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हिन्दुत्व पर डॉ. भीमराव आम्बेडकर, आपका दिमाग हिल जाएगा

NATIONAL POLITICS PRESS RELEASE

भारत की वर्तमान संसदीय राजनीति में पहचान की राजनीति का, विशेषकर जाति पर आधारित पहचान की राजनीति का, बोलबाला है। इस देश में मतदान करते समय लोग अपना मत नहीं देते अपितु अपनी जाति को बताते हैं। देश में दलित जातियों की जनसंख्या कुल आबादी की लगभग एक चैथाई है। अतः वोट बैंक के रूप में उनकी भूमिका निर्णायक हो जाती है। संघ-परिवार तथा उसका राजनीतिक मंच भारतीय जनता पार्टी इस बात को अच्छी तरह समझती है कि दलितों को अपने खेमे में लाये बगैर वह हिन्दू राष्ट्र की स्थापना के अपने सपने को पूरा नहीं कर सकते हैं। वह यह भी जानते हैं कि बाबा साहेब अम्बेडकर दलितों के आराध्य देव हैं तथा दलितों को अपने साथ लाने के लिए यह जरूरी है कि या तो एक मूर्तिभंजक की तरह डॉक्टर अम्बेडकर की छवि को, एक व्यक्ति और विचारक के रूप में, ध्वस्त कर दलितों को उनसे दूर किया जाये तथा अपने पक्ष में लाया जाय, अथवा अम्बेडकर को अंगीकार कर, उन्हें अपना पक्षधर तथा स्वयं को उनका महाप्रशंसक घोषित कर दलितों के दिल और दिमाग को जीता जाय।

1990 के दशक में पहली नीति पर अमल किया गया। अम्बेडकर की छवि ध्वस्त करने का कार्यभार खोजी पत्रकार के रूप में चर्चित अरूण शौरी ने अपने हाथ में लिया। संघ परिवार के साथ शौरी के रिश्ते जगजाहिर हैं (भले ही संघ परिवार उनको स्वीकार करने से इनकार करता हो)। आगे चल कर श्री अटलबिहारी वाजपेई के नेतृत्ववाली राजग सरकार में शौरी कैबिनेट मंत्री के रूप में शामिल किये गए। अम्बेडकर पर लिखे गए अपने तथाकथित गहन शोध पर आधारित ग्रन्थ में शौरी अम्बेडकर को ब्रिटिश सरकार का एजेंट तथा देशद्रोही सिद्ध करने के लिए तथ्यों व तर्कों के साथ खुल कर खेले। शौरी इस सीमा तक चले गए कि उन्होंने संविधान निर्माण में भी अम्बेडकर की भूमिका को पूरी तरह से नकार दिया। जिस समय शौरी के ग्रन्थ का प्रकाशन हुआ और उस पर बहस आरम्भ हुई, उसी समय महाराष्ट्र में हिंदुत्व के खेमे से जुड़े लोगों ने बड़े पैमाने पर अम्बेडकर की मूर्तियों को निशाना बनाया। सन्देश साफ था अम्बेडकर को नकार कर दलितों के वोट बैंक पर अधिकार नहीं किया जा सकता है।

अब अम्बेडकर को अंगीकार करने की राह पर चलने की बारी थी। बाबासाहेब अम्बेडकर के जन्मदिन 14 अप्रैल 2015 को संघ-परिवार तथा भाजपा ने संगठन, पार्टी तथा सरकार के स्तर पर धूम-धाम के साथ मनाया। संघ के मुखपत्रों पांचजन्य तथा आर्गेनाइजर ने पहली बार अम्बेडकर पर विशेषांक निकाले। संघ परिवार के मुखिया मोहन भागवत ने कानपुर की एक सभा में घोषणा की, अम्बेडकर हिंदूवादी विचारधारा के थे। ’यह वही संघ कह रहा था जिसने हिन्दू कोड बिल का विरोध करते हुए, उसे हिन्दू परम्परा तथा संस्कृति पर हमला बताकर दिल्ली में कई स्थानों पर डा. अम्बेडकर तथा नेहरू के पुतलों का दहन किया था। पिछले एक दशक के समय में अम्बेडकर के विचारों को तोड मरोड़कर पेश करके जो वैचारिक अत्याचार व अनाचार संघ के द्वारा अम्बेडकर के साथ किया गया वह किसी भी रूप में उस सामाजिक दंश से कम नहीं था जो अम्बेडकर ने अपने जीवनकाल में सहा। प्रश्न मात्र विकृतीकरण का ही नहीं है, अपितु प्रयास इसका भी किया जा रहा है कि अम्बेडकर के हिन्दू धर्मं की आलोचना करने वाले विचार जनता तक न पहुचें। इसका एक उदाहरण गुजरात में देखने को मिला जब अम्बेडकर के जीवन पर लिखित छात्रों में वितरित की गई एक पुस्तिका को इसलिए वापस ले लिया गया कि उसमें उन बाईस शपथों का उल्लेख था जो बाबासाहेब अम्बेडकर ने धर्मं परिवर्तन करते समय सार्वजनिक रूप से ली थीं। अम्बेडकर के सम्बन्ध में जो मिथ्या प्रचार संघ परिवार ने किया उसमे शामिल है, अम्बेडकर मुस्लिम विरोधी थे, अम्बेडकर ने पकिस्तान का विरोध किया था। अम्बेडकर मानते थे कि भारत में छुआछूत मुसलमानों के द्वारा शुरू की गयी वह वैदिक हिन्दू धर्मं के समर्थक थे। आर.एस.एस. के प्रमुख नेता गोपालजी ने वाराणसी हिन्दू विश्वविद्यालय में दिए गए अपने भाषण मैं कहा कि अम्बेडकर की वैदिक धर्मं में गहरी आस्था थी। वह तो धर्मं में बाद में आई विसंगतियों के विरोधी थे। उनका उद्देश्य हिन्दू समाज को सुधारना था। वह घर वापसी का (मुसलमानों तथा इसाइयों को पुनः हिन्दू बनाने का) समर्थन करते थे। अम्बेडकर ने बौद्ध धर्मं इसलिए अपनाया क्योंकि वह एक भारतीय धर्मं था। बाबासाहेब के परिनिर्वाण दिवस पर हमें नूतन ज्ञान प्रदान किया जाता है कि उनकी राम में आस्था थी। यह उस समय कहा गया जब भागवत ने भव्य राम मंदिर का राग अलापना शुरू किया था. बात साफ थी चूंकि बाबासाहेब की आस्था राम में थी अतः उनकी आस्था उनके मंदिर में भी थी इसलिए मंदिर के निर्माण में दलितों को बढ़ चढ़ कर सहयोग करना चाहिए, संघ परिवार के स्वनामधन्य विद्वानो की अदभुत व नूतन शोध से निकले ज्ञान के यह कुछ चुने हुए मोती हैं जो पूरी तरह से निराधार तथा तथ्यहीन हैं।

सबसे पहले तो इसी दावे को ले लिया जाय कि डाक्टर अम्बेडकर आर.एस.एस. की विचारधारा को मानते थे। ए.जी. नूरानी ने फ्रंटलाइन में लिखे अपने लेख में सप्रमाण यह बताया है कि आर.एस.एस. की विचारधारा को मानने की बात तो दूर रही, अम्बेडकर उसे एक प्रतिक्रियावादी संगठन मानते थे। उन्होंने लिखा है कि 1952 के पहले आम चुनाव में अम्बेडकर के नेतृत्व वाले शेडूल्डकास्ट फेडरेशन ने साफ कह दिया था कि वह हिन्दू महासभा तथा जनसंघ जैसे प्रतिक्रियावादी संगठनों से कोई रिश्ता नहीं रखेगा। अब यह तो सभी को मालूम है कि जनसंघ (आज की भारतीय जनता पार्टी) आर.एस.एस. का राजनीतिक मंच है तथा उसका चरित्र संघ के चरित्र को ही प्रतिबिंबित करता है। इस तरह अम्बेडकर की नजर में संघ एक प्रतिक्रियावादी संगठन था जिसके साथ वह व उनके नेतृत्व वाले संगठन किसी प्रकार का सम्बन्ध रखने को तैयार नहीं थे। ऐसी स्थिति में उनके द्वारा संघ की विचारधारा को मानने की बात करना पूरी तरह से बेबुनियाद है। संघ परिवार का राजनीतिक अभीष्ट हिन्दू राष्ट्र है। इस हिन्दू राष्ट्र के सम्बन्ध में डॉ. अम्बेडकर का सुनिश्चित मत था ‘अगर वास्तव में हिन्दू राज्य बन जाता है तो निस्संदेह इस देश के लिए भारी खतरा उत्पन्न हो जाएगा। हिन्दू कुछ भी कहें, पर हिंदुत्व स्वतन्त्रता, समानता और भाईचारे के लिए एक खतरा है। इस आधार पर प्रजातंत्र के लिए यह सही नही है। हिन्दू राज्य को हर कीमत पर रोका जाना चाहिए।’ (क्या पाकिस्तान बनना चाहिए? सम्पूर्ण वाड्मय खंड-15)

