नोशनल वेतन वृद्धि न देने के लिए शासनादेशों की मनमानी व्याख्या से उपजी पीड़ा
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आगरा, उत्तर प्रदेश, भारत। पेंशनर शिक्षकों के हृदय में आज एक असहनीय वेदना का संनाद गूंज रहा है। वह वेदना, जो अन्याय के कंटीले बाणों से छिद्रित होकर उपजी है, वह करुणा, जो अपने ही श्रम और समर्पण के प्रतिफल से वंचित होने की त्रासदी से उत्पन्न हुई है। राष्ट्रीय शैक्षिक महासंघ उत्तर प्रदेश के वरिष्ठ उपाध्यक्ष एवं संघर्ष समिति के अध्यक्ष डॉ. देवी सिंह नरवार के नेतृत्व में आयोजित एक सभा में यह पीड़ा स्पष्ट रूप से मुखर हुई। उप शिक्षा निदेशक आगरा, श्री मनोज कुमार गिरि, द्वारा नोशनल वेतनवृद्धि के प्रकरण में अपनाया गया मनमाना रवैया इस पीड़ा का मूल कारण बनकर उभरा है।
शासनादेश का अपमान किया जा रहा
शिक्षा अधिकारियों की स्वेच्छाचारिता ने पेंशनरों के मध्य एक ज्वालामुखी-सी आग प्रज्वलित कर दी है। शासनादेशों में स्पष्ट रूप से उल्लिखित प्रावधानों के अनुसार, 01 जनवरी 2006 से 01 जनवरी 2016 के मध्य 30 जून को सेवानिवृत्त हुए सभी शिक्षकों को नोशनल वेतनवृद्धि का लाभ प्राप्त होना चाहिए। किंतु अधिकारियों ने इस प्रावधान की आत्ममुग्ध व्याख्या करते हुए इसे केवल 30 जून को जन्म लेने वालों तक सीमित कर दिया है। यह मनमानी न केवल शासनादेशों का अपमान है, अपितु उन शिक्षकों के जीवन-संघर्ष का भी तिरस्कार है, जिन्होंने अपने स्वर्णिम वर्ष शिक्षा के प्रकाश से समाज को आलोकित करने में व्यतीत किए।
एकता का स्वर और विद्रोह की हुंकार
नागरी प्रचारिणी सभा, आगरा में आयोजित इस सभा में पेंशनरों का आक्रोश एक प्रचंड नाद बनकर गूंज उठा। एक स्वर में उन्होंने घोषणा की कि वे अपने अधिकारों के लिए अंतिम सांस तक संघर्ष करेंगे, चाहे इसके लिए कितना भी बलिदान देना पड़े। संघर्ष समिति के संयोजक डॉ. कुंजिल सिंह चाहर ने इस पीड़ा को एक निर्णायक आंदोलन का रूप देने का प्रस्ताव रखा। यदि 20 अप्रैल तक यह लाभ सुनिश्चित न हुआ, तो 21 अप्रैल से उप शिक्षा निदेशक के कार्यालय के समक्ष सांकेतिक क्रमिक धरना आरंभ होगा। यह धरना केवल एक प्रदर्शन नहीं, अपितु एक संकल्प है—शासनादेशों का पालन कराने और अपने हक को प्राप्त करने का अटल संकल्प।
संगठन की शक्ति और रणनीति का निर्माण
सभा में उपस्थित डॉ. योगेन्द्र सिंह, श्री के.पी. सिंह, मनोज कुमार, किशन लाल गुप्ता आदि ने इस संकल्प को और दृढ़ किया। एक समिति का गठन हुआ, जो जनपद के सभी पेंशनरों को इस आंदोलन से जोड़ेगी। यह एकता ही उनकी शक्ति है, और यह शक्ति ही अन्याय के विरुद्ध उनका सबसे प्रबल शस्त्र बनेगी।
