मृदंगम की थाप से स्वागत करता है केरल का यह गांव

मृदंगम की थाप से स्वागत करता है केरल का यह गांव

साहित्य


पलक्कड़ के पेरुवेम्बा गांव में प्रवेश करने के बाद कुछ भी असाधारण नहीं दिखेगा और आप चलते हुए बड़ी आसानी से गांव की सीमा से बाहर की ओर भी जा सकते हैं। पर तभी इस गांव की असल पहचान से भी आपका सामना होगा। दरअसल, इस छोटे से गांव को दो भागों में बांटती सड़क पर पैदल चलते हुए एक खास स्थान पर मृदंगम पर पड़ती थाप सुनायी देती है। यहां रुककर चमड़े के अन्य वाद्यों पर पड़ते थाप को महसूस करने की जरूरत है। वे थापें मृदंगम, तबला, चंडा, मद्दलम आदि की हो सकती हैं। ये कलाकारों की नहीं बल्कि कारीगरों द्वारा दी गयी थाप की आवाजें होती हैं। धान की हरी चादर के बीच बसे इस गांव में चमड़े के इन वाद्य यंत्रों का निर्माण होता है। पांच परिवारों की कई पीढ़ियां इस काम में लगी हुई हैं। स्थानीय लोगों का मानना है कि पेरुवेम्बा गांव के ये परिवार दो सौ साल से इस कार्य को करते आ रहे हैं। हर साल बड़ी संख्या में अलग-अलग जगहों के वादक आकर अपने लिए वाद्य यंत्र खरीद कर ले जाते हैं। केरल और केरल के बाहर के लोग अपने वाद्य यंत्रों को ठीक करवाने, उनके स्वर को सुंदर बनवाने भी आते हैं।
कठोर और कोमल का अद्भुत मिश्रण है वाद्य यंत्र निर्माण
गर्मी के महीनों में वे खूब काम करते हैं क्योंकि केरल की लंबी बारिश में चमड़े और लकड़ी पर आधारित उनका काम रुक जाता है। इस तरह उन दिनों वे बेकार हो जाते हैं। इन वाद्य यंत्रों को बनाने का कार्य बड़ा श्रमसाध्य है। लकड़ी पर चमड़े को बिठाना और उसे चमड़े के धागों और पट्टियों से इस तरह बांधना कि अलग-अलग प्रकार के यंत्रों से अपना विशिष्ट स्वर निकले। इस जटिल प्रक्रिया में बहुत जोर-जोर से लकड़ी के हथौड़े से चोट भी करनी पड़ती है। एक बारीक संतुलन भी बनाया जाता है। वाद्य यंत्रों को बनाने का यह कार्य कठोर और कोमल का अद्भुत मिश्रण है।
परिवार में संगीत सीखने की परंपरा
इस इलाके में एक विशेष प्रकार के संगीत की प्रसिद्धि है। यहां पारंपरिक रूप से कर्नाटक संगीत सीखने वाले ‘भागावतार’ कहलाते हैं। इनके गुरु नहीं होते हैं, ये अपने परिवार की परंपरा में ही संगीत सीखते हैं और उसका अभ्यास करते हैं।
पलक्कड़ के कावाश्शेरी गांव के एक भागावतार हैं ‘केपीके कुट्टी’। वे कर्नाटक संगीत को अलग तरीके से समृद्ध कर रहे हैं। अस्सी की उम्र पार कर चुके ‘केपीके’ अपने गांव कावाश्शेरी के 25 किलोमीटर के दायरे में पड़ने वाले मंदिरों में साढ़े तीन सौ से ज्यादा बच्चों को कर्नाटक संगीत सिखाते हैं। पूरे इलाके में ‘कुट्टी सार’ के नाम से विख्यात केपीके के लिए दशहरा बहुत महत्वपूर्ण है। जब वे आसपास के गांव के बच्चों को लेकर उनके मंदिर में आते हैं, जहां वे पूजा-अर्चना के बाद उन्हें सरगम सिखाते हैं। इस तरह संगीत के इस चलते-फिरते विद्यालय में उनका दाखिला होता है।
-एजेंसियां

Dr. Bhanu Pratap Singh