भारत एक उष्णकटिबंधीय देश है जहाँ अधिकतर भागों में ग्रीष्मकाल प्रचंड गर्मी लेकर आता है। ऐसे में जब हम भारतीयों को अंग्रेजी सूट-पैंट जैसे शीतकालीन परिधानों में पाते हैं, तो यह केवल जलवायु के प्रतिकूलता का प्रश्न नहीं बनता, बल्कि सांस्कृतिक, ऐतिहासिक और मनोवैज्ञानिक विमर्शों की ज़रूरत भी पैदा करता है। देश में ग्रीष्मकाल के समय विभिन्न राज्यों में 40 से 48 डिग्री तक तापमान पहुँच जाता है। ऐसी प्रचंड गर्मी में जब हम भारतीयों को सूट-बूट और टाई जैसे पश्चिमी, शीतकालीन पोशाकों में लिपटा हुआ देखते हैं, तो यह प्रश्न उठता है—क्या यह फैशन है, औपचारिकता है, या फिर किसी गहरी मानसिक गुलामी की छाया?
यह लेख इसी प्रश्न की पड़ताल करता है कि आखिर भारतीय ग्रीष्म में पाश्चात्य वस्त्रों की यह ‘ठंडी छाया’ क्यों बनी हुई है—क्या यह एक सामाजिक आदत है या औपनिवेशिक मानसिकता की विरासत? और लेख इसी जटिलता को उद्घाटित करता है कि क्यों भारत में गर्मियों के बावजूद पाश्चात्य परिधान जैसे सूट पहनना आम है, और इसका संबंध उपनिवेशवादी मानसिकता से कैसे जुड़ा हुआ है।
1. ऐतिहासिक पृष्ठभूमि: अंग्रेजी पोशाक का प्रवेश भारत में
1.1 उपनिवेशवाद और परिधान का प्रभुत्व
ब्रिटिश राज के दौरान न केवल भारत की राजनीति और अर्थव्यवस्था बदली, बल्कि भारतीयों की जीवनशैली, रहन-सहन और पहनावा भी गहराई से प्रभावित हुआ। अंग्रेज़ों ने प्रशासनिक पदों, न्यायालयों और शैक्षणिक संस्थानों में अपने परिधानों को औपचारिकता की निशानी बना दिया। इस प्रभाव का परिणाम यह हुआ कि भारतीयों ने इन कपड़ों को ‘सभ्य’, ‘शालीन’ और ‘आधुनिक’ होने के पर्याय के रूप में स्वीकार करना आरंभ कर दिया।
1.2 ‘सूट’ का प्रतीकात्मक वर्चस्व
सूट को औपचारिकता, प्रतिष्ठा और सत्ता का प्रतीक मान लिया गया। धीरे-धीरे यह समझ विकसित हुई कि जो व्यक्ति सूट पहनता है वह शिक्षित, सक्षम और सत्ता के निकट है। यह धारणा आज तक कायम है।
1.3 मानसिकता: वस्त्रों के माध्यम से चेतना पर नियंत्रण
ब्रिटिश राज केवल राजनीतिक नियंत्रण नहीं था, बल्कि भारतीयों की सोच, व्यवहार और आत्म-परिभाषा को भी नियंत्रित करने का प्रयास था। अंग्रेजों ने प्रशासनिक और न्यायिक पदों के लिए एक खास ड्रेस कोड लागू किया—सूट, टाई, कोट, गाउन आदि। धीरे-धीरे भारतीय समाज ने इन्हें ‘प्रतिष्ठा’ और ‘सभ्यता’ के प्रतीक के रूप में स्वीकार कर लिया। इस प्रक्रिया ने भारतीयों के मन में यह धारणा बैठा दी कि पारंपरिक वस्त्र पिछड़ेपन का चिन्ह हैं और अंग्रेजी पोशाकें ही आधुनिकता की निशानी हैं।
1.4 जलवायु और शरीर की अनदेखी:
भारत की जलवायु सूती, खादी जैसे हल्के और हवादार वस्त्रों के अनुकूल है। पारंपरिक धोती, कुर्ता, पायजामा, लुंगी, साड़ी जैसे परिधान ग्रीष्म में शरीर को ठंडक पहुंचाते हैं और त्वचा को खुलापन देते हैं। इसके विपरीत, सूट-बूट या टाई जैसे वस्त्र घुटन पैदा करते हैं, पसीना रोकते हैं और त्वचा रोगों की संभावना बढ़ाते हैं। फिर भी इन्हें पहनना ‘शालीनता’ और ‘प्रेजेंटेशन’ का मानदंड बना हुआ है।
