पुण्‍यतिथि: हिंदी के प्रतिष्ठित कवि, लेखक और आलोचक मलयज

पुण्‍यतिथि: हिंदी के प्रतिष्ठित कवि, लेखक और आलोचक मलयज

साहित्य


हिंदी के प्रतिष्ठित कवि, लेखक और आलोचक मलयज का निधन 26 अप्रैल 1982 को हुआ था। आजमगढ़ (उत्तर प्रदेश) में जन्‍मे मलयज का असल नाम भरत श्रीवास्तव था।
रामचन्द्र शुक्ल की आलोचनात्‍मक दृष्टि को पुनर्व्याख्यायित करने में मलयज का महत्त्वपूर्ण योगदान है, जिसके कारण हिंदी आलोचना जगत में वे विशेष उल्लेखनीय माने जाते हैं।
उन्होंने हिन्दी साहित्य में नेहरू युग के बाद की रचनाधर्मिता और उसके परिवेश को समझने विश्लेषित करने में अपना बड़ा योगदान दिया।
मलयज की आलोचना का मिज़ाज एक विशुद्ध अकादमिक आलोचक की आलोचना से भिन्न है। एक गहरी संवेदनशीलता और लगाव के साथ वे कृति के आंतरिक संसार में उतरते हैं। उनकी आलोचना का परिप्रेक्ष्य विघटित होते मूल्यों के दौर में संवेदनशीलता के नए रूपों की शिनाख्त है। भाषा सौन्दर्य रुचि और अनुभव सँजोने वाला तंत्र उनके बुनियादी विश्लेषण के आधार रहे हैं। रोष, व्यंग्य, कुढ़न, ललकार, विषाद, करुणा, भावुकता और आत्मदया के तमाम शेड्स वाली समकालीन रचनाशीलता के विभिन्न संसारों को समझने का उन्होंने प्रयत्न किया है। दूसरी तरफ़ उनकी कविताओं में खास तरह की वैचारिक तीक्ष्णता और संवेदनात्मक छटपटाहट नज़र आती है । रघुवीर सहाय ने उनकी कविताओं पर टिप्पणी करते हुए उन्हें एक नई शैली और एक नई व्यक्ति गरिमा दोनों की एक साथ खोज कहा है।
कवि-आलोचक मलयज लिखते हैं कि ‘कविता मेरे लिए एक आत्मसाक्षात्कार है और आलोचना उसी कविता से साक्षात्कार। आलोचना का संसार कविता के संसार का विरोधी, उसका विलोम या उसका प्रतिद्वन्द्वी संसार नहीं है, बल्कि वह कविता के संसार से लगा हुआ समानान्तर संसार है। ये दोनों संसार अपनी-अपनी जगह पर स्वतंत्र सर्वप्रभुता सम्पन्न संसार है, पर दोनों के बीच एक मित्रता की सन्धि है।’
उनका सांस्कृतिक एवं साहित्यिक विकास इलाहाबाद की ‘परिमल’ पाठशाला में हुआ। उनके जीवन-काल में केवल चार पुस्तकें प्रकाशित हुईं। दो कविता-संग्रह ‘जख्म पर धूल’ (1971) और ‘अपने होने को अप्रकाशित करता हुआ’ (1980)। एक पुस्तक सर्वेश्वर के साथ सम्पादित ‘शमशेर’ (1971) और एक आलोचना-पुस्तक ‘कविता से साक्षात्कार’ (1979)। ‘हँसते हुए मेरा अकेलापन’ (1982), ‘संवाद और एकालाप’ (1984), ‘रामचन्द्र शुक्ल’ (1987) और तीन खण्डों में प्रकाशित ‘मलयज की डायरी’ (2000) बाद की पुस्तकें हैं।
हिंदी के ख्यात आधुनिक आलोचक रविभूषण लिखते हैं – ‘मलयज फिलहाल कहीं से भी साहित्यिक-वैचारिक परिदृश्य में नहीं हैं। संभव है कवियों, आलोचकों, गंभीर पाठकों और सुधरे जनों को उन पर कुछ भी लिखना आज के समय में बहुत अटपटा और बेसुरा लगे क्योंकि कविता में सब कुछ ‘शुभम् शुभम्’ है और आलोचना में शिखर आलोचक पर लिखे जा रहे संस्मरणों का अंबार है।
मलजय जैसे एकान्त में ही अपने जीवित रहने की ऊर्जा इकट्ठी करते थे। कवि-आलोचक मलयज का मानना था कि ‘समाज-व्यवस्था को सिर्फ गरीब बदल सकता है- इस बदलाव में सिर्फ उसी की दिलचस्पी है। अमीर केवल यथास्थिति बनाए रखना चाहता है।
-Legend News

Dr. Bhanu Pratap Singh