भगवतगीता हिन्दुत्ववादियों के लिए पूज्य ग्रन्थ है। मोदी सरकार में विदेश मंत्री सुषमा स्वराज उसे राष्ट्रीय ग्रन्थ घोषित करने की सिफारिश करतीं हैं। यदि डॉ. अम्बेडकर हिंदूवादी विचारधारा के होते तो उनके लिए भी गीता एक पवित्र व पूज्य ग्रन्थ होता. किन्तु वह उसे न तो ईश्वरीय ग्रन्थ मानते हैं और न ही पूज्य समझते हैं। ‘प्रतिक्रान्ति की दार्शनिक पुष्टि- कृष्ण और उनकी गीता’ आलेख (सम्पूर्ण वाड्मय खंड-7) में वह लिखते हैं ‘‘भगवतगीता कोई ईश्वरीय वाणी नहीं है, इसलिए इसमें कोई संदेश नहीं है और इसमें किसी सन्देश की खोज करना व्यर्थ है. निस्संदेह यह प्रश्न पूछा जा सकता है यदि भगवतगीता कोई ईश्वरीय ग्रन्थ नहीं है तो फिर यह क्या है? मेरा उत्तर है कि भगवतगीता न तो धर्म ग्रन्थ है और न ही वह दर्शन का ग्रन्थ ही है। भगवतगीता ने दार्शनिक आधार पर धर्म के कतिपय सिद्धांतों की पुष्टि की है। यदि कोई व्यक्ति इस आधार पर भगवतगीता को धर्म ग्रन्थ या दर्शन का ग्रन्थ कहता है तो वह अपने मुंह मियां मिट्ठू बन सकता है।’’ डॉ. अम्बेडकर की नजर में ‘गीता में जिन सिद्धांतों की पुष्टि की गयी है वे प्रतिक्रान्ति के सिद्धांत हैं जो प्रतिक्रान्ति की बाईबिल अर्थात जैमिनी कृत पूर्वमीमांसा में वर्णित हैं।’

डाक्टर अम्बेडकर को ‘घर वापसी’ का समर्थक बताना भी पूर्णरूप से तर्कहीन तथा तथ्यों से परे हो जाता है। ऐसा प्रतीत होता है कि यह दावा करने वाले सज्जन ने धर्मं परिवर्तन के प्रश्न पर डाक्टर अम्बेडकर के विचारों का या तो अध्ययन नहीं किया या फिर उन विचारों को जान कर भी अनजान बनते हुए उनके स्थान पर अपने विचारों को प्रत्यारोपित कर दिया। डा. अम्बेडकर सम्पूर्ण वाड.मय (हिंदी संस्करण) के खंड-10 में 1926 में तेलुगु में प्रकाशित आलेख ‘जाति प्रथा और धर्म-परिवर्तन’ को दिया गया है। इस आलेख में डा. अम्बेडकर ने हिन्दुओं के धर्मं परिवर्तन के लिए हिन्दू समाज व्यवस्था को ही दोषी माना है। वह लिखते हैं ‘मुसलमानों का कैसा सौभाग्य! अज्ञात कुल के कोई सात करोड़ लोगों की एक विशाल संख्या है। उन्हें हिन्दू कहा तो जाता है पर उनका हिन्दू धर्मं से कोई खास सम्बन्ध नहीं है। हिन्दू धर्मं ने उनकी स्थिति को इतना असहनीय बना दिया है कि उनको सहज ही इस्लाम धर्मं ग्रहण करने के लिए फुसलाया जा सकता है। ‘‘उनमें से कुछ तो इस्लाम में शामिल हो रहें हैं और अन्य अनेक शामिल हो सकते हैं’’ अपने इस आलेख में डा. अम्बेडकर ने शुद्धि आन्दोलन के माध्यम से हो रही ‘घर वापिसी’ की निस्सारता तथा उसकी अव्यवहारिकता पर भी विचार किया है। वह लिखते हैं ‘‘हिन्दुओं की कमजोरी उनकी संख्या की कमी नहीं है बल्कि उनमें एकजुटता का अभाव है। -मेरी आशंका है कि हिन्दू समाज की एकजुटता के स्थान पर यदि केवल शुद्धि का सहारा लिया गया तो इससे और अधिक विघटन होगा….शुद्धि के कारण जो ऐसा व्यक्ति आयेगा वह बेघर ही रहेगा। वह अलग-थलग एकाकी जीवन ही बितायेगा.और उसकी किसी के प्रति न कोई विशिष्ट निष्ठा होगी न ही कोई खास लगाव होगा। यदि शुद्धि के कारण हिन्दू शिविर के भीतर श्रद्धानन्द की मलकाना जैसी विशाल खेप आ भी जाए तो उससे केवल यही होगा की वर्तमान संख्या में एक और जाति की वृद्धि हो जायेगी अब देखिये, जितनी अधिकता जातियों की होगी हिन्दू समाज का उतना ही अधिक अलगाव और विलगाव होगा। डा. अम्बेडकर को विश्वास था कि जाति प्रथा के रहते शुद्धि अर्थात घर वापिसी हानिकर ही सिद्ध होगी। उन्होंने लिखा ‘‘लेकिन जैसे-तैसे हिन्दू समाज का अति क्रांतिकारी तथा प्रबल सुधारक जाति-प्रथा के उन्मूलन की अनदेखी करता है, वह धर्मान्तरित हिन्दू के पुनः धर्मांतरण जैसे निरर्थक उपायों की वकालात करता है।’’ अपने इसी आलेख में अम्बेडकर ने इस पर भी विचार किया कि घर वापिस लौटने पर एक व्यक्ति की स्थिति क्या होगी. उन्होंने लिखा, ‘‘धर्मं परिवर्तन करके हिन्दू धर्म ग्रहण कराने बाले के लिए हिन्दू समाज में क्या कोई स्थान है? अब हिन्दू समाज के संगठन में जाति प्रथा की प्रधानता है. प्रत्येक जाति में सजातीय विवाह होतें हैं और प्रत्येक दूसरे का विरोध करती है। या यूं कहिये कि वह केवल उसी व्यक्ति को अपना सदस्य बनाती है जो उसके भीतर पैदा होता है और बाहर के किसी व्यक्ति को अपने भीतर नहीं आने देती। चूंकि हिन्दू समाज जातियों का परिसंघ है और प्रत्येक जाति अपने अपने अहाते में बंद है अतः उसमें धर्म परिवर्तन करने वाले के लिए कोई स्थान नहीं है। कोई भी जाति उसे अपनी जाति में शामिल नहीं करेगी. जिसके कारण हिन्दू धर्मं प्रचारक धर्म नहीं रहा? इस प्रश्न का उत्तर इस तथ्य में खोजा जा सकता है कि उसने जाति प्रथा का विकास किया. जातिप्रथा और धर्म-परिवर्तन परस्पर विरोधी हैं।’’

