‘‘इतिहास अपने को दोहराता है’’ ये बहुत पुरानी कहावत है। सदियों बाद भी जब घटनाओं की पुनरावृत्ति होती है तो केवल देश-काल तथा उसके पात्र भर बदलते हैं। मानवरचित त्रासदी, विभीषिका व हिंसा एक जैसी ही होती हैं। खौफ, डर, भय पैदाकर आक्रांता हमलावर स्त्री अपहरण, धन सम्पदा की लूटपाट को अपना हथियार बना सुपीरियरिटी कायम करता है। आज अफगानिस्तान में तालिबान इसी उद्देश्य से व इन्हीं शस्त्रों से इसी मानसिकता के नशे में चूर हो निरीह स्त्री, बच्चों, वृद्धों पर जुल्मों सितम ढहा रहा है। काबुल हवाई अड्डे के अफरा-तफरी व बदहवासी के दृश्य पूरी दुनिया के दिलो-दिमाग में खौफ, गुस्सा व पीड़ा भर दिए हैं। पिछले तीस साल से तालिबान ने अपनी करतूतों से सभ्य दुनिया के मन मस्तिष्क को झकजोर रखाहै। आक्रांता/हमलावर जब बलशाली व दुर्दान्त हो तो वहाँ के नागरिकों को आस पड़ोस के देश भी शरण देने से पहले परिणाम नाप तोल कर दस बार सोचते हैं।
मानवीय विपदा व विभीषिका की ऐसी ही घटना 1760 की जनवरी में हिन्दुस्तान में घटित हुयी थी। इतिहास गवाह है अपने ही वजीर की मनमानी हरकतों व विस्तारवादी प्रवृत्ति से आज़िज आकर प्रतीकात्मक मुगल बादशाह ने वजीर के प्रतिद्वन्दी नजीबउद्दौला (नजीबाबाद का संस्थापक) ने दुर्दान्त अफगान बादशाह अहमदशाह अब्दाली उर्फ दुर्रानी को हिन्दुस्तान पर हमला करने हेतु आमंत्रित कर लिया। लाहौर, पंजाब व दोआब में मारकाट मचातेहुए क्रूर दुर्रानी हजारों सैनिकों व तोप गोलों के साथ दिल्ली की ओर बढ़ा। अहमदशाह दुर्रानी के पांचवें आक्रमण का समाचार मिलते ही राजधानी दिल्ली तथा आसपास के नागरिकों में भारी व्याकुलता व भय का भूचाल आ गया था जैसा कि आजकल काबुल में आया हुआ है। जिन नागरिकों को अपना जीवन, धन-सम्पत्ति, मान-मर्यादा प्रिय थी वे अपने परिवार व सम्पत्ति के साथ उजड़ती दिल्ली छोड़ दक्षिण की ओर भागने लगे। बदरपुर से आगे जाट साम्राज्य की सीमा शुरू हो जाती थी। जाट साम्राज्य के डीग, कुम्हेर, भरतपुर जैसे सम्पन्न व सुरक्षित नगर पुनः हिन्दु-मुस्लिम नागरिकों के लिए ‘‘पुनीत आतिथ्यालय’’ बन गये थे। मराठा सरदारों ने भी अपने परिवारों को निःसंकोच शरण लेने के लिये यहाँ भेज दिया था।
इस महान विपत्ति के समय वजीर इमादुल्मुल्क ने भी उदार-स्वभाव शत्रु; सूरजूमल के संरक्षण तथा राज्य में अपने हरम को भेजकर अपने सम्मान व प्रतिष्ठा के बारे में चिंता या शंका नहीं की। दुर्रानी की दुश्मनी मोल लेकर भी सूरजमल ने सभी वर्ग-सम्प्रदाय के नागरिकों को अपने राज्य में शरण दे दी थी। प्रतिष्ठित परिवारों का उनके पद व प्रतिष्ठा के अनुरूप यथोचित सुविधायें, साधन व सुरक्षा सुनिश्चित की। सूरजमल अहमदशाह दुर्रानी की क्रूरता, हिंसक वृत्ति तथा प्रतिशोध की नीति से पूर्णतःपरिचित थे, फिर भी विचलित नहीं हुए। उन्होंने शीघ्र ही राजधानी दिल्ली तथा वहाँ केशेष नागरिकों की रक्षार्थ पांच हजार जाट सवार भेजकर वजीर इमादुल्मुल्क को आश्वस्त कर धैर्य बंधाया और भागते बदहवास भयभीत दिल्ली के नागरिकों को शरण तथा सुरक्षा प्रदान करके भारतीयता की उदार भावना का परिचय दिया।
