दक्षिण एशिया इस समय राजनीतिक अस्थिरता की चपेट में है। नेपाल, बांग्लादेश, म्यांमार और मालदीव में हालिया घटनाओं ने भारत की सुरक्षा और रणनीतिक हितों पर सीधा प्रभाव डाला है। चीन और अमेरिका अपनी-अपनी टूलकिट के जरिए क्षेत्र में हस्तक्षेप कर रहे हैं। भारत के लिए केवल प्रतिक्रियात्मक नीति पर्याप्त नहीं है; उसे कूटनीतिक सक्रियता, आर्थिक निवेश, सुरक्षा सहयोग और सांस्कृतिक संबंधों को मज़बूत करना होगा। साथ ही आंतरिक एकजुटता को बनाए रखना अनिवार्य है। भारत अब मूकदर्शक नहीं रह सकता; उसे निर्णायक भूमिका निभाकर क्षेत्रीय स्थिरता और राष्ट्रीय सुरक्षा दोनों को सुरक्षित करना होगा।
दक्षिण एशिया आज जिस अस्थिरता के दौर से गुजर रहा है, वह केवल स्थानीय राजनीति का परिणाम नहीं है, बल्कि वैश्विक शक्तियों के गहरे हस्तक्षेप का दुष्परिणाम भी है। नेपाल, बांग्लादेश, म्यांमार और मालदीव जैसे देशों में हाल के वर्षों में जिस तरह राजनीतिक हलचलें और जनआंदोलन सामने आए हैं, उन्होंने पूरे क्षेत्र की स्थिरता पर प्रश्नचिह्न खड़ा कर दिया है। नेपाल में युवाओं की भीड़ का संसद पर धावा, बांग्लादेश में सरकार के खिलाफ बड़े पैमाने पर हिंसक विरोध, म्यांमार में लगातार जारी सैन्य शासन और उसके विरुद्ध संघर्ष, मालदीव में भारत विरोधी राजनीतिक धारा का उभरना—ये सभी घटनाएँ भारत के लिए गंभीर चिंतन का विषय हैं। इसका कारण साफ है, क्योंकि इन घटनाओं का सीधा असर भारत की सुरक्षा, अर्थव्यवस्था और सामरिक संतुलन पर पड़ता है।
इन घटनाओं की जड़ में अमेरिका और चीन जैसे महाशक्तियों की टकराहट है। अमेरिका अपने लोकतंत्र और मानवाधिकार की टूलकिट से काम करता है, जहाँ युवा असंतोष, चुनावी धांधली और भ्रष्टाचार को हथियार बनाकर स्थानीय सरकारों पर दबाव डाला जाता है। दूसरी ओर चीन अपने कर्ज़, बुनियादी ढाँचे और निवेश परियोजनाओं के माध्यम से इन देशों को अपनी ओर खींचता है। नेपाल और मालदीव जैसे छोटे देश चीनी निवेश के जाल में फँस चुके हैं, वहीं बांग्लादेश और म्यांमार में अमेरिका और चीन की खींचतान खुलकर दिखाई देती है। यह परिदृश्य केवल इन देशों की राजनीति को नहीं, बल्कि पूरे दक्षिण एशियाई भू-राजनीतिक संतुलन को प्रभावित कर रहा है।
भारत इस पूरे परिदृश्य में सबसे महत्वपूर्ण हितधारक है। अगर नेपाल अस्थिर होता है तो वहाँ से आने वाला सामाजिक और राजनीतिक प्रभाव भारत की सीमा तक पहुँचता है। अगर बांग्लादेश में उथल-पुथल होती है तो पूर्वोत्तर भारत असुरक्षित हो जाता है। अगर म्यांमार में गृहयुद्ध जैसी स्थिति बनती है तो शरणार्थियों और तस्करी की समस्या भारत के लिए चुनौती बनती है। यदि मालदीव में चीन-समर्थित ताकतें हावी होती हैं तो हिंद महासागर में भारत की सामरिक स्थिति कमजोर हो सकती है। इन सभी घटनाओं का सीधा असर भारतीय सुरक्षा, कूटनीति और आर्थिक हितों पर पड़ना तय है।
भारत की अब तक की नीति अधिकतर प्रतिक्रियात्मक रही है। जब भी कोई संकट पड़ोसी देशों में गहराता है, भारत अस्थायी कदम उठाता है, पर दीर्घकालिक रणनीति का अभाव साफ दिखाई देता है। उदाहरण के लिए, नेपाल के साथ खुली सीमा का लाभ उठाकर वहाँ के राजनीतिक समीकरणों में चीन की पैठ ने भारत की स्थिति कमजोर की। मालदीव में भी लंबे समय तक भारत-प्रथम नीति का लाभ लेने के बाद जब नई सरकार चीन के करीब चली गई तो भारत चौकन्ना हुआ। इसी तरह बांग्लादेश में भी हालिया घटनाक्रम ने यह सोचने पर मजबूर किया है कि क्या भारत की विदेश नीति केवल अल्पकालिक सहयोग तक सीमित है या उसमें दूरगामी दृष्टि भी है।