घर वापसी की बात तो दूर रही डा. अम्बेडकर ने तो डंके की चोट पर घर छोड़ने की प्रेरणा दलितों को दी. खंड-10 में ही दिया गया उनका आलेख ‘हिन्दुओं से अलगाव’ विस्तार से चर्चा करता है कि अस्पृश्यों के लिए धर्मं परिवर्तन क्यों जरूरी है। अपने इस आलेख में वह कई तीखे प्रश्न करते हैं ‘अस्पृश्य तो और भी अनेक प्रश्न कर सकते हैं। वे पूछ सकते हैं, क्या हिन्दू धर्मं उन्हें मानव प्राणी के रूप में स्वीकार करता है? क्या वह उनके लिए समानता का समर्थन करता है? क्या वह उन्हें आजादी का लाभ देना चाहता है? कम से कम क्या वह उनके तथा हिन्दुओं के बीच भाईचारे की गांठ को मजबूत करने में मदद देता है? क्या वह हिन्दुओं को सिखाता है कि अस्पृश्य उन्हीं के सजातीय हैं? क्या वह हिन्दुओं से कहता है कि यह पाप है कि अस्पृश्यों के साथ मानव तो क्या पशु से भी बदतर व्यवहार किया जाय? क्या वह हिन्दुओं से कहता है कि वह अस्पृश्यों के साथ न्याय करें? क्या वह हिन्दुओं को उपदेश देता है कि वे अस्पृश्यों के साथ न्यायोचित और मानवीय व्यवहार करें? क्या वह हिन्दुओं के मानस में अस्पृश्यों के प्रति मैत्री भाव रखने का संस्कार डालता है? क्या वह हिन्दुओं को सिखाता है कि वह अस्पृश्यों से प्रेम करें, उनका आदर करें और उनका कोई अहित न करें? संक्षेप में क्या हिन्दू धर्म बिना किसी भेदभाव के जीवन के मूल्य को सर्वव्यापी बनाता है?’

कोई भी हिन्दू इनमें से किसी भी सवाल का जबाब हाँ में देने का साहस नहीं कर सकता। इसके विपरीत हिन्दुओं ने अस्पृश्यों के प्रति जो अन्याय किये हैं वह ऐसे कर्म हैं जिन्हें हिन्दू धर्म मान्यता प्रदान करता है। वे हिन्दू धर्म के नाम पर किये जाते हैं और उन्हें हिन्दू धर्म के नाम पर उचित ठहराया जाता है। इन्ही तथ्यों के आधार पर डा. अंबेडकर प्रश्न करते हैं- ‘किस प्रकार हिन्दू अस्पृश्यों से कह सकते हैं कि वे हिन्दू धर्म को स्वीकार करें और हिन्दू धर्म में बने रहें? किस कारण अस्पृश्य हिन्दू धर्म से चिपके रहें जब कि वह उनकी अधोगति के लिए पूर्णतः उत्तरदायी है?’ अम्बेडकर का साफ कहना था कि ‘हिन्दू धर्म में अस्पृश्यों के लिए आशा की कोई किरण नहीं है। लेकिन यही एकमात्र कारण नहीं है, जिसकी वजह से अस्पृश्य लोग हिन्दू धर्म को छोड़ना चाहते हैं।’ अपने निजी अनुभवों के आधार पर डा. अम्बेडकर यह अच्छी तरह जानते थे कि हिन्दू अस्पृश्य को अति हेय दृष्टि से देखते हैं और इसीलिए उन्होंने लिखा ‘‘हिन्दू धर्म अस्पृश्यों के आत्मसम्मान के प्रतिकूल है। यह एक सबसे सशक्त आधार है और इस बात को उचित ठहराता है कि अस्पृश्य किसी अन्य उदार और उद्दात्त धर्म को ग्रहण कर लें।’’

30-31 मई 1936 को बाबासाहेब अम्बेडकर ने मुंबई में हुए महार सम्मलेन में धर्मान्तरण के प्रश्न पर एक महत्वपूर्ण भाषण दिया। इससे एक वर्ष पूर्व वह अपनी महत्वपूर्ण घोषणा कर चुके थे कि वह पैदा हिन्दू हुए हैं किन्तु मरेंगे हिन्दू के रूप में नहीं। महार सम्मलेन इसी घोषणा की पृष्ठभूमि में उसके प्रभाव का आकलन करने के उद्देश्य से हो रहा था। अपने भाषण में डा. अम्बेडकर ने इस तथ्य को रेखांकित किया कि अस्पृश्यता तथा अस्पृश्यों पर होनेवाले अत्याचार सवर्ण हिन्दुओं तथा अस्पृश्यों के मध्य चल रहे वर्ग संघर्ष का परिणाम हैं तथा यह संघर्ष उसी समय आरम्भ हो जाता है जब अस्पृश्य अपने अधिकारों तथा समानता की मांग करता है। अम्बेडकर ने श्रोताओं को आगाह किया कि सवर्ण हिन्दुओं तथा अस्पृश्यों के मध्य संघर्ष शाश्वत है क्योंकि इसे जन्म देनेवाला धर्म शाश्वत है। अम्बेडकर के अनुसार आतंक का सामना करने के लिए शक्ति की आवश्यकता थी और यह शक्ति अस्पृश्यों के पास नहीं थी। वह इसे किसी अन्य धर्म के सदस्य बन कर ही प्राप्त कर सकते थे. अम्बेडकर ने अपने भाषण में कहा- ‘‘हमारे आन्दोलन का उद्देश्य है अस्पृश्यों के लिए सामाजिक मुक्ति हासिल करना। यह भी उतना ही सत्य है कि यह मुक्ति बिना धर्मांतरण के प्राप्त नहीं की जा सकती है।’’ जिसने स्वयं घर छोड़ा हो तथा जो घर छोड़ने की जोरदार वकालात करता हो, उसके लिए यह कहना कि वह घर वापिसी के समर्थक थे, हास्यास्पद हो जाता है। डा.अम्बेडकर ने धर्मांतरण का समर्थन ही नहीं किया अपितु यह भी बताया कि धर्मांतरण कराने वालों के लिए मुख्य खतरा क्या है? ‘धर्म-परिवर्तन करने वाले कि स्थिति’ का विश्लेषण करते हुए उन्होंने ईसाई समुदाय को आगाह किया कि धर्मं का प्रचार करते समय अन्य चुनौतियों का सामना करने के साथ साथ ‘‘उन्हें तीखे तेवर वाले हिन्दू धर्म का भी सामना करना है, जो भारतीय राष्ट्रवाद का छद्म रूप धारण कर रहा है।’’

अम्बेडकर को मुस्लिम विरोधी सिद्ध करने के भी प्रयास हिन्दुत्ववादी ताकतों ने किये हैं। वह यह विश्वास दिलाते हैं कि बाबा साहेब पाकिस्तान के निर्माण के विरुद्ध तथा अखंड भारत के पक्षधर थे। इसमें कोई दो राय नहीं कि अम्बेडकर नहीं चाहते थे कि पाकिस्तान बने। इसके पीछे उनके अपने ठोस कारण थे। अम्बेडकर के अनुसार मुख्य राजनीतिक कार्य भारत में सवर्ण हिन्दुओं की निरंकुश सत्ता को स्थापित होने से रोकना था। उनका मानना था कि यह कार्य पाकिस्तान के निर्माण से पूरा नहीं होगा। वह सावरकर के अखंड भारत की अवधारणा से जिसके अनुसार हिन्दू राष्ट्र में मुसलमानों को या तो दोयम दर्जे का नागरिक बन कर रहना होगा या फिर देश छोड़ देना होगा (बाबर की औलादो भारत छोडो का नारा इसी मनोवृति का सूचक है) से सहमत नहीं थे। तुर्की व चेकोस्लोवाकिया के बहुराष्ट्रीयता बाले राज्यों का उदाहरण देते हुए उन्होंने इस तथ्य को रेखांकित किया कि जब भी एक राष्ट्रीयता ने दूसरी राष्ट्रीयता का दमन करने का प्रयास किया उसके परिणाम अनिष्टकारी हुए। इस तरह वह यह मानते थे कि ऐसा अखंड भारत जिसमें मुसलमानों को अधीनस्थ का दर्जा दिया जाता ना तो व्यवहारिक था और ना ही साम्प्रदायिक समस्या का समाधान था। इसीलिए उन्होंने कहा कि यदि मुसलमान पाकिस्तान चाहते हैं तो उनकी मांग को स्वीकार कर लेना चाहिए। साम्प्रदायिक गतिरोध और उसके समाधान के उपाय शीर्षक आलेख में (सम्पूर्ण वाड्मय खंड 2) वह लिखते हैं ‘‘मेरे प्रस्ताव संयुक्त भारत के लिए हैं। यह प्रस्ताव इस आशा से पेश किये गए हैं कि मुसलमान पाकिस्तान के स्थान पर इन प्रस्तावों को स्वीकार कर लेंगे क्योंकि ये प्रस्ताव पाकिस्तान द्वारा दी जाने वाली सुरक्षा की अपेक्षा अधिक सुरक्षा प्रदान करेंगे। मैं पाकिस्तान का विरोधी नहीं हूँ. मेरा विश्वास है कि यह आत्म-निर्णय के सिद्धांत के आधार पर बनाया गया है और इसको अब चुनौती देने का समय व्यतीत हो चुका है।’ क्या पाकिस्तान बनना चाहिए? इस प्रश्न पर विचार करते हुए उन्होंने मत व्यक्त किया था ‘‘एक बार यह निश्चित हो जाने पर कि मुसलमान पाकिस्तान चाहते हैं तो इसमें कोई संदेह नहीं रह जाता कि इस सिद्धांत को मान लेना ही बुद्धिमानी की बात होगी।’’

