भारत की आत्मा उसकी सांस्कृतिक विविधता और सामाजिक समरसता में रही है, लेकिन आज यह विविधता विघटन की ओर बढ़ती दिखाई दे रही है। जातीय संघर्ष अब न तो असामान्य रह गया है और न ही सीमित। आए दिन किसी न किसी हिस्से से झड़प, नारेबाज़ी, बहिष्कार, आगज़नी और हिंसक प्रदर्शन की खबरें आ रही हैं। यह सिर्फ सामाजिक चिंता नहीं, बल्कि राष्ट्र के लोकतांत्रिक ताने-बाने के लिए भी एक गंभीर चेतावनी है।
हाल ही की तीन घटनाएं मध्यप्रदेश में चर्चाओं का केन्द्रविन्दु रही।ये इस बात की स्पष्ट मिसालें हैं कि कैसे जातीय अस्मिता की रक्षा के नाम पर समाज में वैमनस्य और हिंसा का बीज बोया जा रहा है। पिपरिया में श्रीमद् भागवत कथा के मंच से कथावाचक मनीष यादव द्वारा यह कहे जाने पर कि “धार्मिक कथाओं का अधिकार केवल एक जाति तक सीमित नहीं होना चाहिए,” तीव्र विरोध खड़ा हो गया। कथावाचक यादव समाज से हैं, और यह वक्तव्य जैसे ही वायरल हुआ, ब्राह्मण समाज ने इसे अपनी परंपरागत भूमिका पर सीधा हमला मानते हुए न केवल सोशल मीडिया पर, बल्कि कथा स्थल पर प्रदर्शन और बहिष्कार की राह पकड़ ली। हिंसा भले न हुई हो, लेकिन तनाव की गहराई को किसी ने नज़रअंदाज़ नहीं किया।
इसी कड़ी में उत्तर प्रदेश के इटावा से एक और चौंकाने वाली घटना सामने आई, जहां कथावाचक मुकुट मनी सिंह यादव और उनके सहयोगी पर यह आरोप लगाया गया कि उन्होंने कथावाचन के लिए ब्राह्मण के वेश में समाज को गुमराह किया। नतीजतन, स्थानीय लोगों ने कथावाचक का सिर मुंडवा दिया, अपमानित किया और मारपीट तक की। चार अभियुक्तों की गिरफ्तारी हुई, और यह घटना साबित करती है कि अब जातीय पहचान किसी भी धार्मिक या सामाजिक मंच से ज़्यादा बड़ी हो गई है।
इससे पूर्व आगरा में समाजवादी पार्टी के वरिष्ठ नेता रामजीलाल सुमन द्वारा क्षत्रिय समाज को लेकर की गई विवादास्पद टिप्पणी ने स्थिति को और भड़काया। लाइव बयान में क्षत्रिय समुदाय के सामाजिक योगदान को लेकर तंज कसे गए, जिससे आक्रोशित होकर करणी सेना और अन्य क्षत्रिय संगठनों ने ज़ोरदार प्रदर्शन किया। बात इतनी बढ़ी कि 26 मार्च 2025 को उनके आवास पर पथराव हुआ, फर्नीचर और वाहन तोड़े गए, और इसमें कई पुलिसकर्मी व राहगीर घायल हुए। अब तक 19 से अधिक गिरफ्तारी हो चुकी हैं। इस पूरे घटनाक्रम ने यह साबित कर दिया कि राजनीतिक मंच भी अब सामाजिक समरसता को तोड़ने का ज़रिया बनते जा रहे हैं।
इन घटनाओं की साझा विशेषता यही है कि वे जातीय अस्मिता को लेकर उपजे आक्रोश की परिणति हैं। अब विचार और विरोध की सीमाएं टूट चुकी हैं। किसी कथन, किसी वेश या किसी विचार को लेकर पूरे समुदाय को ही कटघरे में खड़ा किया जा रहा है।
नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) के आंकड़े बताते हैं कि जातीय हिंसा से जुड़ी घटनाएं पिछले पांच वर्षों में लगभग 40% तक बढ़ी हैं। वर्ष 2023 में 2,950 से अधिक जातीय हिंसा के मामले देशभर में दर्ज किए गए। उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश, राजस्थान और बिहार इस सूची में सबसे ऊपर हैं।
