप उसे समय पर भुगतान दे रहे हैं या नहीं, उसकी रचना को संपादित किए बिना तोड़-मरोड़ तो नहीं रहे, और उसे केवल ‘भराव’ का साधन तो नहीं बना रहे। सम्मान का सबसे पहला रूप होता है – श्रम का मूल्य। बाकी पुरस्कार, ट्रॉफी, सर्टिफिकेट, मंच — सब बाद में आते हैं।
एक अपील: शब्द का मूल्य जानिए
जो अख़बार अपने शब्दकर्मियों को मज़दूरी नहीं दे सकते,
उन्हें साहित्य के नाम पर आयोजन करने का नैतिक अधिकार नहीं है। यदि आप लेखक हैं, तो बिना मानदेय के रचना देना बंद कीजिए। खुले मंचों पर यह सवाल उठाइए कि साहित्य की जगह कहां है। और जो संस्थान आपको सिर्फ “छपने की खुशी” देते हैं, उनसे यह पूछिए — क्या यही लेखक का सम्मान है?
मीडिया की रीढ़ सिर्फ ब्रेकिंग न्यूज नहीं होती।
मीडिया की आत्मा वो विचार होते हैं, जो समाज को सजग बनाते हैं। और ये विचार आते हैं लेखकों, कवियों, चिंतकों, निबंधकारों की कलम से। अगर आपने उनकी कलम से मान देना बंद कर दिया,
तो एक दिन वही कलम आपके विज्ञापन-आधारित अखबारों की पोल खोल देगी।
-up18News
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