1.5 सामाजिक प्रतिष्ठा बनाम आत्मसम्मान
आज भी कई भारतीय सोचते हैं कि अगर किसी शादी, मीटिंग, या इंटरव्यू में सूट नहीं पहना गया तो लोग उन्हें कमतर समझेंगे। यह मानसिकता उस औपनिवेशिक मनोवृति से जुड़ी है, जहाँ ‘पश्चिमी दिखना’ श्रेष्ठता की निशानी बन गया। यही कारण है कि भारतीय युवक सूट पहनकर खुद को ‘स्मार्ट’ महसूस करता है, लेकिन पारंपरिक पहनावे में असहज हो जाता है—यह आत्मगौरव की नहीं, बल्कि सांस्कृतिक हीन भावना की निशानी है।
1.6 संस्थानों में मजबूरी: ड्रेस कोड का गुलामीकरण
न्यायपालिका, नौकरशाही, शिक्षा संस्थान—इन सभी में आज भी औपनिवेशिक ड्रेस कोड बना हुआ है। वकीलों को गर्मी में भी ब्लैक कोट पहनना अनिवार्य है। सरकारी अधिकारी भी औपचारिक मीटिंगों में सूट-बूट पहनने को बाध्य हैं। यह मजबूरी अब परंपरा बन चुकी है—चाहे तापमान 45 डिग्री हो, कोट पहनना एक ‘प्रोटोकॉल’ माना जाता है।
2. भारतीय ग्रीष्म और शरीर के लिए अनुपयुक्त वस्त्र
2.1 भौगोलिक असंगति
भारत के अधिकतर भागों में गर्मी 40 डिग्री सेल्सियस से ऊपर चली जाती है। ऊनी, सिंथेटिक और शरीर से चिपकने वाले सूट-पैंट जैसे कपड़े शरीर की गर्मी को बाहर नहीं निकलने देते, जिससे स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं पैदा होती हैं – जैसे त्वचा रोग, पसीने की अड़चन, शरीर का ओवरहीट होना आदि।
2.2 स्वदेशी वस्त्रों की उपेक्षा
भारत के पारंपरिक परिधान – जैसे खादी, सूती कुर्ता-पाजामा, धोती, लुंगी, और चादरें – जलवायु के अनुकूल, शरीर के लिए स्वच्छ और आरामदायक होते हैं। लेकिन इन्हें ‘गंवई’ और ‘अप्रगतिशील’ मानकर हाशिए पर डाल दिया गया।
3. मानसिक उपनिवेशवाद: वस्त्रों के माध्यम से चेतना पर नियंत्रण
3.1 मस्तिष्क में बसा पश्चिम
अंग्रेज़ों ने न केवल देश पर राज किया, बल्कि भारतीय मानस को भी अपने रंग में रंगने का कार्य किया। अंग्रेजी शिक्षा, नौकरशाही व्यवस्था और न्यायालयों में सूट-बूट को अनिवार्य बनाकर उन्होंने यह सुनिश्चित किया कि भारतीय न केवल शासित रहें, बल्कि मानसिक रूप से भी स्वयं को नीचा समझें।
3.2 सामाजिक मान्यता और ‘आधुनिकता’ का भ्रम
सूट पहनने को उच्च सामाजिक वर्ग से जोड़कर देखा गया। जिनके पास पहनने को कुछ भी नहीं था, वे भी विशेष अवसरों पर सूट पहनने की आकांक्षा रखने लगे। इसे ‘मॉडर्न’ या ‘क्लासी’ दिखने की आकांक्षा कहा जा सकता है, जो वस्तुतः उपनिवेशवाद का दुष्परिणाम है।
4. संस्थागत मजबूरी और ड्रेस कोड की पाश्चात्य छाया
4.1 न्यायपालिका और नौकरशाही में अंग्रेजी पोशाक की अनिवार्यता
भारतीय न्याय व्यवस्था में वकील और न्यायाधीश आज भी कोट, टाई और गाउन पहनते हैं – यह अंग्रेजी कोर्ट की नकल है। इसी तरह सरकारी दफ्तरों, बैंक और अन्य कार्यालयों में भी सूट-बूट को ‘औपचारिक’ ड्रेस कोड के रूप में अनिवार्य किया जाता है, भले ही तापमान 45 डिग्री क्यों न हो।