धरना-कार्यक्रम को सफल बनाने के लिए व्यापक तैयारी का संकल्प लिया गया, जिसमें हर पेंशनर की भागीदारी सुनिश्चित की जाएगी। यह संगठित प्रयास ही उनके हक की लड़ाई को मंजिल तक पहुंचाएगा।
अन्याय के विरुद्ध संग्राम का प्रारंभ
पेंशनरों का यह आंदोलन केवल एक लाभ की मांग नहीं, अपितु सम्मान और न्याय की पुकार है। 30 जून को सेवानिवृत्त सभी शिक्षकों को उनका अधिकार दिलाने के लिए यह संघर्ष निर्णायक होगा। अधिकारियों की मनमानी के समक्ष यह धरना एक चेतावनी है कि अब और सहनशीलता नहीं बरती जाएगी। शिक्षा अधिकारियों को यह समझना होगा कि उनके निर्णय केवल कागजी नहीं, बल्कि उन जीवन को प्रभावित करते हैं, जिन्होंने शिक्षा के मंदिर को अपनी तपस्या से सींचा है।
भविष्य की राह और संकल्प की दृढ़ता
इस सभा ने न केवल वर्तमान की पीड़ा को उजागर किया, बल्कि भविष्य के लिए एक मार्ग भी प्रशस्त किया। 21 अप्रैल से शुरू होने वाला क्रमिक धरना इस संग्राम का प्रथम चरण होगा, किंतु यदि आवश्यक हुआ तो यह आंदोलन और व्यापक रूप ले सकता है। पेंशनरों ने स्पष्ट कर दिया कि वे अपने हक के लिए किसी भी सीमा तक जाएंगे। यह संकल्प उनकी दृढ़ता का प्रमाण है, जो अन्याय के अंधेरे को चीरकर न्याय का प्रकाश स्थापित करने को तत्पर है।
इन्होंने रखे विचार
बैठक में संघर्ष समिति के अध्यक्ष डॉ. देवी सिंह नरवार, संयोजक डॉ. कुंजिल सिंह चाहर, शैक्षिक महासंघ के जिलाध्यक्ष डॉ. योगेन्द्र सिंह, कोऑडिनेटर श्री केपी सिंह, मनोज कुमार, किशन लाल गुप्ता, काशीराम चाहर, नरोत्तम सिंह चाहर, महेश चन्द शर्मा, निरंजन प्रसाद शर्मा, जालिम सिंह, ओमप्रकाश जैन, रनवीर सिंह कंसाना, अर्जुन सिंह चाहर, रामेश्वर दयाल शर्मा आदि ने विचार व्यक्त किये। बैठक की अध्यक्षता डॉ. कुंजिल सिंह चाहर ने की। संचालन जिलाध्यक्ष डॉ. योगेन्द्र सिंह ने किया।
संपादकीय टिप्पणी
पेंशनर शिक्षकों की यह पीड़ा केवल एक समूह की व्यथा नहीं, अपितु एक संपूर्ण व्यवस्था के नैतिक पतन का द्योतक है। शिक्षा, जो समाज का आधार है, उसके प्रहरी जब अपने ही अधिकारों के लिए सड़कों पर उतरने को विवश हों, तो यह प्रश्न उठता है कि क्या हमारा प्रशासनिक तंत्र अपनी संवेदनशीलता और कर्तव्यनिष्ठा खो चुका है? शासनादेशों की मनमानी व्याख्या न केवल इन शिक्षकों के प्रति अन्याय है, बल्कि उन मूल्यों का भी अपमान है, जिनके लिए ये शिक्षक जीवन भर लड़े। यह आवश्यक है कि प्रशासन इस मुद्दे पर संवेदनशीलता दिखाए और पेंशनरों के हितों की रक्षा करे, अन्यथा यह आंदोलन एक व्यापक विद्रोह का रूप ले सकता है। समय रहते चेतना ही श्रेयस्कर होगा।
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