बात यहीं पर समाप्त नहीं हो जाती है. डॉ. अम्बेडकर भारत पर मुस्लिम आक्रमण और मुस्लिम शासन के दुष्परिणामों के हिन्दुत्ववादी आकलन से भी सहमत नहीं थे। उनका मानना था कि ‘‘मुसलमान आक्रमणकारियों ने हिन्दू धर्म के बाहरी प्रतीकों जैसे मंदिरों और मठों आदि को तो नष्ट किया था, लेकिन उन्होंने हिन्दू धर्म को न तो निर्मूल किया और न उन्होंने उन सिद्धांतों और मतों से जनता को विमुख करने की कोशिश की जो सामान्य जन के आध्यात्मिक जीवन को संचालित करते थे।’’

संघ के विद्वानों ने अम्बेडकर की छवि एक समाज सुधारक के रूप में पेश की. उनका कहना है कि बाबासाहेब हिन्दू धर्म के नहीं अपितु, परवर्ती काल में, उसमें आई विसंगतियों के विरुद्ध थे तथा उनका सुधार करना चाहते थे। ऐसा कह कर वह क्रांतिकारी अम्बेडकर को सुधारक अम्बेडकर में बदल कर उनके कद को बौना करने का काम करते हैं और वह भी तब जबकि अम्बेडकर ने 30-31 मई के महार सम्मलेन में दिए अपने भाषण में स्पष्टतौर पर कहा था ‘‘हिन्दू समाज का सुधार करना ना तो हमारा उद्देश्य है और न ही हमारे कार्य का क्षेत्र है। हमारा लक्ष्य स्वतन्त्रता प्राप्त करना है. अन्य किसी बात से हमें कुछ भी लेना देना नहीं है। यदि हम धर्म परिवर्तन द्वारा मुक्ति पा सकते हैं तो हम हिन्दू धर्म का सुधार करने की जिम्मेदारी अपने कन्धों पर क्यों लें।’’ उन्होंने आगाह किया कि ‘‘किसी को भी हमारे आन्दोलन के लक्ष्य को हिन्दू समाज सुधार समझने की भूल नहीं करना चाहिए. हमारे आन्दोलन का उद्देश्य अस्पृश्यों के लिए सामाजिक मुक्ति प्राप्त करना है।’’

यह भी दावा किया जाता है कि डा. अम्बेडकर की शिकायत हिन्दू धर्म में आ गई विकृतियों भर से थी तथा वह वैदिक धर्म में आस्था रखते थे। संघ परिवार का यह दावा भी पूर्णरूप से निराधार है। अपने आलेख ‘बुद्ध और उनके धर्म का भविष्य’ में वैदिक धर्म की आलोचना करते हुए वह बताते हैं कि यज्ञ हवन वाला कर्मकांड ही वैदिक धर्मं है। उन्होंने लिखा ‘‘ब्राह्मणवादी या वैदिक धर्म का यह सार तत्व था। इसे नैतिकता से कुछ लेना देना नहीं था’’ जाति-प्रथा का उन्मूलन (सम्पूर्ण वाड.मय खंड-1) में डॉ. अम्बेडकर ने इस बात पर जोर दिया है कि ‘यदि आप जाति-प्रथा में दरार डालना चाहते हैं तो इसके लिए आपको हर हालत में वेदों और शास्त्रों में विस्फोटक लगाना होगा, क्योंकि वेद और शास्त्र किसी भी तर्क से अलग हटाते हैं और वेद तथा शास्त्र किसी भी नैतिकता से वंचित करते हैं। आपको श्रुति और स्मृति के धर्म को नष्ट करना ही चाहिए. इसके अलावा और कोई चारा नहीं है। यही मेरा सोचा विचारा हुआ विचार है।’’ जो वेद और शास्त्र को नष्ट करने की सलाह दे रहा हो उसके लिए यह कहना कि वह वैदिक धर्म में आस्था रखता है हास्यास्पद हो जाता है। ब्राह्मणवाद की विजय आलेख में वह लिखते हैं ‘’ब्राह्मणवाद के लिए धर्म एक आवरण है जिसकी आड़ में वह लोभ और स्वार्थ की राजनीति करते आये हैं।’’

हिंदुत्ववादी ताकतों द्वारा यह भी प्रचार किया जाता है कि अम्बेडकर साम्यवाद के खिलाफ थे। दलितों का बुर्जुआ नेतृत्व भी इसी प्रकार का प्रचार करता है। ऐसा करना उसके लिए स्वाभाविक है. आज भी दलितों का अधिकांश मेहनतकश तथा गरीब है। वह शोषण तथा उत्पीडन से मुक्ति पाना चाहता है। अतः इसकी संभावना अधिक हो जाती है कि वह साम्यवाद की तरफ जाये। आखिर इस तथ्य को कैसे नकारा जा सकता है कि एक समय कम्युनिस्ट पार्टी को दलितों की पार्टी के नाम से पुकारा जाता था। हिन्दुत्ववादी जानते थे कि दलितों को अपनी ओर लाना है तो उन्हें कम्युनिस्टों के साथ जाने से रोकना होगा। इसलिए यह प्रचार किया गया कि उनके आराध्य अम्बेडकर कम्युनिस्टों के विरोधी थे अतः उन्हें भी कम्युनिस्टों का विरोधी होना चाहिए। इसमें दो राय नहीं कि अम्बेडकर और माक्र्सवाद के विचारों में अंतर था किन्तु अम्बेडकर माक्र्सवाद के विरोधी नहीं थे। इसके विपरीत वह एक सीमा तक साम्यवादी विचारधारा से सहमत ही थे। वह यह मानते थे कि साध्य की दृष्टि से गौतम बुद्ध तथा माक्र्सवाद के विचार समान थे। इसका स्पष्ट तात्पर्य है कि माक्र्सवाद का लक्ष्य उन्हें स्वीकार्य था। वर्ग-संघर्ष का सिद्धांत माक्र्सवाद का बुनियादी सिद्धांत है। जब अम्बेडकर इस पर जोर देते हैं कि भारत में वर्ग संघर्ष का अस्तित्व प्राचीन काल से ही था तो वह इस सिद्धांत की वास्तविकता को ही स्वीकार कर रहे होते हैं। वह लिखते हैं ‘’वर्ग-चेतना, वर्ग-युद्ध और वर्ग संघर्ष जैसी विचारधारा के बारे में माना जाता है कि यह कार्ल माक्र्स के लेखन से अस्तित्व में आई। यह एक भारी गलती है। भारत वह देश है जिसने वर्ग संघर्ष का वास्तविक अनुभव किया है।’’ ब्राह्मणवाद की विजय शीर्षक आलेख में वह लिखते हैं ‘‘अधिकाँश रुदिवादी हिन्दू वर्गयुद्ध के उस इतिहास का विरोध करते हैं, जिसका प्रतिपादन कार्ल माक्र्स ने किया था और अगर उनसे यह कहा जाय कि माक्र्स अपने सिद्धांत की पुष्टि करने के लिए जो अकाटय साक्ष्य खोज रहा था वह संभवतः उनके अपने पूर्वजों के इतिहास में ही मिल जायें तो वह अवश्य भौंचक्के रह जायेंगे।’’ वर्ग संघर्ष की ही तरह माक्र्सवाद के दूसरे महत्वपूर्ण सिद्धांत सर्वहारा वर्ग की तानाशाही से भी एक सीमा तक अम्बेडकर की सहमति थी. उन्होंने उसे सिरे से नहीं नकारा था. अपने आलेख बुद्ध अथवा कार्ल माक्र्स (सम्पूर्ण वाड्मय खंड-7) में वह लिखते हैं ‘’यह दावा किया गया है कि रूस में साम्यवादी तानाशाही के कारण आश्चर्यजनक उपलब्धियाँ हुईं हैं। इससे इन्कार नहीं किया जा सकता। इसी कारण मैं यह कहता हूँ कि रूसी तानाशाही सभी पिछड़े देशों के लिए अच्छी और हितकर होगी।’’ अपने इसी आलेख में वह यह भी लिखते हैं कि ‘’यदि हम यह समझलें कि दुःख का कारण शोषण है, तब बुद्ध इस विषय में माक्र्स से दूर नहीं हैं।’’ इसमें कोई संदेह नहीं कि साम्यवाद के कुछ सिद्धांतों के सम्बन्ध में डॉ, अम्बेडकर की असहमति थी किन्तु इसके साथ ही इसमें भी कोई संदेह नहीं कि वह साम्यवाद के धुर विरोधी भी नहीं थे तथा एक से अधिक ऐसे बिंदु थे जहां वह साम्यवादी विचारधारा से सहमत थे।