4.2 शिक्षा संस्थानों में भी वही परंपरा
कई निजी स्कूलों और कॉलेजों में छात्रों को गर्मियों में भी टाई, बेल्ट, ब्लेज़र पहनना पड़ता है। यह न केवल स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है बल्कि मानसिक असुविधा का कारण भी बनता है।
5. सांस्कृतिक संकोच और पहचान का संकट
5.1 भारतीयता से दूरी
आज का भारतीय युवा सूट-बूट पहनने में गर्व महसूस करता है लेकिन पारंपरिक परिधान जैसे धोती या पगड़ी को ‘पुराना’ और ‘गंवारू’ समझता है। यह एक प्रकार की सांस्कृतिक हीन भावना है।
5.2 वैश्वीकरण और फैशन की बाज़ारी प्रवृत्तियाँ
मल्टीनेशनल ब्रांड्स और फैशन कंपनियाँ भारतीय बाजार को इस तरह प्रभावित कर रही हैं कि पारंपरिक वस्त्रों को ‘आउटडेटेड’ बना दिया गया है। ‘वेस्टर्न लुक’ को ही ‘कूल’ और ‘हॉट’ माना जाता है, जबकि खादी को वृद्धों का परिधान कहा जाता है।
6. आधुनिकता की परिभाषा: पुनर्मूल्यांकन की आवश्यकता
आज समय आ गया है कि हम ‘आधुनिकता’ की पश्चिमी परिभाषा को चुनौती दें। आधुनिकता का अर्थ केवल पश्चिमी ढंग से पहनना नहीं, बल्कि वैज्ञानिक, स्वस्थ और आत्मसम्मानपूर्ण जीवन जीना है। अगर पारंपरिक वस्त्रों को नए डिज़ाइन, रंग और फैशन के साथ प्रस्तुत किया जाए तो ये भी आधुनिक बन सकते हैं। कई युवा डिज़ाइनर इस दिशा में काम कर रहे हैं—जैसे खादी जैकेट, नेहरू जैकेट, डिजाइनर धोती आदि।
7. शीतकालीन वस्त्रों की गरमी में प्रासंगिकता: एक विडंबना
7.1 सामाजिक प्रतिष्ठा बनाम शारीरिक असुविधा
कई लोग जानते हैं कि गर्मी में सूट पहनना अस्वस्थ है, लेकिन ‘लोग क्या कहेंगे’ की मानसिकता उन्हें मजबूर करती है। एक मानसिक गुलामी जो किसी सत्ता नहीं बल्कि समाज और प्रतिष्ठा की चिंता से संचालित होती है।
7.2 अवसर विशेष का औचित्य और उससे जुड़ी मानसिकता
शादी, ऑफिस पार्टी, इंटरव्यू, सेमिनार आदि जैसे आयोजनों में सूट-बूट पहनना ‘शिष्टाचार’ माना जाता है। कोई अगर पारंपरिक वस्त्र पहन ले तो उसे कमतर समझा जाता है। यह औचित्य दरअसल उपनिवेशी मानसिक ढांचे का ही प्रतिबिंब है।
8. भारतीय परिधान: पर्यावरण, स्वास्थ्य और स्वाभिमान का विकल्प
8.1 खादी और सूती वस्त्रों की महत्ता
महात्मा गांधी ने खादी को केवल वस्त्र नहीं, बल्कि आत्मनिर्भरता, स्वाभिमान और सांस्कृतिक अस्मिता का प्रतीक बताया था। खादी, सूती और अन्य पारंपरिक वस्त्र जलवायु-अनुकूल, टिकाऊ और पर्यावरण के लिए सुरक्षित हैं।
8.2 क्षेत्रीय परिधानों की गरिमा
भारत में बंगाल की धोती-कुर्ता, पंजाब का कुर्ता-पाजामा, राजस्थान का अंगरखा, दक्षिण भारत की वेष्टि, महाराष्ट्र का फेटा-धोती जैसे वस्त्र सांस्कृतिक पहचान हैं, जो आज भी सम्मानजनक ढंग से पुनर्प्रतिष्ठित किए जा सकते हैं।
9. आधुनिकता और स्वदेशी की युति: एक आवश्यक विवेक
9.1 भारतीयता को नया संदर्भ देना