दिल्ली के उत्तर में बुराडीमें अब्दाली की सेना से हुए भीषण संघर्ष में दत्ताजी सिंधिया की मृत्यु का समाचार पूरे देश में दावानल की तरह फैल गया। स्वाधीन सत्ता का भूखा इमाद दिल्ली की रक्षा नहीं कर पाया और उसने अपनी चल सम्पत्ति जाटरा ज्य की ओर रवाना कर दी थी। उसको विश्वास था कि खूँखार दुर्रानी के आतंक के कारण इस समय हिन्दुस्तान में अन्यत्र शरण नहीं मिल सकेगी। अतः वह स्वयं सूरजमल के रनिवास- कुम्हेर के द्वारों पर शरणागत के वेश में आकर खड़ा हो गया। यह वहीं वजीर इमादुल्मुल्क था, जिसने 1754 में कुम्हेर किले का चार माह घेरा डालकर जाट शासन के अस्तित्व को मिटाने का विफल प्रयास किया था और अब उसी फौलादी दुर्ग की दीवारों के सामने खड़ा होकर प्राण तथा सम्मान रक्षा की अभ्यर्थना कर रहा था। उसके आगमन की सूचना मिलते ही महाराजा सूरजमल ने दुर्ग-द्वार पर उसका प्रसन्नता के साथ पद व प्रतिष्ठा के अनुरूप अभिनन्दन किया। उन्होंने अपनी सर्वश्रेष्ठ हवेली आमोद-प्रमोद की अमूल्य वस्तुओं से सजाकर वजीर तथा उसके परिवार को ठहरने के लिए खोल दी। अपने अतिथि (शरणागत) की सुरक्षा का यथेष्ठ प्रबन्ध किया।
एक वर्ष बाद जनवरी 1761 में हुए पानीपत के तृतीय युद्ध में अब्दाली के हाथों सदाशिव भाउराव के नेतृत्व वाली मराठा सेना की भयानक पराजय हुई थी। पानीपत के युद्ध क्षेत्र से घायल व लुटे पिटे मराठा सैनिक व उनके परिवार जैसे ही वापसी में सूरजमल के राज्यक्षेत्र में प्रवेश किए उन्होंने अपने समस्त किले, गढ़ियां, धर्मशालाएं तथा ग्राम्य चौपालें तक मराठाओं के लिए खोल दीं। विजेता अफगान शाह दुर्रानी के भय की परवाह न करके सूरजमल ने घोर विपत्ति के समय हजारों मराठा परिवारों तथा अशक्त व घायल सैनिकों को अपने राज्य में शरण देकर मानवता, नैतिकता तथा उदारता का परिचय दिया। जाट राज्य भरतपुर जनवरी मध्य से मार्च मध्य 1761 तक, विपन्न व घायल मराठाओं के लिए ‘‘सुखान्त आश्रय गृह’’ साबित हुआ। युद्ध में मृतक सदाशिव भाऊ की धर्मपत्नी पार्वती बाई डीग के किले में राजसी देखभाल व आदर सत्कार में पन्द्रह दिन रुककर दिवंगत पति की मातमी पूरी की थी। महाराजा सूरजमल, उनकी पत्नी तथा अन्य सरदारों ने एकत्रित होकर भाऊ की मृत्यु पर संवेदना प्रकट की थी। पेशवा बाजीराव प्रथम का मुस्लिम उप-पत्नी मस्तानी से उत्पन्न पुत्र शमशेर बहादुर पानीपत के युद्ध के मैदान में घायल होकर कुम्हेर पहुंचा था। उसका यथोचित सम्मान कर उसके घावों का उपचार कराया गया। बेहतर हकीम, वैद्य व जर्राओं से भरतपुर लाकर इलाज कराया गया। परन्तु उसके हृदय में पानीपत हार की गहरी टीस थी और उसने भरतपुर में ही प्राण त्याग दिए। जाट शासक ने राजसी क्रियाकर्म करके उसको आधुनिक चहार बाग की चारदीवारी में दफनवाया था और इसी स्थान पर उसकी स्मृति में एक मजार, मस्जिद तथा कुंआ का निर्माण भीकरा दिया गया था। यह स्मारक व पक्की सराय आज भी ‘‘बांदा वाले नवाब साहब’’ के नाम सेसुरक्षित है। इसी चहार बाग में नवाब इमादुल्मुल्क के लिए महल बनवाया गया था,जिसमें इमाद व उसके परिवार ने अनेक संकटपूर्ण वर्ष तक निवास किया था। हवेली के समीप नवाब गली अभी तक मौजूद है। सूरजमल के बारे में नाना फडनीस ने एक पत्र में लिखा था- ‘‘सूरजमल की इस व्यवहार कुशलता से पेशवा को अत्यधिक संतोष हुआ था।’ ’महाराज सूरजमल की इस महानता, उदारता, सहानुभूति को देखकर ही सैय्यद गुलाम अली ने उस दौर में उनको ‘‘जाट अफलातून (प्लेटो) खिताब से सम्मानित किया।
इतिहास दोहरा रहा है। अफगानिस्तान के साधन सम्पन्न प्रबुद्ध लोग भारत में शरण लेने के प्रयास में हैं आज। ‘अतिथिदेवो’ की भावना का निर्वहन कर रहा भारत आज भी महाराजा सूरजमल के युग की तरह तालिबानियों की हिंसा से बच भाग रहे अफगानियों को खुलेदिल से स्वागत कर उन्हें शरण दे रहा है।
चोब सिंह वर्मा, सेवानिवृत्त आई.ए.एस.
9871117587
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