डॉ.अम्बेडकर को अपने खेमे में लेने के लिए किस तरह उनके विचारों का विकृतीकरण किया गया, यह देख लेने के उपरांत यह जानना उचित रहेगा की वास्तव में हिंदूवादी विचारधारा के सम्बन्ध में उनके विचार क्या थे। हिन्दू धर्म, दर्शन और समाज व्यवस्था पर डॉ. अम्बेडकर ने विस्तार से लिखा है। यह बताने की जरूरत नहीं कि उन्होंने जो भी लिखा वह स्पष्ट रूप से बताता है कि डॉ. अम्बेडकर कुछ भी रहे हों पर संघ परिवार की हिंदूवादी विचारधारा के अनुयायी नहीं थे।

महाराष्ट्र सरकार द्वारा प्रकाशित डॉ. अम्बेडकर के सम्पूर्ण वाड्मय के खंड-6 में ‘हिंदुत्व का दर्शन’ शीर्षक से एक आलेख है। इस आलेख का मूल विषय हिन्दू धर्म के दर्शन का परीक्षण करना है। जैसाकि डॉ. अम्बेडकर ने लिखा ’‘हिन्दू धर्म के दर्शन के परीक्षण के लिए मैं न्याय की कसौटी तथा उपयुक्तता की कसौटी। इन दोनों कसौटियों को लागू करना चाहूंगा।’’ न्याय की कसौटी से उनका तात्पर्य क्या है इसे बताते हुए वह लिखते हैं कि ‘‘संक्षेप में न्याय का दूसरा सरल नाम है स्वतन्त्रता, समानता और भ्रातृत्व और हिन्दू धर्म को परखने के लिए मैं न्याय को इसी अर्थ में एक कसौटी के रूप में प्रयोग करूंगा.’’ इस कसौटी का प्रयोग करते हुए डॉ. अम्बेडकर जिन निष्कर्षों पर पहुंचे वह निम्न हैंः

(1) ‘’आपको हिंदुत्व के धर्म में सामाजिक तथा धार्मिक असमानता दोनों का ही समावेश मिलेगा…हिन्दू धर्म केवल समानता को ही नकारता है ऐसा नहीं है। परन्तु वह मानव व्यक्तित्व की पवित्रता को ही नकारता है… बात यहीं समाप्त नहीं होती क्योंकि मनु केवल मानव व्यक्तित्व को अमान्य करने पर ही नहीं रुका। उसने जान-बूझ कर मानव व्यक्तित्व का अधःपतन किया।’’ एक दूसरे स्थान पर (ब्राह्मणवाद की विजय शीर्षक आलेख, सम्पूर्ण वाड.मय खंड-7 में ) उन्होंने लिखा ‘’वर्गीकृत असमानता का सिद्धांत सारी मनुस्मृति में छाया हुआ है। जीवन का कोई ऐसा क्षेत्र नहीं है जहां मनु ने वर्गीकृत असमानता के सिद्धांत को आधार न बनाया हो।’’ डॉ. अम्बेडकर ने हिंदुत्व के दर्शन के परीक्षण के लिए मुख्य आधार मनु स्मृति को बनाया क्योंकि उनका मानना था कि मनु स्मृति, गीता, वेद में इस सम्बन्ध में कोई विशेष अंतर नहीं है. यहाँ यह इंगित करना असंगत नहीं होगा कि मनु स्मृति संघ परिवार के लिए एक पवित्र तथा पूज्य ग्रन्थ है और गुरु गोलवलकर उसे न केवल भारत अपितु सम्पूर्ण विश्व के संविधान के रूप में स्थापित करना चाहते थे. मनु के समानता संबंधी विचारों का अध्ययन कर अम्बेडकर इस निष्कर्ष पर पहुंचे ‘’मनु सामाजिक असमानता में कट्टर विश्वास रखता था और वह धार्मिक समानता को स्वीकार करने के खतरे को जानता था। यदि मैं ईश्वर के सामने समान हूँ तो इस धरती पर समान क्यों नहीं बन सकता? मनु शायद इस प्रश्न से भयभीत था। इसकी स्वीकृति देने और सामाजिक असमानता को समाप्त करने के लिए धार्मिक समानता की अनुमति देने की बजाय उसने धार्मिक समानता को नकारना ही अधिक पसंद किया।’’ डॉ. अम्बेडकर की नजर में समानता मूल तत्व है तथा अन्य तत्व उस पर आधारित हैं। समानता मूल धारणा और मानव व्यक्तित्व के प्रति आदर है। तब जहां समानता को नकारा गया है, तब यह मानना चाहिए कि अन्य सभी बातों को भी नकारा गया है। ‘ब्र्राह्मणवाद की विजय’ आलेख में वह लिखते हैं ’‘यही वर्गीकृत असमानता का सिद्धांत है जिसे ब्राह्मणवाद ने समाज की हड्डियों और मज्जा में घोल दिया. अन्याय को समाप्त करने के लिए समाज को पंगु बनाने के लिए इससे अधिक कुछ बुरा और नहीं किया जा सकता था। हालांकि इसके प्रभाव स्पष्ट रूप से नजर नहीं आते लेकिन इसमंे कोई संदेह नहीं है कि इसके कारण हिन्दू पंगु हो गये’’ हिन्दुओं और उनके मित्रों से कुछ प्रश्न (आलेख सम्पूर्ण वाड.मय खंड-17) में भी वह इस बात पर जोर देते हैं कि ‘‘हिन्दू समाज में केवल असमानता ही नहीं है, बल्कि असमानता हिन्दू धर्म का प्राण है. हिन्दुओं की समानता में रूचि नहीं है। उनकी अभिरुचि और प्रवृति सभी व्यक्तियों के समान मूल्य के लोकतांत्रिक सिद्धांत के विरुद्ध है।’’

