आजकल कर्तव्य, फर्ज यानी उत्तरदायित्व की भावना न्यून और अधिकारों की भावना अधिकाधिक है। हम सबके जीवन में ऐसे क्षण आते हैं जब उत्तरदायित्व भाड़ में चला जाता है और निजी स्वार्थ सिर चढ़कर बोलने लगता है। उत्तरदायित्व निभाना हमारा दायित्व है, लेकिन इसे जीवन में धारण कैस करें, यह लाख टके का सवाल है।
पुलिस और प्रशासनिक अधिकारियों को लें। उन पर राजनीतिक दबाव होता है सच को झूठ और झूठ को सच साबित करने का। न करें तो स्थानांतरण की धमकी मिलती है। अगर अधिकारी मलाईदार पद पर विराजमान है तो वह उत्तरदायित्व भूल जाता है और कुर्सी बचाने के लिए अनैतिक काम कर जाता है। रिश्वतखोरी की प्रवृत्ति भी उत्तरदायित्व से विरत करती है।
इस बारे में उत्तर प्रदेश के मुख्य सचिव श्री दुर्गाशंकर मिश्र कहते हैं- “कई बार ऐसा होता है कि नियम कुछ कह रहे हैं लेकिन गलत काम करने का दबाव है। ऐसी स्थिति में हमें अपने उत्तरदायित्व को समझना चाहिए। नौकरशाह अपने मन से काम नहीं करते हैं। उन्हें व्यवस्था के तहत काम करना होता है। जब अंतः विचार करते हैं तो दुविधा का जवाब स्वतः मिल जाता है। 1984 में जब भारतीय प्रशासनिक सेवा में चयन हुआ तब मैंने सोचा कि मेरे जीवन का कुछ न कुछ ध्रुवतारा होना चाहिए, जिसे देखकर मैं प्ररेणा ग्रहण कर सकूं। जब दुविधा की स्थिति आती है तो मुझे कबीरदास के इस दोहे में ध्रुवतारा नजर आता है-
‘कबिरा खड़ा बजार में मांगे सबकी खैर।
ना काहू से दोस्ती, ना काहू से बैर।।’
हमें किसी के कुछ नहीं चाहिए। सबकुछ मैरिट पर हो। जो सही है वही करना है।
हमारा दर्शन गांधी जी का ताबीज होना चाहिए। गांधी जी के ताबीज का मूलपाठ इस प्रकार है- ‘गांधी जी कहते हैं, मैं तुम्हें एक ताबीज देता हूँ। जब भी दुविधा में हो या जब अपना स्वार्थ तुम पर हावी हो जाए, तो इसका प्रयोग करो। उस सबसे गरीब और दुर्बल व्यक्ति का चेहरा याद करो जिसे तुमने कभी देखा हो, और अपने आप से पूछो- जो कदम मैं उठाने जा रहा हूँ, वह क्या उस गरीब के कोई काम आएगा? क्या उसे इस कदम से कोई लाभ होगा? क्या इससे उसे अपने जीवन और अपनी नियति पर कोई काबू फिर मिलेगा? दूसरे शब्दों में, क्या यह कदम लाखों भूखों और आध्यात्मिक दरिद्रों को स्वराज देगा? तब तुम पाओगे कि तुम्हारी सारी शंकाएं और स्वार्थ पिघल कर खत्म हो गए हैं।’ हर प्रकार की दुविधा से निकलने के लfए गांधी जी का ताबीज धारण कर लें। इसीलिए गांधी जी की तस्वीर-ताबीज और कबीरदास का दोहा हमेशा मेरे साथ रहता है। मेरे दफ्तर में लगा होता है।”
हम सब जानते हैं कि दुनिया का सबसे पहला संविधान मनुस्मृति है। वही मनुस्मृति जिसके बारे में अज्ञानी लोग मनुवादी कहते हैं। मनुस्मृति में कहा गया है-
एतद्देशप्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मनः।
स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन पृथिव्यां सर्वमानवाः
अर्थात, जो लोग भारत में पैदा हुए तथा यहाँ के ब्राह्मणों ने अपने-अपने चरित्र से पृथ्वी के समस्त मानव-प्राणी को शिक्षा दी। (यहां ब्राह्मणों का आशय किसी जाति से नहीं है बल्कि उनसे है जो शिक्षा देने का काम करते हैं।)
इस श्लोक में भी उत्तरदायित्व निभाने की बात है वह भी ऐसा उत्तरदायित्व जो पृथ्वी के समस्त मानवों के लिए अनुकरणीय हो।
महर्षि वाल्मीकि कृत रामायण तो उत्तरदायित्व से भरी हुई है। रामायण के किसी भी चरित्र को देख लें, सब अपना-अपना उत्तरदायित्व निभा रहे हैं। यहां तक कि कुंभकर्ण, विभीषण, मेघनाद, सुलोचना, मंदोदरी आदि ने भी उत्तरदायित्व निभाया है। विश्वामित्र, वशिष्ठ, दशरथ, राम, सीता, लक्ष्मण, उर्मिला, भरत, मांडवी, शत्रुघ्न, श्रुतकीर्ति, दशरथ, कौशल्या, सुमित्रा, कैकेई, हनुमान, सुग्रीव, अंगद आदि की कहानी उत्तरदायित्व से भरी हुई है। जिसने उत्तरदायित्व नहीं निभाया और निजी स्वार्थवश कार्य किया, उसका विनाश हो गया। जैसे- दशानन, खर, दूषण, कालनेमि, सुबाहु, मरीच, कबंध, अहिरावण आदि।
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चतुर्थ उदाहरण के रूप में रामायण का एक प्रसंग है। लंका विजय के बाद लक्ष्मण ने राम से कहा कि लंका सोने की है, यहीं रहते हैं तो राम कहा-
अपि स्वर्णमयी लङ्का न मे लक्ष्मण रोचते।
जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी ।।
हे लक्ष्मण! यह सोने से बनी लंका का वैभव और सुंदरता भी मुझे आकर्षित नहीं कर पा रहा है, क्योंकि इस संसार में जननी तथा जन्मभूमि स्वर्ग से भी बढ़कर हैं।
यह अपने परिवार और देश के प्रति उत्तरदायित्व निभाने का सर्वोत्तम उदाहरण है।
जब दुविधा में हों तो कबीरदास का दोहा, गांधी की का ताबीज, मनुस्मृति का श्लोक और रामायण का प्रसंग याद करें। सारी दुविधाएं विनिष्ट हो जाएंगी और अपना उत्तरदायित्व निभाने के लिए तत्पर हो जाएंगे।
डॉ. भानु प्रताप सिंह
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और स्तंभ लेखक हैं)
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