आज की सबसे बड़ी चुनौती यह है कि भारत को केवल अपनी सीमाओं तक नहीं, बल्कि पूरे क्षेत्रीय परिदृश्य में सक्रिय भूमिका निभानी होगी। क्षेत्रीय स्थिरता के बिना भारत का विकास और सुरक्षा अधूरा है। चीन और अमेरिका जैसे देश दक्षिण एशिया को केवल अपनी सामरिक प्रतिस्पर्धा का मैदान मानते हैं, जबकि भारत के लिए यह अस्तित्व और भविष्य का प्रश्न है। इसीलिए भारत को अब “मूकदर्शक” की भूमिका से बाहर निकलकर निर्णायक भूमिका निभानी होगी।
भारत की विदेश नीति के हालिया कदमों में संभावनाएँ भी दिखती हैं। जी-20 की अध्यक्षता के दौरान भारत ने वैश्विक दक्षिण की आवाज़ बनने की कोशिश की और विश्व मंच पर अपनी पहचान को मज़बूत किया। क्वाड के जरिए हिंद-प्रशांत क्षेत्र में सामरिक संतुलन कायम करने का प्रयास हुआ। ब्रिक्स के विस्तार से भारत ने यह संदेश दिया कि वह बहुपक्षीय ढाँचों में संतुलन साध सकता है। लेकिन सवाल यह है कि क्या ये वैश्विक पहल पड़ोस की अस्थिरता को सुलझाने में मददगार साबित हो रही हैं? सच तो यह है कि पड़ोस की राजनीति में भारत को और अधिक सक्रिय, लचीला और व्यावहारिक दृष्टिकोण अपनाने की आवश्यकता है।
सिर्फ कूटनीति ही नहीं, भारत को अपनी आंतरिक एकजुटता भी मज़बूत करनी होगी। इतिहास गवाह है कि भारत पर सबसे बड़ी चोटें बाहर से तब आईं जब अंदर से समाज बंटा हुआ था। आज भी जातिवाद, धर्म, आरक्षण, बेरोजगारी और क्षेत्रीय असमानता जैसे मुद्दों को भड़काकर बाहरी ताकतें भारत को अस्थिर करने का प्रयास कर रही हैं। सोशल मीडिया और फंडेड आंदोलनों के जरिए लोगों के बीच अविश्वास पैदा करना इस टूलकिट का अहम हिस्सा है। ऐसे में भारत के नागरिकों के लिए यह समझना जरूरी है कि राजनीतिक मतभेद अपनी जगह हैं, लेकिन राष्ट्रीय हित और सुरक्षा सर्वोपरि हैं।
भारत के लिए आगे की राह स्पष्ट है। सबसे पहले उसे पड़ोसी देशों में दीर्घकालिक निवेश और साझेदारी बढ़ानी होगी। शिक्षा, स्वास्थ्य और बुनियादी ढाँचे में सहयोग से ही भारत वहाँ अपनी स्थायी पैठ बना सकता है। दूसरा, भारत को अपनी खुफिया और सुरक्षा साझेदारी को मज़बूत करना होगा ताकि किसी भी बाहरी हस्तक्षेप या षड्यंत्र को समय रहते नाकाम किया जा सके। तीसरा, जन-से-जन संबंधों को गहरा करने की जरूरत है, क्योंकि यही भारत की असली ताकत है जो चीन या अमेरिका कभी हासिल नहीं कर सकते। चौथा, भारत को अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर दक्षिण एशिया की स्थिरता को वैश्विक मुद्दा बनाना होगा ताकि विश्व समुदाय इस ओर ध्यान दे।
निष्कर्ष यही है कि दक्षिण एशिया की मौजूदा अस्थिरता भारत के लिए केवल कूटनीतिक या सामरिक चुनौती नहीं है, बल्कि अस्तित्व का प्रश्न है। भारत अगर समय रहते निर्णायक रणनीति नहीं अपनाता, तो वह उन्हीं मुश्किलों में फँस सकता है जिनसे उसके पड़ोसी गुजर रहे हैं। इसलिए आज सबसे बड़ी आवश्यकता है आस्था और सजगता का संतुलन। जनता का विश्वास और नेतृत्व की दूरदृष्टि मिलकर ही भारत को बाहरी टूलकिट से सुरक्षित रख सकते हैं।
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