(2) यह सिद्ध करने के उपरांत कि हिंदूवादी विचारधारा समानता की विरोधी है और मनुष्य के व्यक्तित्व के पतन का प्रतीक है, अम्बेडकर ने स्वतन्त्रता पर उसके दृष्टिकोण का परीक्षण किया। डॉ. अम्बेडकर का मानना था कि बिना सामाजिक समानता और आर्थिक सुरक्षा के वास्तविक स्वतंत्रता संभव नहीं है। इसके साथ ही वह यह भी मानते थे कि ‘’ज्ञान का सब लोगों के लिए उपलब्ध होना आवश्यक है।’’ हिंदूवादी विचारधारा इन मानकों पर खरी नहीं उतरती है। डॉ. अम्बेडकर ने लिखा है ‘’हिन्दू धर्म किस प्रकार से समानता को नकारता है यह बात हमने पहले ही स्पष्ट की है। वह विशेष अधिकार और असमानता को मानता है। इस प्रकार हिन्दू धर्म में स्वतन्त्रता की आवश्यक प्रथम कसौटी की अनुपस्थिति प्रकट करता है।’’

जहां तक दूसरी कसौटी का सम्बन्ध है अम्बेडकर इस तथ्य को रेखांकित करते हैं कि ’’आर्थिक सुरक्षा के सम्बन्ध में हिन्दू धर्म में तीन बातें दिखाई देती हैं। हिन्दू धर्म व्यवसाय की स्वतन्त्रता को नकारता है। मनु की योजना में प्रत्येक मनुष्य के लिए उसके जन्म के पहले ही व्यवसाय निश्चित कर दिया गया है…. दूसरे हिन्दू धर्म मनुष्य को दूसरों द्वारा चुने गए उद्देश्य की पूर्ती के लिए कार्य करने को बाध्य करता है. मनु शूद्र से कहता है कि उसका जन्म ऊंचे वर्णों की सेवा करने के लिए ही हुआ है’’ वर्ण तथा पूर्व निर्धारित व्यवसाय के इस सिद्धांत ने हिन्दू मानस में कितनी गहराई से घर कर रखा है इसका अनुमान इसीसे लगाया जा सकता है कि छुआछूत के विरोधी महात्मा गाँधी भी जन्म से निर्धारित कर्म के सिद्धांत को मानते थे। इस तरह हिंदूवादी विचारधारा व्यक्ति की, विशेषकर शूद्र की आर्थिक स्वतन्त्रता का हनन करती है। इतना ही नहीं वह शूद्र के द्वारा संपत्ति के संचय पर भी प्रतिबन्ध लगाती है अतः अम्बेडकर का मानना था कि ‘’हिन्दू धर्म में व्यवसाय चयन के लिए अनुमति नहीं है। उसमें आर्थिक स्वतन्त्रता नहीं है और कोई आर्थिक सुरक्षा भी नहीं है. शूद्र की आर्थिक स्थिति बहुत ही कमजोर हैै।’’

जहां तक ज्ञान की उपलब्धता का सवाल है अम्बेडकर के अनुसार वह भी सबको सुलभ नहीं था। वह लिखते हैं कि ‘’जिन लोगों को वेदों के अध्ययन का अधिकार था, उन लोगों को ही पढ़ने लिखने का अधिकार प्राप्त हुआ। जिन लोगों को वेदों के अध्ययन का अधिकार नहीं था, उन लोगों को पढ़ने लिखने के अधिकार से भी वंचित रखा गया। इस प्रकार यह कहना सर्वथा उपयुक्त है कि मनु के विधान के अनुसार पढ़ना-लिखना कुछ मुटठी-भर ऊंचे वर्णों का अधिकार बन गया और निरक्षरता उन अनेक नीचे वर्णों का भाग्य बन गयी।’’ अतः अम्बेडकर का स्पष्ट मत था ‘‘हिंदुत्व ज्ञान के प्रसार का एक माध्यम होने के वजाय अन्धकार का एक सिद्धांत है।’’अपने विश्लेषण के आधार पर अम्बेडकर निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि ’‘स्वतन्त्रता की उन्नति के लिए जिन स्थितियों की आवश्यकता होती है, हिन्दू धर्म उनके विरुद्ध है। इसलिए वह स्वतन्त्रता को नकारता है।’’

(3) समानता और स्वतन्त्रता की ही तरह हिंदुत्व भ्रातृत्व भावना को भी नकारता है। डॉ. अम्बेडकर का मानना था कि उंच नीच के सिद्धांत पर आधारित जाति प्रथा के रहते हिंदुत्व में बंधुत्व की भावना के लिए कोई स्थान नहीं है। वह लिखते हैं कि ‘’जाति प्रथा की यह क्रमिक वनाबट एक विशेष तरह की सामाजिक मानसिकता बनने और बनाने के लिए जिम्मेदार है। प्रथम इसके कारण विभिन्न जातियों में प्रतिष्ठा के लिए प्रतिस्पर्धा की भावना निर्मित होती है। दूसरे विभिन्न जातियों के बीच एक दूसरे के लिए द्वेष और घृणा की भावना पनपती है।’’

डॉ. अम्बेडकर बंधुत्व की भावना के लिए आवश्यक शर्तों का भी उल्लेख करते हैं ‘‘बंधु भाव की इस भावना को बढ़ावा देने के लिए जीवन की सभी सजीव प्रक्रियाओं में सहभागी बनाना आवश्यक है। जन्म, मृत्यु, विवाह, भोजन आदि के सुख-दुःख में हिस्सेदार बनने से बंधुत्व की भावना बढ़ती है.’’ डॉ. अम्बेडकर के अनुसार जीवन के सुख दुःख बांटने की इस प्रक्रिया का पूर्ण अभाव हिन्दुओं में पाया जाता है। इसके कारण पर प्रकाश डालते हुए वह लिखते हैं कि ’‘वे इन्हें बांटने से इसलिए इन्कार करते हैं क्योंकि उनका धर्म उन्हें ऐसा ही करने के लिए कहता है. हिन्दू धर्म शिक्षा देता है सहभोज न करने की, अंतर्विवाह न करने की, और परस्पर सम्बन्ध न रखने की. यह नहीं करना, वह नहीं करना यही हिन्दू धर्म के उपदेश का सार है। सभी लज्जित करने वाली बातें जो मैंने यहाँ बताई हैं हिन्दू धर्म की अलग और पृथक प्रवृत्ति को स्पष्ट करती हैं, जो हिन्दू धर्म के दर्शन की देन है. यही दर्शन बंधुभाव को पूरी तरह नकारता है।’’अपने इस विश्लेषण का निचोड़ पेश करते हुए अम्बेडकर लिखते हैं कि ‘’न्याय की दृष्टि से हिंदुत्व के दर्शन का किया गया यह संक्षिप्त विश्लेषण यह सिद्ध करता है कि हिन्दू धर्म समानता, स्वतन्त्रता और बंधुत्व का विरोधी है।’’

हिंदुत्व के दर्शन को न्याय की कसौटी पर अस्वीकार करने के उपरांत अम्बेडकर उसे उपयोगिता की कसौटी पर कसते हैं। उनके विश्लेषण का आरम्भ बिन्दु है चातुर्वर्ण्य का सिद्धांत। उनके अनुसार ‘किसी भी सिद्धांत का मूल्य उसके नतीजों से परखना चाहिए। इसलिए, ’यदि अनुभव को एक कसौटी मानना है तब चातुर्वर्ण्य का तिरस्कार जरूरी है। एक शुद्ध सामाजिक संगठन के रूप में भी यह तिरस्कार है, उत्पादकों के संगठन के रूप में भी उसका तिरस्कार किया जाना चाहिए। बंटवारे की एक आदर्श योजना के रूप में भी बुरी तरह से असफल हो गया है… यदि उसे उत्पादन का एक आदर्श नमूना माना जाय, तब यह कैसे है कि उत्पादन की उसकी तकनीक आदिमानव की तकनीक से अधिक विकसित नहीं हो सकी और यदि इसे बंटवारे की एक आदर्श योजना माना जाय तो इसके कारण धन की इतनी अधिक असमानता कैसे उत्पन्न हो गयी, जहां एक ओर असीमित संपत्ति है, तो दूसरी ओर असीमित गरीबी।’ डॉ. अम्बेडकर जाति प्रथा को भी एक उपयोगी सामाजिक संस्था के रूप में स्वीकार नहीं करते हैं। जाति प्रथा के सम्बन्ध में उनके निष्कर्ष हैं ‘(1) जाति से श्रमिकों का विभाजन होता है, (2) जाति के कारण मनुष्य को उसके काम के प्रति रूचि नहीं रहती, (3) जाति के कारण बुद्धि का शारीरिक श्रम से संबंध नहीं रहता, (4) जाति मनुष्य की प्रमुख रूचि को विकसित करने के उसके अधिकार को नकारती है जिसके कारण वह निर्जीव बनता है और जाति स्थान परिवर्तन पर प्रतिबन्ध लगाती है।’

