राजनीति में समीकरण हर दिन बदल रहे हैं। बिहार से लेकर दिल्ली और राजस्थान तक, हर जगह नए दावे, नए गठबंधन और पुराने वादों की याद दिलाने की होड़ लगी है। सवाल यह है कि इन सियासी हलचलों के बीच जनता के असली मुद्दे कहां खो जाते हैं?
राजस्थान की राजनीति: बदलते समीकरण और जनता की उम्मीदें
नई सरकार, पुराने मुद्दे – राजस्थान में सत्ता परिवर्तन के बाद सरकार नई है, लेकिन जनता की समस्याएं पुरानी ही बनी हुई हैं। किसानों की कर्जमाफी, बेरोजगारी, और महंगाई जैसे बड़े मुद्दों पर अब तक कोई ठोस कदम नहीं उठाए गए हैं। क्या बदलाव सिर्फ चेहरे का हुआ है या हालात भी बदलेंगे?
कृषि संकट और किसान आंदोलन – राजस्थान में किसान लंबे समय से फसल के उचित दाम और पानी की समस्या को लेकर संघर्ष कर रहे हैं। क्या सरकार किसानों की समस्याओं को गंभीरता से लेगी या यह मुद्दे केवल चुनावी वादों तक सीमित रहेंगे?
युवाओं के लिए रोजगार के वादे – सरकारी नौकरियों की भर्ती प्रक्रियाओं में देरी और पेपर लीक जैसी घटनाओं ने युवाओं को निराश किया है। नई सरकार क्या इस दिशा में कोई ठोस बदलाव लाएगी, या फिर रोजगार सिर्फ घोषणाओं तक ही सीमित रहेगा?
महंगाई और बिजली संकट – राजस्थान में बिजली की बढ़ती दरें और महंगाई आम जनता के लिए बड़ी समस्या बनी हुई हैं। चुनाव से पहले राहत देने के दावे किए गए थे, लेकिन जमीनी हकीकत कुछ और ही दिखा रही है।
राष्ट्रीय राजनीति और बाकी राज्यों के हालात
बिहार में सत्ता संघर्ष – नीतीश कुमार और तेजस्वी यादव के बीच राजनीतिक बयानबाजी तेज़ हो चुकी है। गठबंधन राजनीति में उथल-पुथल जारी है, लेकिन बिहार के युवाओं को नौकरी कब मिलेगी, इस पर कोई ठोस बात नहीं हो रही।
दिल्ली में सीएजी रिपोर्ट विवाद – कोविड फंड को लेकर केजरीवाल सरकार पर सवाल उठाए जा रहे हैं। सरकारी खर्चों की पारदर्शिता पर बहस हो रही है, मगर आम जनता की परेशानियों का समाधान कब होगा?
चुनावों से पहले वादों की बारिश – हरियाणा, महाराष्ट्र और अन्य राज्यों में चुनावी रणनीतियां बन रही हैं। घोषणाओं की झड़ी लग रही है, लेकिन क्या यह वादे ज़मीन पर उतरेंगे या सिर्फ़ वोट बैंक की राजनीति बनकर रह जाएंगे?
महंगाई और बेरोजगारी पर सन्नाटा – हर राजनीतिक दल विकास और कल्याणकारी योजनाओं की बातें करता है, लेकिन महंगाई और बेरोजगारी पर ठोस नीति कहां है? पेट्रोल-डीजल से लेकर खाने-पीने की चीजें तक महंगी हो रही हैं, मगर जनता को राहत देने के लिए कोई ठोस पहल नहीं दिख रही।
गठबंधन राजनीति की हकीकत – देशभर में नए गठबंधन बन और टूट रहे हैं। पार्टियां अपने सियासी फायदे के लिए एक-दूसरे का साथ छोड़ रही हैं। लेकिन सवाल यह है कि जनता के हित में कौन सोच रहा है?
सिर्फ धर्म और जाति की राजनीति? – चुनाव आते ही मुद्दे बदल जाते हैं। रोजगार, शिक्षा और स्वास्थ्य की जगह धर्म और जाति की राजनीति हावी हो जाती है। क्या यह लोकतंत्र के लिए सही दिशा है?
-साभार सहित ईश्वर चौधरी जी की फेसबुक वाल से
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