समाज में अब बेटी की निगरानी नहीं, दादी और सास की होती है। तकनीक और आज़ादी के इस युग में रिश्तों की परिभाषा बदल गई है। जहाँ पहले लड़कियों की सुरक्षा सबसे बड़ी चिंता थी, अब वही महिलाएं अपनी आज़ादी के साथ नई दुनिया की खोज में हैं। पुरुषों की निगरानी पर स्त्रियाँ भी चौकस हो गई हैं। रिश्ते अब उम्र और संस्कार से नहीं, टेक्स्टिंग फ्रिक्वेंसी से तय होते हैं। यह व्यंग्य समाज के बदलते चेहरे को हँसते-हँसते सोचने पर मजबूर करता है — आखिर अब कौन भागेगा?
कभी सामाजिक डर और परिवार की इज्जत की चिंता बेटियों की निगरानी का आधार हुआ करती थी। ये वो दौर था जब बेटी की सादगी, उसके रहन-सहन पर कड़ी नजर रखी जाती थी। मोहल्ले के चौपाल में सबसे बड़ा मुद्दा यही होता था कि “लड़की भाग गई,” जैसे कोई बड़ी दुर्दशा हुई हो। आज का जमाना अलग है। आज तकनीक और आज़ादी के ज़माने में चौकसी की दिशा ही बदल चुकी है। अब निगाहें बेटियों पर नहीं, बल्कि दादी, सास, भाभी, और काकी पर टिक गई हैं। यही नहीं, अब “कौन भागा?” यह सवाल बेटियों के लिए नहीं, बल्कि घर की “अनुभवी महिलाओं” के लिए बन गया है। यह नया सामाजिक हकीकत है, जिसमें हंसी-ठिठोली के बीच गंभीर सवाल भी छिपे हैं।
कुंवारी नहीं, कुलवधुएँ फरार हैं!
एक समय था जब समाज में कुंवारी लड़कियों का भागना गंभीर मामला माना जाता था। वह भागना कहीं कोई भटकाव नहीं, बल्कि “इज्जत” का संकट होता था। माँ-बाप, रिश्तेदार, मोहल्ला — हर कोई इसी चर्चा में मशगूल रहता। पर आज स्थिति पूरी तरह बदल गई है। आज बेटियाँ करियर बना रही हैं, आत्मनिर्भर बन रही हैं। पढ़ाई, नौकरी, प्रतियोगिता की भागदौड़ में उनकी “भागना” के मायने ही बदल गए हैं। मगर घर की “अनुभवी महिलाएँ” — यानी माँ, भाभी, काकी, दादी — व्हाट्सएप पर “मिसिंग यू माई सनशाइन” के स्टेटस लगाकर, ‘लोकेशन ऑफ’ कर फ़िक्र से दूर कहीं निकल जाती हैं। कहीं बाहर घूमने, दोस्तों से मिलने, तो कहीं नए-नए ‘फ्लर्ट’ की खोज में।
यह स्थिति देखना है तो बहुत ही हास्यास्पद और एक बार सोचने पर चिंताजनक भी है। जो पीढ़ी संस्कारों की किताबें पढ़ाकर लड़कियों को संभालती थी, वही अब खुद संस्कारों को नया अर्थ दे रही है।
चारित्रिक उलटफेर का युग
वह दौर याद करें जब “संस्कार” का मतलब था संयम, पाबंदी, और परम्परागत नैतिकता। आज की दादी इंस्टाग्राम और फेसबुक पर अपनी फोटो शेयर करती है, योगा के बजाय ‘यार’ के साथ मिलने चली जाती है। भाभी सिर्फ पारिवारिक रीति-रिवाज नहीं निभाती, बल्कि ‘लीडर’ की तरह अपने दोस्ती और डेटिंग लाइफ को सेलिब्रेट करती है। इन सब बदलावों में परंपराओं का टूटना या फिर उनका नया अवतार — दोनों ही बातें सच हैं। जो पीढ़ी नैतिकता का फण्डामेंटल थी, आज वही ‘गुप्त चैटिंग’, ‘सीक्रेट ट्रिप्स’ और ‘मोडर्न फ्रेंडशिप’ के बीच उलझी हुई दिखती है।
पुरुषों की निगरानी पर स्त्रियों का ‘रिवर्स स्ट्राइक’