भारतीय परिधानों को आधुनिक डिजाइन, कट्स और स्टाइल के माध्यम से प्रस्तुत किया जाए तो ये ‘फैशनेबल’ भी बन सकते हैं। आज कई युवा डिजाइनर पारंपरिक वस्त्रों को नए रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं।
9.2 मानसिकता में बदलाव की आवश्यकता
जब तक हम अपने मन से ‘वेस्टर्न पहनावा ही श्रेष्ठ है’ का भ्रम नहीं तोड़ते, तब तक मानसिक उपनिवेशवाद बना रहेगा। अपने वस्त्रों में गर्व करना ही आत्मनिर्भरता की असली शुरुआत होगी।
10. नीतिगत सुधार और सांस्कृतिक पुनरुद्धार की आवश्यकता
10.1 ड्रेस कोड में बदलाव
सरकारी संस्थानों, विद्यालयों और अदालतों को अपने ड्रेस कोड की समीक्षा करनी चाहिए और जलवायु-अनुकूल, स्वदेशी वस्त्रों को प्राथमिकता देनी चाहिए।
10.2 जनचेतना और शिक्षा
स्कूलों, कॉलेजों और मीडिया के माध्यम से यह शिक्षा दी जानी चाहिए कि वस्त्र केवल पहनने की चीज नहीं, बल्कि सांस्कृतिक पहचान और आत्म-सम्मान का प्रतीक भी हैं।
11. बदलाव की राह: विकल्प और सुझाव
11.1 नीतिगत बदलाव
न्यायपालिका और शासकीय संस्थानों में ड्रेस कोड की समीक्षा होनी चाहिए। सूट के स्थान पर खादी या सूती वस्त्रों को औपचारिक मान्यता दी जाए।
11.2 शैक्षिक बदलाव
विद्यालयों और कॉलेजों में छात्रों को यह सिखाया जाए कि कपड़े केवल स्टाइल नहीं, सांस्कृतिक और पर्यावरणीय जिम्मेदारी भी होते हैं।
11.3 मीडिया की भूमिका
फिल्मों, विज्ञापनों और सोशल मीडिया पर पारंपरिक परिधान को ‘कूल’ और ‘स्टाइलिश’ बनाकर प्रस्तुत किया जाए।
11.4 जनचेतना आंदोलन
खादी दिवस, पारंपरिक परिधान दिवस जैसे आयोजनों को बढ़ावा दिया जाए।
भारतीय मानस आज भी शीतकालीन वस्त्रों में लिपटा हुआ प्रतीत होता है – वह मानस जो अपने ही देश की जलवायु, संस्कृति और शरीर की आवश्यकताओं को नज़रअंदाज़ कर, पाश्चात्य वस्त्रों को आधुनिकता का पर्याय मान बैठा है। जब तक हम अपने वस्त्रों को केवल फैशन नहीं, बल्कि सांस्कृतिक चेतना, स्वास्थ्य और सम्मान के रूप में नहीं देखेंगे, तब तक यह मानसिक गुलामी बनी रहेगी। समय आ गया है कि हम अपने शरीर, जलवायु और आत्मा – तीनों के अनुरूप वस्त्र अपनाएं और अंग्रेजी सूट के भ्रम से मुक्त हों। ‘सूट’ पहनने की यह आदत ग्रीष्म में केवल शरीर को ही नहीं, आत्मा को भी घुटन देती है। यह उस मानसिक गुलामी की अभिव्यक्ति है जो हमें बताती है कि ‘पश्चिमी दिखना’ ही आधुनिक होना है। अब समय है कि हम उस ठंडी छाया से बाहर निकलें। पारंपरिक परिधान केवल पुराने कपड़े नहीं हैं—वे आत्मनिर्भरता, जलवायु समझ, पर्यावरण हित और सांस्कृतिक गौरव के प्रतीक हैं। सूट-पैंट को विकल्प के रूप में स्वीकार करें, लेकिन अनिवार्यता के रूप में नहीं।
‘स्वतंत्रता केवल शासन से नहीं, मानसिकता से भी प्राप्त करनी होती है – और उसका प्रारंभ हमारे पहनावे से हो सकता है।’
डॉ प्रमोद कुमार
डिप्टी नोडल अधिकारी, MyGov
डॉ भीमराव आंबेडकर विश्वविद्यालय आगरा
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