हिन्दी साहित्यकार चन्द्रबली पाण्डेय का आज जन्मदिन है। वह 25 अप्रैल 1904 को उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ जिला अंतर्गत नसीरुद्दीन पुर नामक गाँव में पैदा हुए थे।
उन्होने हिंदी भाषा और साहित्य के संरक्षण, संवर्धन और उन्नयन में अपने जीवन की आहुति दे दी। वे नागरी प्रचारिणी सभा के सभापति रहे तथा दक्षिण भारत में हिन्दी का प्रचार-प्रसार किया। उन्होंने हिन्दी को भारत की राष्ट्रभाषा का दर्जा प्रदान कराने में ऐतिहासिक भूमिका निभायी।
चन्द्रबली पाण्डेय ने काशी हिंदू विश्वविद्यालय से हिंदी में एमए किया था और वे आजीवन नैष्ठिक ब्रह्मचारी रहे। उनके जीवन का एकमात्र लक्ष्य साहित्यसाधना थी। आचार्य रामचंद्र शुक्ल के शिष्यों में इनका मूर्धन्य स्थान था। गुरुवर्य का प्रगाढ़ स्नेह इन्हें प्राप्त था। अपने पिता का यही नाम होने के कारण आचार्य शुक्ल इन्हें ‘शाह साहब’ कहा करते थे। ऐसे योग्य शिष्य की प्राप्ति का शुक्ल जी को गर्व था।
चन्द्रबली पाण्डेय उर्दू, फारसी और अरबी के विद्वान् थे। अंग्रेजी, संस्कृत और प्राकृत भाषाओं के भी वो अच्छे पंडित थे। इनके स्वभाव में सरलता और अक्खड़पन का अद्भुत मेल था। निर्भीकता और सत्यप्रेम इनके नैसर्गिक गुण थे। इन्होंने जीवन में कभी पराजय स्वीकार नहीं की।
‘तसव्वुफ अथवा सूफीमत’ नामक इनका ग्रंथ इनकी विद्वत्ता का पुष्ट प्रमाण है। इनकी साहित्य निष्ठा और प्रगाढ़ पांडित्य देखकर हिंदी साहित्य सम्मेलन ने एक बार इन्हें अपना सभापति चुना था।
सन् 1984 में अखिल भारतीय हिंदी साहित्य सम्मेलन का जो विशेषाधिवेशन हैदराबाद में हुआ था, वो उसके सभापति थे।
उस समय कतिपय राजनीतिज्ञ हिंदी के स्थान पर ‘हिंदुस्तानी’ नाम से एक नई भाषा को प्रतिष्ठित करने का अथक प्रयास कर रहे थे, जो प्रकारांतर से उर्दू थी। उसके विरोध में पांडेय जी ने अपनी दृढ़ता, अटूट लगन, निर्भीकता और प्रगाढ़ पांडित्य से राजनीतिज्ञों की कूटबुद्धि को हतप्रभ कर दिया था। पांडेय जी को साहित्य विषयक शोधकार्य में विशेष रस मिलता था। उनके छोटे से छोटे निबंध में भी उनकी शोधदृष्टि स्पष्टत: देखी जा सकती है।
पांडेय जी के स्वरचित ग्रंथों की संख्या तो अधिक है किंतु जो कुछ भी उन्होंने लिखा है, वह अत्यत महत्वपूर्ण है। इनकी छोटी बड़ी सभी कृतियों की संख्या 34 के लगभग है, जिनमें से 3 अँग्रेजी में रचित हैं। कालिदास, केशवदास, तुलसीदास, राष्ट्रभाषा पर विचार, हिंदी कवि चर्चा, शूद्रक और हिंदी गद्य का निर्माण इनके प्रमुख ग्रंथ हैं।
‘केशवदास’ और ‘कालिदास’ नामक इनकी कृतियों पर इन्हें क्रमश: राजकीय पुरस्कार प्राप्त हुए थे। ‘तसव्वुफ अथवा सूफीमत’ उनकी प्रसिद्ध रचना है। राष्ट्रभाषा के संग्राम में 1932 से लेकर 1949 तक हिन्दी-अंग्रेजी और उर्दू में लगभग दो दर्जन पैम्पलेटों की रचना की। प्रकांड भाषाशास्त्री डॉ. सुनीति कुमार चटर्जी ने एक बार कहा था ‘पांडेय जी के एक एक पैंफ्लेट भी डॉक्टरेट के लिए पर्याप्त हैं।’
-एजेंसियां
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