Agra, Uttar Pradesh, India. मानव प्रकृति की गोद में उत्पन्न होता है, प्राकृतिक तत्त्वों के साहचर्य जीवित रहता है और अन्त में प्रकृति की गोद में ही समावेशित हो जाता है। कहने का अभिप्राय है कि मानव मात्र के विकास की सर्वागीण प्रक्रिया प्रकृति की ही गोद में सम्पन्न होती है। यह उद्गार हैं जैन मुनि मणिभद्र महाराज के जो उन्होंने आज अपने आगरा नगर प्रवेश के अवसर पर व्यक्त किए। जैन मुनि डॉक्टर मणिभद्र जी महाराज 1250 किलोमीटर लंबी पैदल यात्रा करके नेपाल के पोखरा से आगरा में चातुर्मास के लिए अपने दो और मुनियों पुनीत मुनि एवं विराग मुनि के साथ आए हैं।
नेपाल केसरी से विभूषित एवम मानव मिलन संस्था के प्रेरक मुनि मणिभद्र ने कहा – चराचर तत्वों के अन्तर्क्रिया से निर्मित पर्यावरण अनेकानेक कारकों का सम्मिश्रण तापमान, प्रकाश, जल, वायु, मृदा तथा कोई भी बाह्य शक्ति पदार्थ या दशा जो जीवमात्र को किसी न किसी रूप में प्रभावित करती है और पर्यावरण का कारक कहलाती है। इस प्रकार पर्यावरण एक समुच्चय है। मानव तथा अन्य जीव पर्यावरण के अभिन्न अंग हैं, जो पृथ्वी को एक पूर्ण इकाई का स्वरूप प्रदान करते हैं। लेकिन विकास की अंधी दौड़ में प्राकृतिक संसाधनों के अतिदोहन के कारण पर्यावरण की जीवनप्रदायिनी क्षमता में भारी कमी आई है, जिसके कारण गुणवत्ता में अपरिवर्तनीय गिरावट आई है। मानव की अंधाधुंध एवं निरन्तर मांग ने भूमि, जल, वन एवं सम्पूर्ण पर्यावरणीय गुणवत्ता को प्रभावित किया और उसमें हास की प्रवृत्ति दृष्टिगोचर होने लगी। पृथ्वी के तापमान का बढ़ना, ओजोन परत का क्षतिग्रस्त होना, मरुस्थलीकरण, एसिड वर्षा, बाढ़, सूखा, भूकम्प, सुनामी, प्रदूषण आदि समस्याओं से पर्यावरणविदों का ध्यान पर्यावरण संरक्षण के प्रति केन्द्रित हुआ।
नेपाल केसरी मुनि मणिभद्र ने श्रावक जनों को संबोधित करते हुए कहा कि पृथ्वी के मूलभूत तत्वों का संतुलित रूप में रहना ही पर्यावरण है। पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश मूलतः ये पाँच महाभूत ही पर्यावरण के आधार स्तम्भ हैं। पृथ्वी जब तक इनमें संतुलित रहती है तब तक सब कुछ ठीक है और इसका असंतुलन सृष्टि के विनाश को निमंत्रण देना है। पर्यावरण के असंतुलित और अव्यवस्थित होने का मुख्य कारण मानव का स्वार्थ है।
जैन मुनि ने पर्यावरण की विषद व्याख्या करते हुए बताया – “परितः आवियन्ते जलादि पंचतत्वानि यस्मिन् तत् पर्यावरणम्” अर्थात् जिसमें सभी ओर से आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी- ये पाँच तत्त्व अपने-अपने स्वच्छ रूप से प्राणी से प्राणी को, समाज को, ग्राम को, देश को, राष्ट्र को आच्छादित करते हैं, उसी को पर्यावरण कहते हैं। जहाँ तक पर्यावरण के शाब्दिक स्वरूप का प्रश्न है तो पर्यावरण दो शब्दों से मिलकर बना है- परि और आवरण। परि का अर्थ होता है- चारों ओर और आवरण का अर्थ होता है- चादर या घेरा। मानव सहित अन्य जीवाणुओं को जो परिस्थितियां, दशाएं शक्तियां और प्रभाव घेरे हुए हैं उन्हें एक शब्द में पर्यावरण कहते हैं। अधिक व्यापक अर्थ में पर्यावरण सम्पूर्ण बाह्य दशाओं एवं प्रभावों, जो जीवों एवं विकास को प्रभावित करते हैं, का योग है। अंग्रेजी में पर्यावरण के लिए Environment शब्द फ्रांसीसी भाषा के Environir शब्द से उद्भूत हुआ है जिसका अर्थ है घेरना (To surround)। स्थानीय पर्यावरण के लिए आंग्ल भाषा में आवास स्थल या Habitat शब्द का प्रयोग किया जाता है। Habitat शब्द लैटिन भाषा के Habitare शब्द से बना है जिसका अर्थ है एक सुनिश्चित स्थान जिसमें जीव उस स्थान की भौतिक एवं जैविक दशाओं में समायोजन स्थापित करके रहते हैं। पारिभाषिक दृष्टि से एक विशेष पर्यावरण जिसमें एक विशेष जीव वर्ग या समूह निवास करता है, निवास स्थल कहलाता है। लघु क्षेत्रों में निवास करने वाले विशिष्ट जीवन वर्गों के पर्यावरण को सूक्ष्म पर्यावरण (Micro-Environment) कहते हैं। पृथ्वी के भौतिक, जैविक एवं सांस्कृतिक तत्त्व एक अन्तर्क्रियात्मक तंत्र का निर्माण करते हैं, जिसे मानव पर्यावरण (Human Environment) कहते हैं।
जैन मुनियों का नगर प्रवेश तोता का ताल से एक भव्य जुलूस के रूप में परिवर्तित हो गया, जिसमें श्रद्धालुजन जैन धर्म के नारों के उद्घोष के साथ सुराना भवन राजा की मंडी तक पहुंचे। इस अवसर पर जैन समाज के अशोक सुराना, प्रेम चंद जैन, नरेश चपलावत, राजेश सकलेचा, अशोक जैन (कमला ऑटो), आदेश बुरड़, विवेक कुमार जैन, संदेश जैन सहित अनेक प्रतिष्ठित जन उपस्थित थे।
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