उधम सिंह सरदार: एक गोली, सौ सालों की गूंज

प्रियंका सौरभ उधम सिंह केवल एक क्रांतिकारी नहीं थे, बल्कि एक विचार थे—संयम, संकल्प और सत्य का प्रतीक। जलियांवाला बाग़ के नरसंहार का प्रत्यक्षदर्शी यह वीर 21 वर्षों तक चुपचाप अपने मिशन की तैयारी करता रहा और लंदन जाकर ओ’डायर को गोली मारकर भारत का प्रतिशोध पूरा किया। उनकी चुप्पी न्याय की गर्जना थी, जो […]

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100 किलोमीटर दूर की परीक्षा: क्या अभ्यर्थी की ज़िंदगी इतनी सस्ती है?

“चुनाव में स्टाफ जाता है, परीक्षा में छात्र क्यों? रोज़गार की दौड़ में रास्ते ही कठिन क्यों?” सड़क हादसों में गई युवाओं की जान, कौन लेगा जिम्मेदारी?नौकरी की तलाश में जिंदगी हार रहे बेरोजगार। परीक्षार्थियों का विस्थापन: CET के नाम पर हरियाणा में प्रशासनिक असंवेदनशीलता और मौतें डॉ सत्यवान सौरभ हरियाणा में आयोजित CET परीक्षा […]

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महाराजा संपादक: जब बंद हो जाए चौपाल और लगने लगे दरबार…फिर किसके लिए हैं अखबार?

डॉ सत्यवान सौरभ जब लोकतंत्र का प्रहरी—संपादक—जनता से संवाद बंद कर दे और सत्ता का दरबारी बन जाए, तब पत्रकारिता दम तोड़ने लगती है। आज बड़े संपादक आम आदमी से कट चुके हैं, गाँव-कस्बों की आवाज़ें अखबारों में गुम हैं। संवाद की जगह प्रचार ने ले ली है। सत्ता और पूँजी के एजेंडे चलाए जा […]

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स्क्रीन का शिकंजा: ऑस्ट्रेलिया के फैसले से दुनिया के देशों को सबक लेने की जरूरत

प्रियंका सौरभ स्वतंत्र पत्रकार, कवयित्री और व्यंग्यकार ऑस्ट्रेलिया ने 16 वर्ष से कम आयु के बच्चों के लिए यूट्यूब समेत सभी सोशल मीडिया प्लेटफार्मों पर प्रतिबंध लगाने का साहसिक फैसला लिया है। यह कदम बच्चों को ऑनलाइन दुनिया के नकारात्मक प्रभावों से बचाने के लिए उठाया गया है। भारत जैसे देशों में, जहां डिजिटल लत […]

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आख़िर ये कैसे जानेंगे दर्द: सरकारी स्कूलों में क्यों नहीं पढ़ते राजनेताओं के बच्चे

डॉ सत्यवान सौरभ जब तक विधायक, मंत्री और अफसरों के बच्चे निजी स्कूलों में पढ़ते रहेंगे, तब तक सरकारी स्कूलों की हालत नहीं सुधरेगी। अनुभव से नीति बनती है, और सत्ता के पास उस अनुभव का अभाव है। स्कूलों में छत गिरने से मासूमों की मौत, किताबों की कमी, अधूरे शौचालय — ये सब आम […]

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संवेदना का नया वैश्विक रूप, जिसमें भावना नहीं, ‘कूलनेस’ बिकती है…

डॉ सत्यवान सौरभ हम एक ऐसे समय में जी रहे हैं जहाँ लोग अपनी मां को वृद्धाश्रम छोड़ आते हैं, लेकिन कुत्तों के लिए मखमली बिस्तर खरीदते हैं। जहाँ बच्चे की फीस चुकाना कठिन होता है, पर पालतू जानवर के लिए सालगिरह पार्टी देना ‘प्यारा’ माना जाता है। यह वह युग है जहाँ संवेदना की […]

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“स्क्रॉल संस्कृति और अंधविश्वास: तकनीक के युग में मानसिक गुलामी”

डॉ सत्यवान सौरभ आज का युग तकनीक और सूचना का है। हर हाथ में मोबाइल है, हर जेब में इंटरनेट। लेकिन क्या वास्तव में हम ज़्यादा जागरूक हुए हैं, या बस स्क्रीन पर फिसलती उंगलियों के गुलाम बन गए हैं? विज्ञापन, वीडियो, मीम्स, रील्स और टोटकों की अंतहीन दुनिया में लोग उलझे हुए हैं। “स्क्रॉल […]

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अख़बारों में साहित्य की हत्या और शब्दकर्मियों की बेइज़्ज़ती

डॉ सत्यवान सौरभ आज के अधिकांश अख़बारों से साहित्यिक पन्ने या तो पूरी तरह गायब हो चुके हैं या केवल खानापूरी तक सीमित हैं। लेखकों को छापकर उन्हें ‘कृपा’ का अनुभव कराया जाता है, परंतु सम्मानजनक मानदेय नहीं दिया जाता। अब कुछ मालिकान पुरस्कार योजनाएं बनाकर लेखक-सम्मान का दिखावा कर रहे हैं, जबकि बुनियादी ज़रूरत […]

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आम जो बना कभी फल, कभी फरिश्ता, कभी फंदा!

नब्बे के दशक में हमने सुना था कि भारत-पाकिस्तान के बीच सरहद पर गोलियां चल रही हैं. लेकिन खबर ये भी थी कि दोनों मुल्क एक-दूसरे को आम भेज रहे हैं. तब इसे ‘मैंगो डिप्लोमेसी’ कहा गया था. आज, 2025 में, बांग्लादेश की अंतरिम सरकार के प्रमुख प्रोफेसर मुहम्मद यूनुस ने भारत को 1,000 किलो […]

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बचपन में दिल का दर्द: क्या हमारी जीवनशैली मासूम धड़कनों की दुश्मन बन गई है?

प्रियंका सौरभ स्वतंत्र पत्रकार, कवयित्री और व्यंग्यकार भारत में बच्चों में हार्ट अटैक की घटनाएं तेजी से बढ़ रही हैं। इसका संबंध बच्चों की बदलती जीवनशैली, खान-पान, मानसिक तनाव और स्क्रीन टाइम से है। स्कूलों में नियमित हेल्थ जांच, योग, पोषण शिक्षा और अभिभावकों की जागरूकता से ही इस खतरे को रोका जा सकता है। […]

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