आपातकाल के दौरान अख़बारों ने विरोध में अपना संपादकीय कॉलम ख़ाली छोड़ा था। आज औपचारिक सेंसरशिप नहीं है, लेकिन आत्म-सेन्सरशिप, भय और ‘राष्ट्रभक्ति’ के नाम पर विचारों का गला घोंटा जा रहा है। सवाल पूछना देशद्रोह बन गया है, और संपादकीय अब सत्ता के प्रवक्ता हो गए हैं। ऐसे समय में जब हर शब्द जोखिम बन चुका है, तब एक रिक्त संपादकीय शायद सबसे शक्तिशाली चीख है — यह कहता है, “हम अभी मौन हैं, लेकिन गूंगे नहीं हुए हैं।”
“आपातकाल में अख़बारों ने विरोध में अपने संपादकीय स्तंभ ख़ाली छोड़ दिए थे। आज संपादकीय लिखे जा रहे हैं — लेकिन जैसे ख़ालीपन भीतर भर गया है।”
1975 में जब इंदिरा गांधी ने आपातकाल घोषित किया था, तब विरोध का मतलब जेल जाना था, कलम उठाना मतलब कागज़ छिन जाना था। फिर भी ‘इंडियन एक्सप्रेस’, ‘जनसत्ता’, ‘प्रतिपक्ष’ और कई क्षेत्रीय अख़बारों ने अपना संपादकीय कॉलम रिक्त छोड़कर सत्ता के विरुद्ध मौन का सबसे मुखर रूप चुना था।
आज आपातकाल घोषित नहीं है। प्रेस की आज़ादी का कोई औपचारिक निलंबन नहीं हुआ। फिर भी पत्रकार जेल में हैं। कुछ मारे गए, कुछ बिक गए, कुछ खामोश हो गए। एक पूरी पीढ़ी है जिसे मालूम ही नहीं कि लोकतंत्र में अख़बार सरकार से सवाल पूछते हैं, आरती नहीं।
नया लोकतंत्र वह है जहाँ सरकार बोलती है, जनता सुनती है। सत्ता झूठ बोले, मीडिया उसे स्लोगन बना दे। कोई किसान मर जाए, कोई छात्र रो ले, कोई स्त्री चीखे — तो कैमरे का एंगल बदल दिया जाए। नया लोकतंत्र वह है जहाँ “देशद्रोह” अब अभिव्यक्ति की सीमा नहीं, असहमति की परिभाषा है। जहाँ “राष्ट्रवाद” अब जनहित नहीं, सत्ता हित की पोशाक बन चुका है।
क्योंकि जब सब लिखा जा चुका हो, लेकिन कुछ भी छपने लायक न बचे — तब स्याही सूख जाती है। 1975 में डर बाहर था, टैंक और वर्दियों में। आज डर भीतर है, टीआरपी और फंडिंग के नाम पर। 1975 में सेंसर अफसर बिठाए गए थे। आज पत्रकारों ने खुद ही सेंसरशिप को आत्मसात कर लिया है। जो लिखते थे, अब ‘जुबान फिसलने’ के दोषी बना दिए गए हैं। जो सोचते हैं, उन्हें आईटी सेल के शोर में दबा दिया गया है। जो सच दिखाते हैं, उनकी स्क्रीन ‘ब्लैकआउट’ कर दी जाती है।
कभी यह अनुरोध होता था — “कृपया शांत रहें।” अब यह सत्ता का आदेश है — “चुप रहो, वरना देशद्रोही कहलाओगे।” बोलना अब खतरनाक नहीं, अवैध हो गया है। कविता लिखना अब भाव नहीं, ‘विचारधारा’ कहलाता है। सवाल पूछना अब नागरिक कर्तव्य नहीं, गुनाह है। “शांत रहिए” अब सिर्फ रेल स्टेशनों पर नहीं बजता, यह हर न्यूज़ चैनल, हर अख़बार, हर सोशल मीडिया पोस्ट की चेतावनी बन चुका है।
आपातकाल में जनता ने आवाज़ उठाई। जेल गए, आंदोलन किए। लेकिन आज हम एक अघोषित आपातकाल के भीतर हैं — और चुप हैं। शायद क्योंकि आज की सेंसरशिप हिंसा की नहीं, सुविधा की है। शायद इसलिए कि अब डर नहीं दिखता, वो आकर्षक पैकेज में छिपा है — “सब अच्छा है”, “बढ़ता भारत”, “विश्वगुरु”। हम वह पीढ़ी हैं जिसने सत्य की जगह नैरेटिव चुन लिया है। जिसने अख़बार से खबर हटाकर इवेंट बना दिया है। जिसने संविधान की प्रस्तावना पढ़ी भी है, पर समझी नहीं।
क्योंकि शब्द अब प्रभावहीन हैं? नहीं। क्योंकि अब कोई सुनने वाला नहीं? नहीं। बल्कि इसलिए कि कभी-कभी चुप्पी खुद एक चीख बन जाती है। “रिक्त संपादकीय” आज फिर ज़रूरी है — क्योंकि हर शब्द अब रेखांकित हो रहा है, हर वाक्य विश्लेषित हो रहा है, और हर असहमति पर मुकदमा दर्ज हो रहा है। कभी-कभी खाली पन्ना वो कह देता है जो शब्द नहीं कह सकते।
हमारा पाठक अब बस मनोरंजन चाहता है। संपादकीय पढ़ना उसकी रुचि में नहीं रहा। वह सत्य की खोज में नहीं, ‘रिलेट करने लायक’ कंटेंट में रुचि रखता है। वह “ट्रेंड” में जीता है, “तथ्य” में नहीं। तो अख़बार भी अब वही परोसते हैं — वही चेहरे, वही घिसे-पिटे विचार, वही सत्तानुकूल भाषा।
अगर आप संपादकीय रिक्त देखते हैं — चौंकिए मत। समझिए, कोई कुछ कह नहीं पा रहा। अगर आप संपादकीय में ‘भक्ति’ पढ़ते हैं — समझिए, कलम मजबूरी में झुकी है या बिक चुकी है। अगर आप अभी भी लिख रहे हैं — तो अपने भीतर एक सवाल ज़रूर उठाइए: क्या मेरी कलम सत्ता के हित में चल रही है या समाज के?
जब किसी गांव की दलित औरत को पीट दिया जाएगा — और उसका वीडियो वायरल होगा, जब किसी छात्र को नारेबाज़ी के आरोप में जेल भेजा जाएगा, जब किसी कवि की किताब पर प्रतिबंध लग जाएगा, या जब किसी संपादक को सिर्फ इसलिए नौकरी से निकाला जाएगा क्योंकि उसने सच छाप दिया… तब शायद कोई फिर से बोलेगा:
“संपादकीय रिक्त है — क्योंकि लोकतंत्र अभी मौन है।”
लेखिका परिचय:
प्रियंका सौरभ एक स्वतंत्र लेखिका, कवयित्री और पत्रकार हैं, जो समकालीन भारत में लोकतंत्र, सामाजिक न्याय और महिला मुद्दों पर मुखर लेखन के लिए जानी जाती हैं।
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