अपने इस विश्लेषण के आधार पर अम्बेडकर लिखते हैं ‘‘ऐसे दर्शन या तत्व ज्ञान को जो समाज को अलग अलग टुकड़ों में बांटता हो, जो कार्य को रूचि से अलग करता हो, जो मनुष्य के वास्तविक हितों के अधिकार को नष्ट करता हो और जो संकट के समय समाज को सुरक्षित करने के लिए अपने साधनों को गतिशील बनाने के मार्ग में रुकावटें पैदा करता हो, ऐसा दर्शन सामाजिक उपयोगिता की कसौटी पर सफल है ऐसा कैसे कहा जा सकता है? इसलिए हिन्दू धर्म का दर्शन न तो सामाजिक उपयोगिता की कसौटी पर और न ही व्यक्तिगत न्याय की कसौटी पर खरा उतरता है।’’ डॉ. अम्बेडकर का सुनिश्चित मत था कि शासित जातियों, जिनसे उनका तात्पर्य मुख्यतः दलित जातियों से ही था, के पतन और अपमान के लिए ब्राह्मणवाद का दर्शन ही उत्तरदाई है। उनके अनुसार ‘‘इस ब्राह्मणवाद के दर्शन शास्त्र के छः धर्म सूत्र हैं- (1) विभिन्न वर्गों में असमानता (2) शूद्रों और अछूतों की पूरी बेबसी (3) शूद्रों अछूतों के लिए शिक्षा द्वार बंद होना (4) सत्ता और अधिकार से शूद्रों और अछूतों को पूर्णतः वंचित रखना (5) शूद्रों अछूतों को संपत्ति संचय से वंचित रखना और (6) स्त्रियों की पूर्ण अधीनता और दमन।’’

डॉ. अम्बेडकर को इस बात का एहसास था कि मनु स्मृति को हिन्दू धर्म के दर्शन का आधिकारिक ग्रन्थ मानने की उनकी मान्यता को चुनौती दी जा सकती है। इसका उत्तर देते हुए वह लिखते हैं ‘यह मानते हुए भी कि स्मृतियों में हिन्दू धर्म के दर्शन का समावेश नहीं है किन्तु उसे वेद तथा भगवतगीता से प्राप्त किया जा सकता है, यह प्रश्न रह ही जाता है कि इससे अंतिम परिणामों पर क्या फर्क पड़ता है?मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि चाहे हम स्मृति, वेद अथवा भगवत गीता को लें, उससे इस स्थिति में कोई ज्यादा फर्क नहीं पड़ता।’

अम्बेडकर ने इस तथ्य को रेखांकित किया कि चातुर्वर्णय की स्थापना ऋग्वेद के पुरुषसूक्त के द्वारा हुई तथा गीता में उसको पुष्ट किया गया। उनके अनुसार ’‘वेद तथा भगवद्गीता में एक सर्व साधारण सिद्धांत का विचार है, जबकि मनु स्मृति में उस सिद्धांत की विशेषताएं और अन्य विस्तारित बातों को स्पष्ट करने पर ध्यान दिया गया है। लेकिन जहां तक मनु स्मृति वेद तथा भगवद् गीता के सार के संबंध हैं यह सब एक ही नमूने पर बुने गए हैं। इन सभी के भीतर एक ही प्रकार का धागा चलता है और वास्तव में यह सभी एक ही वस्त्र के हिस्से हैं।

निष्कर्ष के तौर पर डॉ. अम्बेडकर लिखते हैं ‘‘संक्षेप में हिन्दू धर्म का दर्शन ऐसा है कि उसे मानवता का धर्म नहीं कहा जा सकता है…कुल मिला कर हिन्दू धर्म लोगों को अन्धकार में छोड़ देता है. इतने क्रूर अधर्म से अधिक क्रूर कार्य और क्या हो सकता है। यह ईश्वर के साथ मनुष्य का जो संबंध है उसी को भंग कर देता है। हिन्दू धर्म का दर्शन ऐसा है कि वह महामानव (ब्राह्मण) के लिए स्वर्ग है तो साधारण मनुष्य के लिए नरक है।’’

डॉ. अम्बेडकर को इसका एहसास था कि उनके विचारों की आलोचना करते हुए कहा जा सकता है कि उन्होंने हिन्दू धर्म के दर्शन का झूठा चित्र प्रस्तुत किया है क्योकि हिन्दू दर्शन का मूल स्रोत उपनिषद् हैं और वह उन पर विचार नहीं करते हैं। इस संभावित आलोचना का भी वह उत्तर देते हैं। इस आलोचना का उत्तर देने के लिए ही उन्होंने उपनिषदों के दर्शन का भी विश्लेषण किया. हक्सले ने उपनिषदों के दर्शन का जो सार तत्व प्रस्तुत किया उससे अम्बेडकर पूर्णतः सहमत हैं। ‘’विश्व का सारभूत पदार्थ है ब्रह्मा और मनुष्य की आत्मा और ब्रह्म और आत्मा दोनों भी एक दूसरे से केवल उनकी अभिव्यक्ति, भावना, विचार, इच्छा, सुख तथा दुःख के कारण अलग हैं जिसके कारण जीवन का भ्रामक मायाजाल खडा होता है।’’ उपनिषद् के इस दर्शन की लाला हरदयाल ने कटु शब्दों में आलोचना की है तथा डॉ. अम्बेडकर उस आलोचना से भी पूरी तरह सहमत हैं। डॉ. अम्बेडकर द्वारा उद्धृत लाला हरदयाल की औपनिशेदिक दर्शन की आलोचना इस प्रकार है. ‘’उपनिषद् यह दावा करता है कि उसके ज्ञान से प्रत्येक वस्तु का ज्ञान प्राप्त होता है। परिपूर्णता की यह लालसा ही भारत के कृत्रिम आध्यात्मवाद का आधार बन गयी है। उपनिषद् के यह लेख मूर्ख विचार, असंगत कल्पनाओं तथा भ्रमित करने वाले अनुमानों से भरे हैं…भारत के नवयुवकांे अपने दुर्गन्धयुक्त आध्यात्मिक ग्रंथों में बुद्धिमत्ता देखने का प्रयास मत करो। इनमें शब्दों की अंतहीन कसरत के अलावा कुछ भी नहीं है।’’ डॉ. अम्बेडकर उपनिषद् के अध्यात्म के ही आलोचक नहीं हैं अपितु यह भी मानते हैं कि वह पूरी तरह से प्रभावहीन रहा है ‘‘यह बात निर्विवाद है कि हिन्दू नीति शास्त्र और उपनिषदों के दर्शन के बावजूद मनु द्वारा उद्घोषित हिन्दू धर्म के दर्शन में एक बिंदी अथवा बहुत ही मामूली सी बात भी नहीं मिटाई जा सकी. मनु ने धर्म के नाम पर जो कलंकित शिक्षा दी उसे नष्ट करने के लिए वह बहुत ही परिणाम शून्य तथा शक्तिहीन थे और उनके अस्तित्व के होते हुए भी हम यह भी कह सकते हैं कि -हिन्दू धर्म तेरा नाम असमानता है।’’

