संवेदना का नया वैश्विक रूप, जिसमें भावना नहीं, ‘कूलनेस’ बिकती है…

डॉ सत्यवान सौरभ हम एक ऐसे समय में जी रहे हैं जहाँ लोग अपनी मां को वृद्धाश्रम छोड़ आते हैं, लेकिन कुत्तों के लिए मखमली बिस्तर खरीदते हैं। जहाँ बच्चे की फीस चुकाना कठिन होता है, पर पालतू जानवर के लिए सालगिरह पार्टी देना ‘प्यारा’ माना जाता है। यह वह युग है जहाँ संवेदना की […]

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“स्क्रॉल संस्कृति और अंधविश्वास: तकनीक के युग में मानसिक गुलामी”

डॉ सत्यवान सौरभ आज का युग तकनीक और सूचना का है। हर हाथ में मोबाइल है, हर जेब में इंटरनेट। लेकिन क्या वास्तव में हम ज़्यादा जागरूक हुए हैं, या बस स्क्रीन पर फिसलती उंगलियों के गुलाम बन गए हैं? विज्ञापन, वीडियो, मीम्स, रील्स और टोटकों की अंतहीन दुनिया में लोग उलझे हुए हैं। “स्क्रॉल […]

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अख़बारों में साहित्य की हत्या और शब्दकर्मियों की बेइज़्ज़ती

डॉ सत्यवान सौरभ आज के अधिकांश अख़बारों से साहित्यिक पन्ने या तो पूरी तरह गायब हो चुके हैं या केवल खानापूरी तक सीमित हैं। लेखकों को छापकर उन्हें ‘कृपा’ का अनुभव कराया जाता है, परंतु सम्मानजनक मानदेय नहीं दिया जाता। अब कुछ मालिकान पुरस्कार योजनाएं बनाकर लेखक-सम्मान का दिखावा कर रहे हैं, जबकि बुनियादी ज़रूरत […]

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आम जो बना कभी फल, कभी फरिश्ता, कभी फंदा!

नब्बे के दशक में हमने सुना था कि भारत-पाकिस्तान के बीच सरहद पर गोलियां चल रही हैं. लेकिन खबर ये भी थी कि दोनों मुल्क एक-दूसरे को आम भेज रहे हैं. तब इसे ‘मैंगो डिप्लोमेसी’ कहा गया था. आज, 2025 में, बांग्लादेश की अंतरिम सरकार के प्रमुख प्रोफेसर मुहम्मद यूनुस ने भारत को 1,000 किलो […]

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बचपन में दिल का दर्द: क्या हमारी जीवनशैली मासूम धड़कनों की दुश्मन बन गई है?

प्रियंका सौरभ स्वतंत्र पत्रकार, कवयित्री और व्यंग्यकार भारत में बच्चों में हार्ट अटैक की घटनाएं तेजी से बढ़ रही हैं। इसका संबंध बच्चों की बदलती जीवनशैली, खान-पान, मानसिक तनाव और स्क्रीन टाइम से है। स्कूलों में नियमित हेल्थ जांच, योग, पोषण शिक्षा और अभिभावकों की जागरूकता से ही इस खतरे को रोका जा सकता है। […]

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बड़ा सवाल: “बचपन को अख़बारों में जगह क्यों नहीं?”

प्रियंका सौरभ रविवार की सुबह बेटे प्रज्ञान को गोद में लेकर अख़बार से कोई रोचक बाल-कहानी पढ़ाने की इच्छा अधूरी रह गई। किसी भी प्रमुख अख़बार में बच्चों के लिए एक भी रचना नहीं थी। समाज बच्चों को पढ़ने के लिए कहता है, पर उन्हें पढ़ने को क्या देता है? यह संपादकीय हमारे समाचार पत्रों […]

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सावन मनभावन: भीगते मौसम में साहित्य और संवेदना की हरियाली

डॉ सत्यवान सौरभ सावन केवल एक ऋतु नहीं, बल्कि भारतीय जीवन, साहित्य और संस्कृति में एक गहरी आत्मिक अनुभूति है। यह मौसम न केवल धरती को हरा करता है, बल्कि मन को भी तर करता है। लोकगीतों, झूले, तीज और कविता के माध्यम से सावन स्त्रियों की अभिव्यक्ति, प्रेम की प्रतीक्षा और विरह की पीड़ा […]

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“कृत्रिम बुद्धिमत्ता: नवाचार की उड़ान या बौद्धिक चोरी का यंत्र?”

प्रियंका सौरभ स्वतंत्र पत्रकार, कवयित्री और व्यंग्यकार कृत्रिम बुद्धिमत्ता (एआई) आज नई रचनात्मकता का माध्यम बन चुकी है, पर यह बहस का विषय है कि क्या यह नवाचार, रचनाकारों की मेहनत की चोरी पर टिका है? अमेरिका में अदालतों ने एआई द्वारा ‘सीखी गई’ सामग्री को उचित प्रयोग माना, पर रचनाकार असंतुष्ट हैं। भारत में […]

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पुस्तक समीक्षा: “बोल म्हारी माटी”- माटी री बोली में घुली कविता री आत्मा

हरियाणा रा नाम आवै तो मन मैं दूध-दही, खेत-खलियाण, पहलवान, चौपाल, बागड़ी-जेबड़ी बोली अर सादगी भर्यी जिन्दगी सै। पर इस हरियाणा री धरती तले जड़ी माटी में एक आंधरी बात सै – संवेदना। डॉ. सत्यवान सौरभ की किताब “बोल म्हारी माटी” इस संवेदना नै कविता में ढाल के हमारे ताई ल्याई सै। ई बही केवल […]

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ई-वोटिंग: लोकतंत्र की मजबूती या तकनीकी जटिलता?

डॉ सत्यवान सौरभ ई-वोटिंग मतदान प्रक्रिया को सरल, सुलभ और व्यापक बनाने की दिशा में एक क्रांतिकारी कदम हो सकता है। बिहार के प्रयोग से स्पष्ट है कि मोबाइल ऐप के माध्यम से मतदान प्रतिशत में बढ़ोतरी संभव है। हालांकि, तकनीकी पहुंच, साइबर सुरक्षा, मतदाता की पहचान और गोपनीयता जैसी चुनौतियाँ इस प्रणाली के समक्ष […]

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