kc jain

आदेश के बाद भी डॉक्टर नहीं लिखते जेनेरिक दवाइयां, आगरा के अधिवक्ता केसी जैन की याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने जारी किए नोटिस, 6 अक्टूबर को सुनवाई

BUSINESS

2002 में जेनेरिक दवाइयां लिखने के लिए रेगूलेशन बना था

याचिका में दवाइयों की एमआरपी का मुद्दा भी उठाया गया

 

Live Story Time

New Delhi/Agra, India. मेडिकल काउंसिल ऑफ इण्डिया द्वारा वर्ष 2002 में डाक्टरों द्वारा जेनरिक दवा लिखे जाने के रेगूलेशन बन जाने के 21 साल बाद भी जेनरिक दवाएं नहीं लिखी जाती हैं। जनेरिक की जगह ब्राण्डेड दवाऐं लिखी जाती हैं जिनकी कीमत जेनरिक दवाओं के मुकाबले कहीं अधिक होती है। केवल 20 प्रतिशत दवाओं के अधिकतम विक्रय मूल्य (एमआरपी) ड्रग प्राइस कण्ट्रोल ऑर्डर के अन्तर्गत होता है व शेष 80 प्रतिशत दवाओं की एमआरपी को निर्धारित करने के लिए कोई नियंत्रण नहीं है, जिसके कारण उनकी एमआरपी कई गुनी निर्धारित कर दी जाती है। इस कारण दवा खरीदने वालों को अधिक मूल्य देना पड़ता है। इन मुद्दों को लेकर वरिष्ठ अधिवक्ता के0सी0 जैन द्वारा सुप्रीम कोर्ट में दायर की गयी। जनहित याचिका को विचारार्थ स्वीकार करते हुए मुख्य न्यायाधीश डीवाई चन्द्रचूड़, न्यायमूर्ति जे0बी0 पारदीवाला व न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा की बेंच द्वारा नेशनल मेडिकल कमीशन व सभी स्टेट मेडिकल काउंसिल को नोटिस दिनांक 18.08.2023 को जारी करने के आदेश कर दिये।

याचिका में अधिवक्ता जैन ने यह उल्लेख किया कि जीवन के अधिकार के लिये दवाईयां जरूरी हैं लेकिन दवाईयों की अधिक कीमत के कारण कमजोर वर्ग के लोग उन्हें नहीं खरीद पाते हैं। मेडिकल काउंसिल के द्वारा वर्ष 2002 में बनाये गये रेगूलेशन सं. 1.5 के अनुसार डाक्टरों को दवाई जेनरिक नाम से लिखनी चाहिए। जन औषधि केन्द्र पर उपलब्ध दवाईयों की कीमत 50 प्रतिशत से 90 प्रतिशत तक कम होती है लेकिन डॉक्टर के पर्चे में न लिखे होने के कारण मरीज उसे नहीं खरीद पाते हैं। इसमें सुधार होना चाहिए।

मेडिकल काउंसिल द्वारा वर्ष 2012, 2013 व 2017 में डाक्टरों द्वारा जेनरिक दवाईयां लिखे जाने हेतु लिखा। 2016 में रेगूलेशन सं0 1.5 में संशोधन भी हुआ जिसके अनुसार प्रत्येक डाक्टर को जेनरिक दवाईयां लिखना अनिवार्य हो गया। लोक सभा में दिनांक 09.03.2018 को व राज्य सभा में 26.07.2022 को जेनरिक दवाईयां को अनिवार्य रूप से लिखे जाने की बात कही लेकिन पूरे भारतवर्ष में रेगूलेशन का अनुपालन नहीं हो रहा है।

याचिका में यह बात भी उठायी गयी कि ड्रग प्राइस कण्ट्रोल ऑर्डर 2013 के पैरा 14 के अनुसार शेड्यूल्ड दवाईयों को निर्धारित एमआरपी से अधिक नहीं बेचा जा सकता है लेकिन पेरा 20 के अनुसार नॉन शेडयूल्ड दवाईयों के एमआरपी निर्धारण की कोई प्रक्रिया नहीं है, जिसके कारण दवा बनाने वाली कम्पनियां जेनरिक दवाईयों की एमआरपी कई गुनी निर्धारित कर देती हैं। मरीजों को कहीं अधिक कीमत देनी पड़ती है। शेड्यूल्ड दवाईयों से तात्पर्य ड्रग प्राइस कण्ट्रोल ऑर्डर के शेडयूल में दी गयी दवाईयों से है। केवल 20 प्रतिशत दवाईयों का ही शेड्यूल में उल्लेख है जिसके कारण 80 प्रतिशत दवाईयों की एमआरपी पर कोई नियंत्रण नहीं है। याचिका में मांग की गयी कि इस व्यवस्था में सुधार होना चाहिए और सभी दवाईयों के एमआरपी निर्धारित ढंग से तय होनी चाहिए।

याचिका में राजस्थान उच्च न्यायालय के दो निर्णयों का भी सन्दर्भ दिया गया जो वर्ष 2011 व 2012 में दिये गये थे जो विजय मेहता व वागर सेवा संस्थान ट्रस्ट के थे जिसमें डाक्टरों द्वारा जेनरिक मेडीसन को लिखे जाने के निर्देश दिये गये थे।

अधिवक्ता जैन ने बताया कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा जनहित याचिका का संज्ञान लेने के उपरान्त अब 06.10.2023 दिनांक नियत की है। सुप्रीम कोर्ट यदि इस प्रकरण में आदेश पारित करता है तो स्वास्थ्य के क्षेत्र में बड़ा बदलाव आ सकेगा।

 

 

Dr. Bhanu Pratap Singh