डॉ. अम्बेडकर ने इस तथ्य को भी रेखांकित किया कि हिन्दू दर्शन में फासीवाद के विषाणु मौजूद हैं। अपनी बात को स्पष्ट करते हुए वह लिखते हैं ‘‘क्या इसके समानांतर भी कोई दर्शन है? उसे बताते हुए भी मुझे घृणा आती है। परन्तु बात बिलकुल स्पष्ट है। हिन्दू धर्म के दर्शन का समानांतर केवल नीत्शे में ही मिलता है।’’ वह इस तथ्य को रेखांकित करते हैं कि ’‘नीत्शे के दर्शन में नाजीवाद निर्माण की क्षमता है….चाहे कुछ भी हो नाजी लोग नीत्शे को अपना पूर्वज कहते हैं और उसे अपना आध्यात्मिक गुरु मानते हैं’’ अपने तर्क को आगे बढ़ाते हुए उन्होंने लिखा ‘’नीत्शे जिसके दर्शन से इतनी तीव्र उपेक्षा तथा डर पैदा होता है, उसकी बराबरी मनु से करने से निश्चित ही हिन्दुओं को अचम्भा हो सकता है. परन्तु इस सच्चाई के बारे में कोई संदेह नहीं किया जा सकता है. नीत्शे ने स्वयं यह बात कही है कि उसके दर्शन में उसने केवल मनु की योजना का ही अनुसरण किया है.’’ अपने कथन के समर्थन में डॉ, अम्बेडकर ने मनु स्मृति के सम्बन्ध में नीत्शे के विचारों को उद्धत किया है ‘‘यह उच्च मूल्यों से सराबोर है. यह पूर्णता की भावना से परिपूर्ण है. इसमें जीवन की स्वीकारोक्ति है, स्वयं जीवन के प्रति विजयानुभूति है-कुल मिला कर यह पुस्तक अति श्रेष्ठ है।’’

डॉ.अम्बेडकर हिन्दू दर्शन के कटु आलोचक थे वह उन्हें स्वीकार्य नहीं था। इसी तरह वह हिन्दू समाज व्यवस्था के भी खिलाफ थे। उनका मानना था कि इस समाज व्यवश्था में व्यक्ति के लिए कोई स्थान नहीं है। यह एक ऐसे समाज को स्थापित करती है जिसमें न भाईचारा है न स्वतन्त्रता और जो पूरी तरह से असमानता के सिद्धांत पर आधारित है. उनके शब्दों में ’’हिन्दू समाज व्यवस्था भाईचारे के खिलाफ है। इसमें समानता के सिद्धांत के लिए कोई स्थान नहीं है. समानता को मान्यता प्रदान करने के बजाय यह असमानता को अपना आधिकारिक सिद्धांत बनाती है. स्वतन्त्रता के बारे में स्थिति यह है कि व्यवसाय के चयन की स्वतन्त्रता नहीं है… जहां तक अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का सवाल है, यह स्वतन्त्रता है लेकिन उन्हीं लोगों के लिए जो समाज व्यवस्था के पक्षधर हैं।’’ तथा ‘’इस स्वतन्त्रता में न्यायविदों के लिए कोई स्वतन्त्रता नहीं है। तर्कशास्त्रियों के लिए समाज व्यवस्था की समालोचना की भी स्वतन्त्रता नहीं है, जिसका तात्पर्य यह है कि कहीं भी कोई स्वतन्त्रता नहीं है।’’

डॉ. अम्बेडकर के अनुसार हिन्दू समाज व्यवस्था का मूल आधार जाति प्रथा तथा वर्ण व्यवस्था है। चातुर्वर्णय व्यवस्था के बारे में अपनी रचना ‘जाति प्रथा-उन्मूलन’ में (सम्पूर्ण वाड.मय खंड -1) लिखा ‘मेरे लिए यह चातुर्वर्णय जिसमें पुराने नाम जारी रखे गए हैं, घिनौनी वस्तु है जिससे मेरा पूरा व्यक्तित्व विद्रोह करता है। लेकिन मैं यह नहीं चाहता कि मैं केवल भावनाओं के आधार पर चातुर्वर्ण्य के प्रति आपत्ती प्रकट करूं। इसका विरोध करने के लिए मेरे पास ठोस कारण हैं. इस आदर्श की अच्छी जांच परख के बाद मुझे पूरा विश्वास हो गया है कि यह चातुर्वर्ण्य सामाजिक संगठन के रूप में अव्यावहारिक घातक और अत्यंत असफल रहा है।’ विभिन्न वर्णों के मध्य संघर्ष के अनेक उदाहरण देने के उपरांत वह लिखते हैं ’‘जब विभिन्न वर्णों के बीच प्रतिद्वंदिता और शत्रुता के इतने सारे उदाहरण मौजूद हैं तब मैं नहीं समझता कि कोई व्यक्ति चातुर्वर्ण्य व्यवस्था को ऐसे प्राप्य आदर्श या प्रतिमान के रूप में कैसे मान सकता है जिसके आधार पर हिन्दू समाज की पुनः रचना की जाये।’’

निष्कर्ष के तौर पर वह लिखते हैं ‘’संक्षेप में हिन्दू समाज व्यवस्था ऐसी व्यवस्था है, जो वर्णों पर आधारित है, न कि व्यक्तियों पर। यह वह व्यवस्था है जिसमें वर्णों को एक दूसरे पर श्रेणीबद्ध किया गया है। यह एक ऐसी व्यवस्था है जिसमे वर्णों की प्रतिष्ठा तथा कार्य-निर्धारण निश्चित है। हिन्दू समाज व्यवस्था एक कठोर सामाजिक प्रणाली है। इस बात से उसे कोई लेना देना नहीं कि किसी व्यक्ति के पद और प्रतिष्ठा में अपेक्षाकृत परिवर्तन हो। लेकिन वह जिस वर्ण में पैदा हुआ है, उस वर्ण के सदस्य के रूप में उसकी सामाजिक स्थिति दूसरे वर्ण के दूसरे व्यक्ति के सन्दर्भ में किसी भी तरह से प्रभावित नहीं होगी। उच्च वर्ण में जन्मे और निम्न वर्ण में जन्मे व्यक्ति की नियति उसका जन्मजात वर्ण ही है।’’

हिन्दू दर्शन तथा समाज व्यवस्था की ही तरह डॉ. अम्बेडकर हिन्दू धर्म के भी कटु आलोचक थे। रानाडे, गांधी और जिन्ना शीर्षक आलेख (सम्पूर्ण वाड.मय खंड-1) में उन्होंने लिखा ‘‘हिन्दू धर्म तो प्रारम्भ से ही एक खोटा सिक्का जैसा रहा है। समाज के हिन्दू आदर्श ने जैसा कि हिन्दू धर्म द्वारा निर्धारित किया गया है हिन्दू समाज पर सबसे अधिक भ्रष्ट करने वाले तथा विकृत करने वाले प्रभाव के रूप में कार्य किया है। उसका स्वरुप तथा तत्व नीत्शेवादी है। नीत्शे के जन्म लेने से बहुत पहले ही मनु ने उस सिद्धांत की घोषणा कर दी थी, जिसका प्रचार करने का प्रयास नीत्शे ने किया. यह एक ऐसा धर्म है जिसका अभीष्ट स्वतन्त्रता, समानता तथा भ्रातृत्व की स्थापना करना नहीं है।’’

निष्कर्ष

यह स्पष्ट है कि डॉ. अम्बेडकर हिन्दू धर्म। हिन्दू दर्शन तथा हिन्दू समाज व्यवस्था के कटु आलोचक थे। वह उनको रंचमात्र भी स्वीकार नहीं करते थे। इसके बावजूद यदि उनको हिंदूवादी विचारधारा का बताया जाता है तथा अनेक मुद्दों पर उनके विचारों को तोड़ मरोड़ कर पेश किया जाता है तो यह या तो अज्ञान का सूचक है या फिर अपनी स्वार्थ-सिद्धि के लिए चली गयी चाल का। संघ परिवार के संबंध में यह दोनों का ही सूचक हो जाता है।

प्रस्तुतिः डॉ. एसपी कश्यप