ऐसा नही कि देश के किसी न किसी हिस्से में यह घटनाये पहले घटित नही होती थी।घटना तो होती थी मगर प्रचार-प्रसार,तकनीक के अभाव में वे देश भर की सुर्खियां नही बन पाती थी बल्कि क्षेत्रीय होकर रह जाती थी किन्तु अब इस पूरे परिदृश्य को सबसे अधिक उकसाने और फैलाने का काम सोशल मीडिया और टीवी मीडिया ने किया है।
स्थानीय घटनाएं अब क्षेत्रीय नहीं रहीं। वे वायरल होती हैं, भावनाएं भड़काती हैं और दूसरे राज्यों तक जातीय लामबंदी को जन्म देती हैं। देश के किसी गांव,कस्वे,शहर की घटना अब समूचे देश मे फैल जाती है नतीजतन अन्य भागों में भी विरोध की स्थितियां जन्म ले लेती है।फिर उसे सजातीयता का रंग दे दिया जाता है।एक व्यक्ति की गलती अब एक जाति की जिम्मेदारी बन जाती है, और फिर उस जाति के प्रति संपूर्ण सामाजिक धारणा को बदला जाने लगता है।
उस जाति के सामाजिक,राजनीतिक लोग हाय-तौबा मचाने लगते है।सोशल मीडिया,टीबी मीडिया हर ऐसे मुद्दे पर आग में घी डालने लगती है ओर टीआरपी व वायरल होने की होड़ में उस घटना से जुड़े तमाम कंटेंट स्क्रीन पर उतर आते है।कई मर्तबा इस होड़ में झूठे कंटेंट तक परोस दिये जाते है।यह प्रक्रिया “हम बनाम वे” की मानसिकता को जन्म देती है, जो किसी भी राष्ट्र के लिए घातक है।
जब जातीय पहचान पर खतरे का एहसास गहराता है, तब समाज अस्मिता की रक्षा को अस्तित्व की लड़ाई में बदल देता है। यह बदलाव अक्सर लोकतांत्रिक संवाद और शांति को खत्म कर प्रतिशोध और हिंसा की ओर ले जाता है। और यही वह खतरा है जिससे आज भारत जूझ रहा है। अगर हमने इस अंधी प्रतिक्रिया की प्रवृत्ति को रोका नहीं, तो वह दिन दूर नहीं जब देश एक निगरानी और दमन आधारित समाज में तब्दील हो जाएगा जहां हर विचार, हर जाति, हर व्यक्ति पर संदेह किया जाएगा।
इसलिए आज सबसे ज़रूरी है कि जातीय घृणा फैलाने वालों को सामाजिक बहिष्कार मिले, न कि राजनीतिक संरक्षण। धार्मिक मंचों को समाज जोड़ने का माध्यम बनना होगा, न कि श्रेष्ठता की लड़ाई का अखाड़ा। सोशल मीडिया को केवल एक रिएक्शन प्लेटफॉर्म बनने के बजाय समरसता का पुल बनाना होगा। और मीडिया संस्थानों को टीआरपी की भूख से ऊपर उठकर संयम और संतुलन के साथ खबरों की प्रस्तुति करनी होगी।
भारत की सामाजिक संरचना इतनी नाजुक हो चली है कि अब एक चिंगारी ही काफी है पूरे देश को जलाने के लिए। आज की ये घटनाएं वही चिंगारियाँ हैं। अगर हमने होश नहीं संभाला, तो ये चिंगारियाँ वह दावानल बन सकती हैं जिसमें हमारी संस्कृति, हमारा लोकतंत्र और हमारी मानवता सबकुछ जलकर राख हो जाएगी।
(वरिष्ठ पत्रकार एवं आध्यात्मिक चिंतक)
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं सामाजिक मुद्दों पर स्वतंत्र टिप्पणीकार है।)
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