डॉ. भानु प्रताप सिंह
एक समय था जब राजनीति मुद्दों और सिद्धांतों की हुआ करती थी। इन सिद्धातों का जन-जन तक पहुंचाने के लिए पार्टी को संवर्ग आधारित (कैडर बेस) बनाने पर जोर रहता है। कैडर यानी पार्टी के लिए तन, मन, धन समर्पित करने वाले कार्यकर्ता। सिद्धांत के लिए कुछ भी करने के लिए उद्यत रहने वाले कार्यकर्ता। स्वयं प्रेरणा से काम करने वाले कार्यकर्ता। जिन्हें पद, धन, मान-सम्मान की चाह नहीं, ऐसे कार्यकर्ता कैडर कहलाते हैं। इन कार्यकर्ताओं के बलबूते पार्टी का जनाधार बढ़ता है। शनैः-शनैः पार्टी राज्य और केन्द्र की सत्ता प्राप्त करती है। फिर सरकार में कैडर को विभिन्न पदों पर समायोजित किया जाता है ताकि वे पार्टी के विचार को एक साथ पूरे देश-प्रदेश में प्रसारित कर सकें। कैडर में तरह-तरह के लोग होते हैं। एक वे जो जमीनी काम करते हैं और दूसरे विचारक होते हैं, जो पार्टी के पक्ष में विरोधी के खिलाफ नैरेटिव (कहानी) बनाते हैं और लोगों में फैलाते हैं। सामाजिक संचार (सोशल माडिया) के युग में विचारक कैडर की भूमिका महत्वपूर्ण हो गई है।
शुरू में कांग्रेस कैडर बेस पार्टी थी। एक वह जमाना भी था जब कांग्रेस से जुड़ने में गौरव की अनुभूति होती थी। इसी कैडर के बल पर कांग्रेस ने पूरे देश पर राज किया। कैडर बेस कार्यकर्ताओं की उपेक्षा होती गई तो वे कांग्रेस छोड़ते गए। इसका तत्काल कोई असर नहीं पड़ा। कांग्रेस के हाथ से पहले राज्यों और फिर केन्द्र की सत्ता निकलती चली गई। कांग्रेस सेवा दल कैडर बेस कार्यकर्ता तैयार करता था। सेवादल को महत्वहीन कर दिया गया। कांग्रेस में कोई कैडर बेस कार्यकर्ता नहीं बचे हैं। परिणाम सबके सामने है। इसी कैडर का कमाल है कि कम्युनिस्ट पार्टी ने पश्चिम बंगाल में एकछत्र राज किया। जैसे ही कैडर दरका, कम्युनिस्ट पार्टी भी सड़क पर आ गई। कम्युनिस्ट पार्टी में कैडर बेस है लेकिन लगातार कम हो रहा है।
बसपा ने स्वयं को कैडर बेस पार्टी बनाया। गरीब कार्यकर्ता भी जी जान से लग गया। फटेहाल होने के बाद भी पार्टी के लिए कार्यकर्ता लगे रहे। इसका सुपरिणाम यह रहा कि मायावती उत्तर प्रदेश की चार बार मुख्यमंत्री बनीं। पिछले दो चुनाव से बसपा के कैडर बेस कार्यकर्ताओं में यह संदेश चला गया कि बसपा की टिकट बेची जा रही हैं। इसके साथ ही कैडर बेस कार्यकर्ता निरुत्साहित हो गया। इस कारण बसपा का का क्या हाल हो गया है, यब सबके सामने है। आम आदमी पार्टी में भी कैडर बेस कार्यकर्ता हैं। देश की सबसे बड़ी पार्टी भारतीय जनता पार्टी कैडर बेस है। भाजपा को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भी कैडर बेस कार्यकर्ता उपलब्ध कराता है, जो प्रचारक होते हैं। किसी अन्य दल में इस तरह की व्यवस्था नहीं है। भाजपा को सत्तासीन करने में कैडर बेस कार्यकर्ताओं का महती योगदान है।
किस पार्टी में कितना दम है, यह चुनाव परिणाम से पता चलता है। इसी कारण प्रत्याशी खड़े किए जाते हैं। चुनाव हारेंगे, यह जानते हुए भी चुनाव लड़ने के लिए कैडर बेस कार्यकर्ता ही तैयार होते हैं क्योंकि वही हार का कलंक और कष्ट झेल सकते हैं। जैसे-जैसे प्रभाव बढ़ता जाता है तो अन्य दलों के नेता चुनाव के समय आ जाते हैं। चूंकि इनके सहारे सत्ता तक पहुंचना आसान होता है, इसलिए कैडर बेस कार्यकर्ता की बलि लेकर ‘आयाराम’ को चुनाव में प्रत्याशी बना दिया जाता है। 2012 और 2017 के चुनाव में बसपा की पराभव का सबसे बड़ा कारण कैडर बेस कार्यकर्ता की उपेक्षा को माना जाता है। कैडर निष्क्रिय हुआ तो सारी सोशल इंजीनियरिंग विफल हो गई। 2022 में भी यही हो रहा है। 2017 और 2022 को देखें तो भाजपा में भी ‘आयाराम-गयाराम’ और ‘तिकड़मबाज’ हावी हैं। हर चुनाव में ये ‘पैराशूटर’ पार्टी बदलते हैं क्योंकि ये उसी वार्टी का वरण करते हैं, जहां सत्ता की मलाई मिल सकती है। फिर चाहे वह लोकसभा चुनाव हो या विधानसभा। दो-तीन बार तो कैडर बेस कार्यकर्ता बलि दे देता है लेकिन जब हर चुनाव में पार्टी का यही चरित्र बन जाए तो वह निष्क्रिय हो जाता है। फिर सत्ता क्या, गठबंधन लायक भी नहीं बचती है पार्टी।
मैं विभिन्न दलों के कार्यकर्ताओं और नेताओं के संपर्क में रहता हूँ, सो जमीनी हकीकत से रूबर हूँ। बड़े दलों के नेता जमीनी कार्यकर्ता से कट जाते हैं। वे उसके सुख-दुख को नहीं समझते हैं यहां तक कि मिलते तक नहीं हैं। अगर कैडर बेस कार्यकर्ता निष्क्रिय हुआ तो सत्ताच्युत होने से कोई रोक नहीं सकता है। भारत में आज भी वोटर को घर से मतदान केन्द्र तक ठेलना पड़ता है। यह काम कैडर बेस कार्यकर्ता ही करता है। सत्ता की मलाई का दशमांश तो कैडर बेस कार्यकर्ता को मिलना ही चाहिए। सिर्फ चुनाव के वक्त निष्ठा दिखाने वाले नेता हों या कार्यकर्ता कभी भी कैडर नहीं हो सकते हैं। ये तो मौकापरस्त होते हैं। तभी तक साथ देंगे जब तक उनका हित सधता रहेगा। जैसे ही हितधार पूरा हुआ तो जहां से आए थे, वहीं के लिए फिर से उड़ जाएंगे। राजनीतिक दल इस संकेत को समझें। मनन करें।
और अंत में…
राजनीति पर स्वरचित एक दोहा आज भी मौजूं है-
राजनीति वेश्या हुई, बैठी कोठा जाय।
गर अंटी में नोट हैं, दासी लेउ बनाय।।
(लेखक जनसंदेश टाइम्स के कार्यकारी संपादक हैं)
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