पुराने समय में परिवार और समाज में पुरुषों का नियंत्रण और निगरानी महिलाओं पर केंद्रित थी। पति, भाई, पिता के लिए महिलाओं की गतिविधियाँ सबसे महत्वपूर्ण होती थीं। मोबाइल नहीं था तो आंखों की चौकसी, गुप्त बातचीत की जांच। आज की पीढ़ी में यह संतुलन पलट गया है। पति अब मोबाइल पासवर्ड छिपाने के बजाय पूछते हैं — “तुमने किसका मैसेज डिलीट किया?” बेटा घबराकर सोचता है, “माँ कहीं प्यार में तो नहीं पड़ गई?” यानी अब पुरुष भी ‘निगरानी’ की जाल में फंसे हैं। यह ‘रिवर्स स्ट्राइक’ कई बार घर के माहौल को कंफ्यूज़िंग बना देती है। यह वही घर है जहां रिश्तों की पाबंदी होती थी, आज वही रिश्ते ‘टेक्स्टिंग फ्रिक्वेंसी’, ‘लोकेशन शेयरिंग’, और ‘वीडियो कॉल’ की पकड़ में हैं।
नई पीढ़ी की जिम्मेदारी बनाम पुरानी की आज़ादी
जिस बेटी की जिंदगी कभी पहरेदारी का विषय होती थी, आज वही बेटी घर की हर छोटी-बड़ी जिम्मेदारी निभा रही है। EMI के किस्ते से लेकर बच्चों की पढ़ाई तक, हर घर की ‘संचालन’ में वह लगी हुई है। और घर की बुजुर्ग महिलाएँ — सास ‘वेलनेस रिट्रीट’ पर हैं, दादी ‘रील’ बनाती हैं और सोशल मीडिया पर सक्रिय हैं। जीवन में आज़ादी का मतलब बदल गया है — अब ‘फ्रीडम’ की परिभाषा पुराने संस्कारों से हटकर सोशल मीडिया और डिजिटल दोस्ती तक सीमित है।
रिश्तों की दिशा बदल रही है
रिश्ते अब उम्र, जाति, या सामाजिक स्तर से नहीं, बल्कि ‘इच्छा’ और ‘संपर्क की आवृत्ति’ से जुड़ते हैं। पहले रिश्ते स्थायी होते थे, अब ‘टेक्स्टिंग फ्रिक्वेंसी’, ‘इमोशनल स्टेटस’ और ‘लास्ट सीन ऑन/ऑफ’ ही रिश्तों की डिग्री तय करते हैं। स बदलाव में परिवार के मूल्यों की भी धज्जियां उड़ रही हैं। माता-पिता की भूमिका एक गाइड की बजाय ‘फ्रेंड’ की हो गई है। घर के अंदर अब बेटियों की नहीं, दादियों की निगरानी ज़रूरी हो गई है। यह एक विचित्र सामाजिक उलझन है, जो हमारी ‘आज़ादी’ और ‘संस्कार’ की जुगलबंदी को समझने पर मजबूर करती है।
तकनीक: विकल्प या भ्रम?
तकनीक ने जीवन को आसान बनाने के साथ-साथ रिश्तों को जटिल भी किया है। व्हाट्सएप, फेसबुक, इंस्टाग्राम जैसे प्लेटफ़ॉर्म्स ने संवाद के नए ज़रिया दिए, मगर वे पारिवारिक नज़दीकियों में दूरी भी लाए। जहाँ पहले चाय की प्याली के साथ घंटों बैठकर बातें होती थीं, आज वही बातचीत ‘डबल क्लिक’ और ‘डिलीट’ बटन के बीच सीमित हो गई है। इसके चलते रिश्तों की स्थिरता कम, उलझनें ज़्यादा बढ़ीं।
सामाजिक विडंबना और नया यथार्थ
इस सारे बदलाव का सबसे बड़ा असर यह है कि समाज की पुरानी धारणा — जहां बेटियों की इज्जत और व्यवहार को केंद्र माना जाता था — अब धुंधली पड़ गई है। अब एक ‘अधिकृत’ सवाल यह है कि क्या बेटी भागी है या दादी? क्या परिवार में बेटियों के लिए पहले जैसी पाबंदी रह गई है? या अब ‘जिम्मेदार’ और ‘आजाद’ महिलाएं अपनी जगह ले चुकी हैं? यह सवाल हँसी के साथ-साथ सामाजिक चिंतन का विषय भी है। आज के समय में रिश्ते, परिवार और नैतिकता के नए मायने तलाशने होंगे।
यह समाज की व्यंग्यात्मक तस्वीर हमें हँसाती है, पर साथ ही गंभीर सोच पर मजबूर भी करती है। क्या यह बदलाव आज़ादी का जश्न है, या रिश्तों का पतन? क्या तकनीक ने हमारे विकल्प बढ़ाए हैं, या भ्रम फैला दिया है? और सबसे अहम — अब जब कोई भागे, तो नाम पूछने से पहले बस इतना पूछिए — “उसका लास्ट सीन ऑन था या ऑफ?”
-प्रियंका सौरभ
(स्वतंत्र लेखिका, व्यंग्यकार, कवि एवं सामाजिक विश्लेषक। हिंदी के समसामयिक मुद्दों पर पैनी दृष्टि के लिए जानी जाती हैं।)
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