12 जून 2025 को अहमदाबाद के आसमान में जो हुआ, वह सिर्फ एक विमान दुर्घटना नहीं थी — यह उस पूरे ढांचे का मलबा था, जो कागज़ों में “रिफॉर्म” के नाम पर चमकता है, सरकार और निजी क्षेत्र जिसे ‘सुधार’ और ‘आधुनिकीकरण’ की चमकदार पैकेजिंग में जनता को दिखाते हैं, लेकिन ज़मीनी हकीकत में वह सड़ चुका है। एयर इंडिया की उड़ान AI171, टेकऑफ़ के कुछ ही मिनट बाद एक रिहायशी इलाके पर गिरी, 241 लोग मारे गए, दर्जनों घायल हुए, बीजे मेडिकल कॉलेज का छात्रावास जमींदोज़ हो गया। लेकिन असली सवाल अब भी हवा में हैं: यह हादसा क्यों हुआ, और इसके लिए ज़िम्मेदार कौन है?
टाटा समूह को एयर इंडिया सौंपते समय सरकार ने तालियाँ बजाईं, राष्ट्रवाद के लबादे में निजीकरण की पूजा की गई, और टाटा ने वादा किया कि वह ‘महाराजा’ को फिर से उड़ाएगा। दो साल में नए विमान ऑर्डर हुए, नया लोगो आया, विलय की घोषणाएँ हुईं, लेकिन इन सबके बीच एक बुनियादी बात छूट गई — सुरक्षा। यही सबसे बड़ा धोखा था। वह ड्रीमलाइनर विमान, जिसने उड़ान भरते ही संकट संकेत भेजा और फिर संपर्क तोड़ दिया, क्या उसकी तकनीकी स्थिति पहले से संदिग्ध नहीं थी? क्या एयरलाइन ने लागत बचाने के चक्कर में मेंटेनेंस और सुरक्षा को हाशिए पर डाल दिया?
जिन 241 लोगों की मौत हुई, वे सिर्फ आँकड़े नहीं हैं। उनमें वे छात्र भी थे, जो परीक्षा की तैयारी कर रहे थे; वे माता-पिता थे, जो अपने बच्चों से मिलने जा रहे थे; वे डॉक्टर, इंजीनियर, कलाकार थे, जिन्हें किसी कॉर्पोरेट प्रेजेंटेशन में नहीं गिना जाएगा। टाटा समूह ने हादसे के बाद मृतकों के परिजनों को एक-एक करोड़ रुपये मुआवज़ा देने और हॉस्टल के पुनर्निर्माण की घोषणा की — यह संवेदनशीलता नहीं, कॉर्पोरेट जगत की क्राइसिस मैनेजमेंट और डैमेज कंट्रोल नीति है। सवाल यह नहीं है कि कितनी राशि दी गई, सवाल यह है कि विमान को उड़ान की अनुमति किस आधार पर दी गई?
सरकार की भूमिका भी कम नहीं है। प्रधानमंत्री से लेकर नागरिक उड्डयन मंत्री तक, सभी ने ‘गंभीर चिंता’ प्रकट की — वही रटी-रटाई संवेदना, जो हर दुर्घटना के बाद दोहराई जाती है। लेकिन क्या डीजीसीए की निगरानी केवल कॉन्फ्रेंस, टेंडर आदि की कागज़ी औपचारिकता भर तक सीमित रह गई है? उस विमान का आख़िरी सुरक्षा ऑडिट कब और कैसे हुआ था? किसने साइन किया था, किस रिपोर्ट के आधार पर उड़ान को हरी झंडी दी गई?
बात केवल विमान की नहीं, ज़मीन की भी है। निजीकरण को विकास का पर्याय मानने वाली सरकारें क्या कभी यह सुनिश्चित करती हैं कि जिन कंपनियों को ज़मीन, हवाई अड्डे और एयरलाइंस सौंपी जा रही हैं, वे जनता की ज़िम्मेदारी को समझती भी हैं या नहीं? अहमदाबाद एयरपोर्ट का संचालन अडानी समूह के पास है। क्या हादसे के बाद वहां की आपातकालीन प्रतिक्रिया प्रणाली ने समय पर और प्रभावी कार्रवाई की? क्या निजीकरण के इस मॉडल में सुरक्षा प्राथमिकता है, या मुनाफा ही पहला लक्ष्य बन गया है?
सरकार जो हवाई अड्डों से लेकर एयरलाइनों तक सब कुछ निजी हाथों में सौंप रही है, क्या वह यह भी सुनिश्चित कर रही है कि ये निजी संस्थान सार्वजनिक जिम्मेदारियों को समझते हैं? टाटा समूह को भारतीय कॉर्पोरेट विश्वसनीयता का प्रतीक माना जाता रहा है। लेकिन अब वही समूह इस भीषण हादसे के बाद कोई संतोषजनक बात जनता तक नहीं पहुँचा पाया है। बयानबाज़ी, मुआवज़ा और कॉर्पोरेट साइलेंस – ये फिलहाल काफी नहीं हैं और न ही उन परिवारों के लिए काफी जोकि इस हादसे से बिगड़े और बिखरे हैं।
बाज़ार ने प्रतिक्रिया दी — टाटा समूह के शेयर गिरे, निवेशकों का भरोसा डगमगाया। लेकिन आम जनता को कौन जवाब देगा? क्या 241 शवों की राख पर कॉर्पोरेट बैलेंस शीट में मुनाफे-नुकसान के ग्राफ खींचे जाएंगे? यह हादसा केवल एक विमान के गिरने की घटना नहीं थी — यह उस भरोसे का ढह जाना था, जिसके आधार पर लोग विमान में बैठते हैं, यह मानकर कि उनकी जान किसी कंपनी की ‘कॉस्ट कटिंग’ स्लाइड में नहीं रखी गई है।
अभी की स्थिति में केवल न भावुक बयान काफी हैं, न मुआवज़ा। जवाब आने चाहिए — वह भी पारदर्शी, सार्वजनिक और ठोस। टाटा समूह को सामने आकर बताना होगा कि उस विमान की उड़ान के पहले किन तकनीकी दस्तावेज़ों को क्लीयर किया गया था। सरकार हमेशा की तरह “जांच जारी है” की ढाल के पीछे छुपी है। प्रधानमंत्री से लेकर नागरिक उड्डयन मंत्री तक, सबने “गंभीर चिंता” जताई है, लेकिन किसी ने यह नहीं बताया कि डीजीसीए, एयरपोर्ट ऑपरेटर और एयरलाइन के बीच समन्वय की कमी कैसे हुई। सरकार को डीजीसीए के भीतर जांच आयोग बैठाकर सार्वजनिक करना होगा कि कौन अधिकारी इस लापरवाही के लिए ज़िम्मेदार हैं।
सवाल सिर्फ यह नहीं है कि यह हादसा क्यों हुआ। असली सवाल यह है कि क्या अगली उड़ान भी इसी लापरवाही के साथ भरी जाएगी?
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-विनोद भारद्वाज-
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार है )
-साभार सहित
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