अंग क्षेत्र की अति प्राचीन कलाकृति मंजूषा! चित्रकारी की एक ऐसी विधा, जो कथा के साथ-साथ घूमती है। जिसके साथ जुड़ी है लोकगाथा। घर-घर गाए जाने वाले गीत। उस बिहुला की कहानी, जो पति के प्राण वापस लाने को मंजूषा के साथ उतर पड़ी थी चंपा नदी में।
अंग क्षेत्र की मिट्टी में इस आंचलिक लोककथा की महक है और मंजूषा में उसके दर्शन। तो फिर घर-घर मंजूषा क्यों नहीं? एक गंभीर सवाल है अपनी सांस्कृतिक विरासत का। पीले, हरे और गुलाबी रंगों का इस्तेमाल कर उकेरी जाने वाली अति प्राचीन कलाकृति मंजूषा से अंग क्षेत्र तो वाकिफ है, पर देश-दुनिया कब होगी। सवाल सिर्फ सांस्कृतिक विरासत भर का नहीं, इससे जुड़ी अर्थव्यवस्था का भी है। रोजी-रोजगार का भी है, क्योंकि किसी भी क्षेत्र की ऐसी धरोहर अपने साथ सामाजिक-सांस्कृतिक और आर्थिक रिश्ते भी गढ़ती है।
अपना शहर भागलपुर रेशम नगरी के रूप में मशहूर है तो इन धागों पर मंजूषा की चित्रकारी कितनी मनोहारी होगी। फर्नीचर से लेकर चाबी के रिंग तक पर इसकी छाप न सिर्फ इसे और खूबसूरत बनाने, बल्कि रोजगार के अवसर पैदा करने में भी सक्षम हैं। यह सब हो भी रहा है पर एक व्यापक स्वरूप की भी जरूरत है ताकि एक महान कला की गूंज दूर-दूर तक सुनाई दे। इसे नई पीढ़ी तक पहुंचाने वाली चक्रवर्ती देवी यादों में हैं। निर्मला देवी की थाती हो या उलूपी झा के प्रयोग। मनोज पंडित का अनवरत प्रयास। मनोज पांडेय, सुभाष या अनुकृति, अच्छी बात यह कि लंबी फेहरिस्त बनती जा रही है। नई पीढ़ी भी उत्सुक होकर इस ओर निहार रही। इसे प्रचारित-प्रसारित करने के साथ हर स्तर पर भरपूर सहयोग की दरकार भर है। इसी को लेकर अभियान शुरू किया है- घर सजे मंजूषा से, ताकि लोग इसे जानें-समझें।
-एजेंसियां
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